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अरब देशों में परमाणु हथियारों की होड़ और अमेरिकी रणनीति : रिपोर्ट

चीन सऊदी अरब में न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाने में मदद करेगा. प्लांट के लिए जारी होने वाले ठेके लिए उसने अपनी दावेदारी पेश की है और सऊदी अरब इस पर विचार कर रहा है.

कहा जा रहा है कि न्यूक्लियर पावर प्लांट के लिए अमेरिकी शर्तों की अड़चनों से तंग आकर सऊदी अरब ने ये फ़ैसला किया है.

ख़बरों के मुताबिक़ चीन की सरकारी कंपनी चाइना नेशनल न्यूक्लियर कॉर्पोरेशन ने सऊदी अरब के लिए क़तर और संयुक्त अरब अमीरात की सीमा के नज़दीक न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाने प्रस्ताव दिया है.

सऊदी अरब के अधिकारियों को उम्मीद है कि चीन की इस दावेदारी से अमेरिका की शर्तें कुछ ढीली होंगी. इनमें सऊदी अरब के यूरेनियम खनन और संवर्द्धन कार्यक्रम पर रोक जैसी शर्तें शामिल हैं.

हालांकि अमेरिका ने ढील का ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है लेकिन अगर अमेरिका ऐसा करता है तो सऊदी अरब के उभरते न्यूक्लियर एनर्जी सेक्टर को रफ़्तार मिल सकती है.

अमेरिकी अधिकारियों ने पहले कहा था कि अगर सऊदी अरब यूरेनियम और प्लूटोनियम की री-प्रोसेसिंग रोकने के लिए समझौता करता है तो उसे न्यूक्लियर पावर की टेक्नोलॉजी दी जा सकती है.

वॉल स्ट्रीट जर्नल की ख़बर के मुताबिक़ सऊदी अधिकारियों ने माना है कि न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने के लिए चीन की मदद लेने से बाइडन प्रशासन परमाणु अप्रसार की शर्तों में उसे कुछ छूट दे सकता है. क्योंकि अमेरिका नहीं चाहेगा कि अरब जगत में चीन का असर और बढ़े.

अख़बार के मुताबिक़ सऊदी अधिकारियों ने ये भी कहा है कि अगर अमेरिकी शर्तों में छूट देने से जुड़ी बातचीत नाकाम रहती है तो क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान चीनी कंपनियों को अपने देश में न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने की अनमुति दे सकते हैं.

दूसरी ओर चीन की ओर से सऊदी अरब के सामने अमेरिका जैसी शर्तें रखे जाने की ख़बर नहीं है.

सऊदी अरब न्यूक्लियर पावर प्लांट क्यों बनाना चाहता है?

ये ठीक है कि ईरान और सऊदी अरब के बीच चीन ने हाल में समझौता कराया है. लेकिन ईरान के साथ सऊदी अरब की पुरानी प्रतिद्वंद्विता रही है.

क्राउन प्रिंस सलमान कहते रहे हैं कि अगर ईरान परमाणु हथियार बनाता है तो सऊदी अरब भी बनाएगा.

अगर सऊदी अरब सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम को आगे बढ़ाता है तो ये इसे परमाणु हथियार विकसित करने में मदद दे सकता है.

प्रिंस सलमान का मानना है कि सऊदी अरब के पास अपनी एनर्जी और आयात के लिए पर्याप्त यूरेनियम भंडार है. इससे सऊदी अरब के लिए राजस्व के नए स्रोत खुलेंगे. इसके अलावा सऊदी अरब की भू-राजनैतिक ताक़त भी काफ़ी बढ़ेगी.

ऐसे हालात में उसे चीन की मदद लेना चाहिए क्योंकि वो यूरेनियम प्रोसेसिंग के ममले में सऊदी अरब के साथ काम करने के लिए तैयार है. उस वक़्त सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने कहा था कि सऊदी अरब यूरेनियम की प्रोसेसिंग करने और परमाणु ईंधन बनाने के लिए तैयार है.

उस दौरान सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री ने कहा था कि देश में न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने के लिए ठेके जारी करने की प्रक्रिया चल रही है. कुछ टेक्नोलॉजी वेंडरों को बुलाया जा रहा है और जल्दी ही उनकी ओर से प्रस्ताव मिलेंगे.

इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफ़ेयर के फ़ेलो और मध्य-पूर्व मामलों के जानकार फज़्ज़ुर रहमान सिद्दीक़ी ने सऊदी अरब की न्यूक्लियर पावर प्लांट योजना के बारे में बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा, ” सऊदी अरब अपनी भू-राजनैतिक ज़रूरतों के अलावा अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए भी न्यूक्लियर पावर प्लांट के विकल्प को आजमाना चाहता है. सऊदी अरब तेल आधारित अपनी अर्थव्यवस्था को तेज़ी से डाइवर्सिफाई करने की कोशिश कर रहा है. लिहाजा वो वैकल्पिक ऊर्जा पर काम कर रहा है. सऊदी अरब अब ग्रीन एनर्जी, ग्रीन बिल्डिंग और ग्रीन एनर्जी पर काम रहा है.”

अरब देशों में परमाणु हथियारों की होड़ और अमेरिकी रणनीति

अमेरिका फ़िलहाल सऊदी अरब का सबसे बड़ा सुरक्षा साझेदार है. लेकिन सऊदी अरब अब चीन से अपने संबंधों को मज़बूत करने में लगा है.

विश्लेषकों का कहना है कि सऊदी अरब अब अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को शक्ल दे रहा है. चीन के साथ दोस्ती और सहयोग बढ़ाना इसी रणनीति का हिस्सा है.

हाल में सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता कर चीन ने अरब दुनिया में अपने बढ़ते असर का सबूत दे दिया है.

इसराइल के ऊर्जा मंत्री ने सऊदी अरब के सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम का विरोध किया है. इसराइल परमाणु अप्रसार संधि के दायरे से बाहर है.

उसके पास कोई परमाणु ऊर्जा नहीं है और माना जाता है कि उसके पास परमाणु हथियार हैं.

परमाणु हथियारों की होड़ और अमेरिका-इसराइल समीकरण
अमेरिका लंबे समय तक मध्य-पूर्व देशों को परमाणु हथियारों से दूर रखने की रणनीति पर चलता रहा है. कहा जाता है कि पूरे मध्य-पूर्व में सिर्फ़ इसराइल ही एक मात्र परमाणु ताक़त है. हालाँकि इसराइल इसे आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं करता है.

अमेरिका का मानना है कि अगर ईरान को परमाणु ताक़त बनने की इजाज़त मिल गई तो ये पूरा इलाक़ा परमाणु हथियारों की होड़ में शामिल हो जाएगा.

परमाणु नीति के मामले में इसराइल पर अमेरिकी रुख़ को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. अमेरिका के नरम रुख़ को अरब वर्ल्ड में दोहरे मानदंड के रूप में देखा जाता है.

सिद्दीक़ी कहते हैं,” मिस्र ने बहुत पहले कहा था वो सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम पर काम करेगा. अब सऊदी अरब इस राह पर चल रहा है. इसके लिए उसने अमेरिका से मदद लेनी चाही. लेकिन अमेरिका की अपनी शर्तें हैं. यहीं पर चीन को मौक़ा मिल गया. चीन अभी खाड़ी देशों में बेहद आक्रामक कूटनीति अपना रहा है. उसे जहाँ भी मौक़ा मिल रहा है, घुस रहा है.

वो कहते हैं, ”चीन की नीति है कि अरब दुनिया से अमेरिका को हटाया जाए और अपना प्रभाव बढ़ाया जाए. सऊदी अरब के लिए ये फ़ायदे का सौदा है. अगर अमेरिका उसे सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम में मदद करता है तो उसका फ़ायदा है. लेकिन अगर वो इनकार करता है तो चीन मदद के लिए तैयार है.”

चीन का फ़ायदा

चीन इस क्षेत्र में अमेरिका और इसराइल दोनों को चुनौती दे रहा है. इसके साथ ही सऊदी अरब अपनी पूरी विदेश नीति बदल रहा है.

सिद्दीक़ी कहते हैं, ”वो अमेरिका पर अपनी निर्भरता हटा रहा है. उसका संकेत साफ़ है कि अगर अमेरिका उसे सिविल न्यूक्लियर एनर्जी विकसित करने में मदद नहीं करेगा तो वो चीन की मदद से ये काम करेगा.”

सिद्दीक़ी कहते हैं, ”चीन अरब वर्ल्ड में अमेरिका को सीधी चुनौती दे रहा है. वो मध्य-पूर्व में उसके गठबंधन को भी चुनौती दे रहा है और खुलेआम सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम अपनाने की बात कर रहा है, जिसका सारे प्रमुख देश विरोध कर रहे हैं.”

चीन और सऊदी अरब के बीच एनर्जी सेक्टर में कारोबार काफ़ी बढ़ रहा है. चीन दुनिया में कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक हैं, वहीं सऊदी अरब इसका सबसे बड़ा निर्यातक.

लेकिन अब दोनों ही देशों वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा रहे हैं. चीन की सरकारी कंपनी चाइना एनर्जी कॉर्पोरेशन सऊदी कंपनी एसडब्ल्यू पावर के साथ मिलकर 2.6 गीगावाट का सोलर प्लांट बना रहा है. यह खाड़ी देशों का सबसे बड़ा सोलर प्रोजेक्ट होगा.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पिछले साल दिसंबर में सऊदी अरब का दौरा किया था. चीन के विदेश मंत्रालय ने इसे चीन-अरब संबंधों के विकास के इतिहास में मील का पत्थर कहा था.

चीन का बढ़ता दख़ल और असर

जबिन टी जैकब भारत में चीन और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों से जुड़े मामलों के जानेमाने जानकार हैं. जैकब फ़िलहाल शिव नादर यूनिवर्सिटी में असोसिएट प्रोफेसर हैं. बीबीसी ने चीन और सऊदी अरब के इस गठजोड़ से जुड़े पहलुओं को समझने के लिए उनसे बात की.

वो कहते हैं, ”चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के के पाँच सदस्य देशों में शामिल है. उसे परमाणु हथियार वाले देश के तौर पर मान्यता मिली हुई है. वो परमाणु अप्रसार संधि पर भी हस्ताक्षर कर चुका है. चीन के पास इस बात का अधिकार है कि वो न्यूक्लियर पावर प्लांट के ठेके के लिए बोली लगा सके.”

”अमेरिका सऊदी अरब का सहयोगी है. लेकिन सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम के लिए वो सऊदी अरब की मदद नहीं कर रहा है. उसने इसके लिए कई शर्तें लगा रखी हैं. इसलिए सऊदी अरब चीन की पेशकश मंज़ूर कर रहा है.”

वो कहते हैं, ”अमेरिका इस तरह की मदद देने के साथ मानवाधिकार की बेहतर स्थिति और लोकतंत्र जैसी शर्त लगाता है. लेकिन चीन की ऐसी कोई शर्त नहीं होती. इसलिए सऊदी अरब चीन की पेशकश मंज़ूर कर रहा है.”

”इसके पीछे चीन का भी अहम मक़सद है. इस मामले में वो सऊदी अरब की मदद कर खाड़ी की राजनीति को और जटिल कर देना चाहता है क्योंकि इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा अमेरिका को होगा, जिसे वो अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानता है.”

जैकब कहते हैं,” चीन इसके ज़रिये अपनी राजनीति और कारोबारी हित दोनों देख रहा है. चीन हाइड्रो पावर के क्षेत्र में बड़ी ताक़त है और न्यूक्लियर पावर में भी बड़ी ताक़त बनने की कोशिश कर रहा है. पाकिस्तान में कई न्यूक्लियर पावर प्लांट बना चुका है.”

वो कहते हैं, ”भारत के नज़रिये से देखें तो चीनी न्यूक्लियर पावर प्लांट हमारे पड़ोस में हैं. ये काम भारत भी कर सकता है क्योंकि उसके सऊदी अरब से अच्छे ताल्लुकात हैं. लेकिन अगर भारत ऐसा करेगा तो अमेरिका से उसके रिश्ते ख़राब होंगे. भारत अमेरिका के साथ लगातार अच्छे संबंध रखना चाहता है. लेकिन हमारे लिए दिक्क़त ये है कि चीन यहाँ आसानी से घुस रहा है. ”

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दीपक मंडल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता