विशेष

अपना ‘जै श्रीराम’ न कराओ : मैंने द केरला स्टोरी नहीं देखी क्योंकि मैंने…


Shambhunath Shukla
============
मैंने द केरला स्टोरी नहीं देखी। क्योंकि मैंने केरल में पिछले कोई चार दशक से रह रहीं रति सक्सेना की पोस्ट पढ़ी थी। उन्होंने लिखा था, कि उन्हें आज तक कोई केरला स्टोरी नहीं दिखी। इसी तरह मैंने कश्मीर फ़ाइल्स भी नहीं देखी। मैंने तो मानव कौल की किताब रूह ज़रूर पढ़ी। मानव कश्मीरी पंडित हैं। वे ख़ुद लिखते हैं, कि उन्हें घाटी में अपनापन फील होता है, जबकि होशंगाबाद में उनकी हैसियत विदेशी की है एवं कश्मीरी पंडितों के बीच मिश्रित रक्त की रही।

इतिहास व मिथक को आप तर्क की कसौटी से नहीं परख सकते बल्कि उन लोगों से तय कर सकते हैं, जो उनके प्रचारकों और विरोधियों के बीच रहे। सम्मानित लोगों का अनुभव भी बहुत सारे विवादों से बचाता है। मैंने एक रोज़ मिसेज़ चटर्जी vs नॉर्वे देखी परंतु आधी ही छोड़ कर उठ गया। जब आप पराये देश जाते हो तो वहाँ पर रह रही बहुसंख्यक आबादी की सभ्यता और संस्कृति का सम्मान करना चाहिए। उनकी संप्रभुता का सम्मान करो। आप अपने धर्म को मानों पर यह नहीं कि सामाजिक मर्यादा में भी अपनी चलाओ।

Anwar Khan
==============
सही कहा आपने शुक्ला जी
कहा जाता है कि फिल्में और नाटक समाज का आईना होते हैं और ये कई बार देखा भी गया है लेकिन जब फिल्में प्रोपेगेंडा की तरह काम करें तब समाज में केवल वैमनस्य और द्वेष फैलता है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी के साथ ऐसा नहीं हुआ है क्योंकि जो इंसानियत के दुश्मन हैं वो हर हथकंडे अपनाते हैं और संसार में ऐसी बहुत सी मिसालें हैं जहां इसी प्रकार के प्रोपेगेंडा फैलाकर इंसानियत का और समाज का बहुत नुकसान किया गया है आईसिस जैसे कट्टर संगठन किसी भी हद तक जा सकते हैं इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है और आजकल एक शब्द प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है “लव ट्रैप” और जो वीडियोज़ सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं उनको देखकर एक समाज ये महसूस कर रहा है कि ऐसा वास्तव में उनकी बच्चियों के साथ सुनियोजित तरीके से हो रहा है। एक वीडियो हाल ही में देखा कि एक पार्क में कुछ गुंडा तत्व जाकर लड़के लड़कियों को परेशान कर रहे हैं वहीं एक लड़का मिला जिसके साथ उसकी एक मुस्लिम दोस्त है उसको उन लोगों ने वहां से जाने दिया और उसके सम्मान में नारे लगाए। इस सबमें अब एक बड़ा वर्ग शामिल हो गया है बहुत से लोग प्रत्यक्ष रूप से और उससे भी अधिक अप्रत्यक्ष रूप से इसमें अपनी मौन सहमति दे रहे हैं। ऐसा हो सकता है लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि मुस्लिम लड़के लड़कियां अब दोस्त नहीं हो सकते वो एक दूसरे से केवल इसलिए दोस्ती कर रहे हैं कि उनसे उनका धर्म छुड़वाकर बच्चे पैदा करके छोड़ देना हैं ऐसी फिल्में और ये कहानियां केवल इस समाज को एक दूसरे से अलग कर रही हैं और जल्दी ही इसके परिणाम भी सामने होंगे और ये बात एक पत्रकार और लेखक होने एवं अपने शोध के आधार पर कर रहा हूँ।
इसी प्रकार दुनिया में घटित कुछ घटनाओं की बात करते हैं कि कैसे प्रोपेगेंडा चलाकर कई देश बर्बाद कर दिए गए और कैसे नरसंहार किये गए। उसमें से कुछ उदाहरण दे रहा हूँ कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने पूरे संसार को हिलाकर रख दिया था।
हिटलर को कौन नहीं जानता कि उसने कैसे अपने प्रोपेगैंडा चलाकर पूरे यहूदी समुदाय को तहस नहस कर दिया गया। 1933 में जर्मनी की कमान हिटलर के हाथों में आने के बाद जो कुछ जर्मनी में घटित हुआ उसको पढ़कर और सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। केवल आंकडो में ही 60 लाख यहूदियों के कत्ल की बात कही गई है असली संख्या ईश्वर ही जानता होगा। होलोकास्ट जैसी घटना दुनिया के लिए अभिशाप बनकर रह गई है जिसको हर कोई भूलना चाहता है।

इसी तरह सदी की शुरुआत में सन 2003 में इराक में जो कुछ किया गया हममें से अधिकतर लोग उसके साक्षी हैं अमरीका ने एक प्रोपेगेंडा दुनिया के सामने परोसा कि इराक के पास रासायनिक और जैविक हथियार हैं। इसके बाद अपने इस प्रोपेगेंडा में अमरीका ने दुनिया के दूसरे देशों को साथ मिलाकर इराक को तबाह कर दिया। बाद में उस समय युद्ध मे अमरीका का साथ देने वाले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के विरुद्ध जब जनता सड़कों पर उतरी ब्रिटेन में इसके लिए एक जांच कमेटी बैठाई गई उस जांच कमेटी के अध्यक्ष सर जॉन चिल्कॉट ने अपनी 16000 पृष्ठों की जांच में यह स्पष्ट लिखा कि सद्दाम हुसैन के पास कभी रासायनिक और जैविक हथियार थे ही नहीं और यह जंग इराक पर जबरदस्ती थोपी गई और इराक को बर्बाद कर दिया गया। इसी रिपोर्ट के मुताबिक इराक में अब तक 10 लाख से अधिक लोग इस युद्ध की भेंट चढ़ गए और उसमें महिलाएं, बूढ़े, बच्चे शामिल हैं। ये तो केवल आंकड़ें हैं सच्चाई यहां भी ईश्वर जानता है।

इसी के साथ एक देश की चर्चा इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर करेंगे उससे आपको ये आभास हो जाएगा कि ये प्रोपेगैंडा हर दौर में किये गए और कोई भी काल इससे अछूता नहीं है। अमेरिका ने चिली में प्रोपेगेंडा चलाकर चिल्ली को बर्बाद कर दिया और हजारों लोगों की जान चिली के तख्तापलट के दौरान चली गई। 1973 में 11 सितंबर को तख्तापलट के दौरान चिली के राष्ट्रपति सल्वाडोर अलांदे की हत्या हुई थी। वे संसार के पहले मार्क्सवादी राष्ट्राध्यक्ष थे जो लोकतांत्रिक रूप से चुने गए थे। 1970 में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने चिली में कई आर्थिक सुधार किए। उनके सुधार कार्यक्रम में खनन उद्योग का राष्ट्रीयकरण भी शामिल था उनका ये कदम विपक्ष और अमरीका की सरकार को बहुत नागवार गुजरा और उसके बाद जो खेल शुरू हुआ कभी इतिहास में जाकर उसके पढ़िए। Netflix पर एक सीरीज “Massacre at the stadium” इस बात को बखूबी दर्शाती है कि उस समय चिली के बुद्धिजीवी लोगों, मुखर होकर बोलने वालों और कलाकारों को किस प्रकार एक इस स्टेडियम में ले जाकर उनको गोलियों से भून दिया गया और नरसंहार किया गया।

इस समय जो देश में चल रहा है वो विचलित करने वाला है सत्ता की लोलुपता में एक समुदाय को दूसरे समुदाय से दूर करने का हर मुमकिन प्रयत्न किया जा रहा है चाहे वो व्हाट्सएप्प युनिवर्सिटी पर फैलाए जा रहे भ्रामक संदेश हों या ये फिल्में। एक बात जो सबसे कहना है कि सबसे मुश्किल काम होता है नागरिक बनना अगर हम इसमें असफल हो गए तो वो दिन दूर नहीं जहां केवल पछताने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं होगा एक बात ये भी है कि नियति को कोई नहीं बदल सकता जो होना होता है वो होकर रहता है।

Shambhunath Shukla
=============
अपना ‘जै श्रीराम’ न कराओ!
आजकल अचानक लोगों में मोटे आनाज (ज्वार, बाज़ार, मक्का, जौ, चना) खाने का नाटक शुरू हुआ है। बाजरे के लिए तो डॉक्टरों ने एक नई नौटंकी शुरू कर दी है और नाम दिया है- Millet खाओ। जिसे देखो वही कह रहा है, Millet खाओ। आजकल बाज़ार में Millet ब्रेड तक आ गई है। एक सज्जन ने तो मुझे भी Millet खाने की सलाह दे डाली। मैंने फादर कामिल बुल्के के अंग्रेज़ी-हिंदी कोष को तलाश कर यह शब्द देखा तो पता चला Millet मायने बाजरा। अब मुझे जोर की हँसी आई। ख़ुद को धरती-पुत्र कहने वाले सज्जन को मध्य उत्तर भारत की किसान परंपरा और खान-पान के बारे में कुछ नहीं पता। गर्मी में Millet खाते रहे तो फिर पेट बंगलूरू के ट्रैफ़िक की तरह ज़ाम हो जाएगा। तब अरंडी का तेल (Caster Oil) पी-पी कर यह Millet निकालना होगा। अन्यथा रोज सुबह घंटों संडास में बैठे रहेंगे। अरे, बाजरा जाड़े में खाया जाता है गर्मी की तपती लू में नहीं। जाड़े में भी उसके साथ उड़द की दाल खाई जाती है ताकि Millet की गरम तासीर मद्धम रहे। इसी तरह मक्का के साथ सरसों के साग का चलन है। मक्के की रोटी पालक के साग के साथ नहीं खाई जाती। यह मौसम है सुबह भुने हुए चने और भुने जौ को पीस कर बने सत्तू घोल कर पीने का। बेल खाने का, तरबूज़ और ख़रबूज़ा खाने का। ये गरिष्ठ Millet सब कुछ ध्वस्त कर देगा। किसानी अनुभव पढ़िये। घाघ की सलाह से इस मौसम का खानपान तय करिये। Millet लॉबी के बनियों की सलाह न मानिए। अगर इस मौसम में मोटा आनाज खाना है तो जौ, चना में तीस पर्सेंट यूपी वाला गेहूं पिसवा कर खाएँ तथा चावल लें। अरहर की दाल और कद्दू की सब्ज़ी के साथ खाएँ। दोनों में कच्ची अमियाँ काट कर मिलाएँ। बारिश शुरू होते ही मीनू बदल जाता है। इसलिए Millet को राम-राम करें वरना आपका जै श्रीराम हो जाएगा।
“चैत्र चना, वैशाखे बेल, जेठ शयन अषाढ़े खेल” अर्थात् चैत में चना और बैशाख में बेल फल खाएँ। जेठ में अनावश्यक घर से न निकलें। इसके बाद आषाढ़ में कुश्ती लड़ें तो सदैव स्वस्थ रहेंगे।