विशेष

असली कथा आगे शुरू होती है….”साहब ! हम “ग़रीब” हैं, पर “बेईमान” नहीं हैं”

Sukhpal Gurjar
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तस्वीर दिल्ली के एक साधारण टैक्सी चालक देवेन्द्र की है.
देवेन्द्र मूलतः बिहार के रहने वाले हैं। एक दिन देबेन्द्र की टैक्सी में कश्मीर का निवासी बैठा जिसे एयरपोर्ट से पहाड़गंज तक जाना था। देवेन्द्र ने उसको पहाड़गंज छोड़ा, अपना किराया वसूला और वापिस टैक्सी स्टैंड की ओर चल पड़े। इसी बीच उनकी नज़र गाड़ी में पड़े एक बैग पर गयी। बैग को देखकर देवेंद्र समझ गए कि यह उसी सवारी का बैग है, जिसे कुछ ही समय पहले वह पहाड़गंज छोड़ कर आये हैं। बैग को खोलकर देखा तो उसमें कुछ स्वर्ण आभूषण, एक एप्पल का लैपटॉप, एक कैमरा और कुछ नगद पैसे थे। सब कुछ मिला के लगभग 7 या 8 लाख का सामान था।।
एकदम देबेन्द्र की आँखों के सामने अपनी टैक्सी के फाइनेन्सर की तस्वीर आ गयी। इतने आभूषण बेच कर तो

उनकी टैक्सी का कर्ज आसानी से उतर सकता था। एक दम से प्रसन्न हो उठे। उनके मन में बैठा रावण जाग उठा। पराया माल अपना लगने लगा। परन्तु जीवन की यही तो विडम्बना है। मन में राम और रावण दोनों निवास करते हैं।

कुछ ही दूर गये थे के मन में बैठे राम जाग उठे। देबेन्द्र को लगा के वह कैसा पाप करने जा रहे थे।

नैतिकता आड़े आ गयी। बड़ी दुविधा थी। एक ओर आभूषण सामने पड़े थे और दूसरी ओर अपनी अंतरात्मा खुद को ही धिक्कार रही थी।

कुछ देर द्वंद चला पर अंत में विजय राम की ही हुई। देवेन्द्र पास के पुलिस स्टेशन गये और बैग ड्यूटी पर मौजूद थानेदार के हाथ में थमा दिया।

अब थानेदार कभी बैग में पड़े आभूषण देखे और कभी ड्राइवर का चेहरा देखे। थानेदार ने कहा कि तू अगर चाहता तो यह बैग लेकर भाग सकता था।

देवेन्द्र ने जवाब दिया – “साहब ! हम “गरीब” हैं, पर “बेईमान” नहीं हैं।”

थानेदार भी निःशब्द हो गया। उसे लगा कि ड्राइवर सच में गरीब तो है किंतु ईमानदार है।

ख़ैर सवारी को उसका बैग सकुशल वापिस मिल गया। देवेन्द्र की ईमानदारी के इनाम के रूप में मालिक ने उसे कुछ रुपये देने की पेशकश की तो देवेन्द्र ने साफ मना कर दिया।

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असली कथा आगे शुरू होती है –
थानेदार ने देवेन्द्र की ईमानदारी की गाथा एक मीडियाकर्मी के आगे सुना दी ।

मीडियाकर्मी भी थानेदार की तरह प्रभावित हो गया। उसने इस ईमानदारी की खबर अखबार में छापने की ठान ली ।

वह देवेन्द्र से मिला और उसका साक्षात्कार लेते हुये पूछा- “अगर बैग में पड़े सामान की कीमत (8 लाख रुपये) उसे मिल जायें तो वह क्या करेगा।”
देवेन्द्र ने कहा कि पहले तो फाइनेन्सर का कर्जा चुकाएगा और फिर अगर सम्भव हुआ तो एक टैक्सी खरीदेगा।

रिपोर्टर ने कहा कि तेरे सर पर कर्ज़ है तो तू बैग लेकर भाग क्यों नहीं गया? देवेन्द्र ने रिपोर्टर से भी यही कहा कि साहब, हम गरीब हैं पर बेईमान नहीं हैं। थानेदार की तरह अब रिपोर्टर भी प्रभावित हुआ।

रिपोर्टर ने उसकी ईमानदारी की गाथा एफ एम चैनल के एक रेडियो जॉकी को बताई। एफ एम रेडियो के ज़रिए देवेन्द्र की कहानी दिल्लीवासियों को सुना दी गई…

साथ ही साथ दिल्ली वालों को देवेन्द्र के कर्ज के विषय में भी बताया गया। इसी के साथ देवेन्द्र का एक बैंक खाता नम्बर भी दिया गया, जिसमे धनराशि डाल कर वह ईमानदार देवेन्द्र का कर्ज़ उतारने में उसकी मदद कर सकते थे।

केवल 2 घँटे बाद ही…… मात्र 120 मिनट में
दिल्ली ने देबेन्द्र के खाते में 91751 रुपये डलवा दिये।
और 8 लाख रुपये मिल गए मात्र 2 दिन में।

सबने अपनी हैसियत के हिसाब से पैसा दिया। दिलवालो की दिल्ली ने देवेन्द्र की ईमानदारी के उपहार में उसे ऋण मुक्त कर दिया। लाखों लोगों ने उसकी ईमानदारी को सराहा….

देवेन्द्र आज भी कहते हैं कि मन के रावण को राम पर हावी ना होने देना उनके जीवन की सबसे बड़ी जीत थी। अगर वह बैग लेकर भाग जाते तो कर्ज़ा तो उतार लेते पर खुद को कभी माफ नहीं कर पाते।

यह सच सिद्ध हो गया कि मन में बैठा रावण आज की व्यवस्था में हावी है। परन्तु मन में बैठे राम आज भी दशानन का वध करने में सक्षम हैं।

अच्छाई और बुराई मे आज भी धागे भर का फासला है। इस ओर गये तो राम और उस ओर गये तो रावण।

गरीब ड्राइवर देवेन्द्र ने दिल की सुनी और दिमाग के तर्क को नकार दिया, अपने संस्कार से सिद्ध किया कि किसी और के परिश्रम से अर्जित धन को हड़पने से धन नहीं आता। ईमानदारी ही जीवन को सुखी और समृद्ध बना सकती है

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साभार: सोशल मीडिया

DrPrakash Hindustani
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इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
”सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है”
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन (11).
‘तीसरी कसम’ फिल्म फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित थी। मुख्य किरदार थे, हीरामन (राज कपूर) और हीराबाई (वहीदा रहमान)। इस फिल्म को राष्ट्रपति स्वर्ण पदक और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। फिल्म में 8 गाने थे, सभी एक से बढ़कर एक। शैलेन्द्र के लिखे और मुकेश के गाये इस गाने ने फिल्म के नायक के सहज-सरल जीवन-दर्शन को बताया था। शैलेन्द्र ने इस गाने के दस शब्दों में ही बहुत कुछ कह दिया था।

शैलेन्द्र ने लिख दिया कि झूठ बोलकर भी अगर तुमने कमाया है तो वह किसी काम का नहीं ! तुम्हारा सारा माल-असबाब यही रह जाएगा। जब सब कुछ यहीं रह जाना है तो फिर अकड़ किस बात की? प्रभु के सामने यह सिर तो झुकना ही है!

(याद करो कबीर लिख गए हैं न : मत कर माया को अहंकार, मत कर काया को अभिमान, काया गार से काची; ऐसा सख्त था महाराज, जिनका मुल्कों में राज, जिन घर झूलता हाथी, रे जिन घर घर झूलता हाथी, रे उन घर दिया न बाती)

इस गाने में ही शैलेन्द्र ने आगे एक और गहरी बात कह दी। झूठ-फरेब कितना भी कर लो, जाना तो वहीं पर है! इसके लिए कितने भी पोथी-पाने लिख लो, बही चढ़ा लो, इतना लिख-लिख के भी क्या हो जाएगा? और वहां जाने के लिए किसी तरह के हाथी-घोड़े की ज़रूरत नहीं! किसी साइकिल या मर्सडीज़ का वहां काम नहीं। सारा हिसाब यहीं पर होना है। (क्या पता यमराज के भैंसे पर चढ़ कर जाना पड़े या गाय की पूंछ पकड़कर!)। इसीलिए लिखा गया :

भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
यहीं सब कुछ चुकाना है

आगे शैलेन्द्र ने लड़कपन को खेल में खोने, जवानी में दिनभर सोने और बुढ़ापे में रोने की बात लिखी। लिखा कि यही किस्सा पुराना है। इशारा है कि समझदार हो तो लड़कपन को शिक्षा में और जवानी को श्रम में लगा लो, ताकि बुढ़ापे में रोना न पड़े।
फ़िल्म में इस गाने का फिल्मांकन सीधा सपाट हुआ था। कोई ताम झाम नहीं।

‘तीसरी कसम’ को प्रदर्शित करने के लिए बड़ी मुश्किल से वितरक मिले। जबकि इसमें राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे बड़े सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, जिनकी लोकप्रियता उन दिनों चरम पर थी और इसके गाने पहले ही बेहद लोकप्रिय हो चुके थे, लेकिन इस फिल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। इस संवेदनशील फिल्म की भावनाएं तब लोगों की समझ से परे थी। बड़ी मुश्किल से फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई थी। इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फ़िल्म कब आई, कब गई कोई हलचल ही नहीं थी।

प्रेम कहानियों पर हजारों फ़िल्में बनीं पर तीसरी कसम जैसी कोई नहीं! यह सबसे अलग है। यह एक अंचल की कथा है जिसका परिवेश ग्रामीण है, जहां जीविका का साधन खेती और पशुपालन है।

तीसरी कसम की व्याख्या एक ‘रोड ट्रिप’ फिल्म के रूप में की जा सकती है, जहां दो अजनबी हैं – एक पुरुष गाड़ीवान (राज कपूर) जिसके ‘संस्कारी परिवार वालों’ ने कभी भी नौटंकी न देखने के लिए कहा है और एक महिला यात्री (वहीदा रहमान), जो एक नौटंकी वाली है और अनजान मर्दों के सामने नाचती-गाती है। 30 घंटे की यात्रा के दौरान दोनों अनकहे प्रेम संबंधों में बंध जाते हैं। हीरो बहुत सीधा सादा है जिसे आज की दुनिया में लल्लू कहा जा सकता है। हीरोइन ने नौटंकी करने के दौरान दुनिया देखी है। हीरो नौटंकी वाली को देवी समझता है। देवी की उसकी अपनी परिभाषा है ! हीरोइन इस बात पर फिदा है कि कोई ऐसा शख्स उसे प्रोटेक्ट करना चाहता है, जिसे खुद ही प्रोटेक्शन की ज़रूरत है!

हीरोइन उस साधारण आदमी से मिलकर खुश है कि वह हीरो के तसव्वुर की जीवित प्रतिकृति है। लेकिन जब उसे नौटंकी में ‘पान खाये सैयां हमार’ गाते – नाचते देखता है तो तो लल्लू हीरो अचंभित ! वह अपनी ‘देवी’ को हमेशा से ‘शालीन’ भाव से देखता रहा है, लेकिन जब एक दर्शक उस पर अभद्र फिकरा कसता है, तब हीरामन अपना आपा खो देता है।

फिल्म का अंत जीवन में दो कसमें खा चुके हीरो की इस कसम से होता है कि अब मैं किसी नौटंकी वाली को सवारी के रूप में नहीं बैठाऊंगा।
वहीदा रहमान ने इसमें गज़ब का काम किया था। नौटंकी वाली होने के बावजूद उनकी छवि ऐसी नारी की होती है जैसी छवि उस दौर के पुरुषों की कल्पना में ही होती होगी।

इस फ़िल्म के ये गाने भी खूब चर्चित हुए थे : ‘सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बांचे, बांचे न भाग कोई…। ‘दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई…।’ ‘पान खाए सैय्या हमार…।’ ‘आ आ भी जा, रात ढलने लगी, चांद छुपने लगा…’

इस फिल्म के पात्रों के साथ ट्रेजेडी होती है। फिल्म के साथ भी ट्रेजेडी होती है और इसके निर्माता शैलेन्द्र के साथ भी।

शैलेन्द्र ने अपने जीवन में एक ही फिल्म बनाई थी। फिल्म एक साल में बनना थी, पांच साल में बनी! राज कपूर के देखने के बाद ही फिल्म रिलीज होना थी, लेकिन वे बिज़ी थे। राज कपूर हीरो थे और चाहते थे कि फिल्म का अंत सुखांत में बदल दिया जाये। शैलेन्द्र इसके लिए राजी नहीं थे।
विभिन्न कारणों से बहुत देरी से 1966 में रिलीज हो पाई। कहते हैं कि इसी के चलते शैलेंद्र ने भी कसम खाई थी कि अब वे कोई फिल्म नहीं बनाएंगे। फिल्म फ्लॉप होने का सदमा शैलेन्द्र नहीं सहन कर सके और कहते हैं कि सदमे के कारण 14 दिसंबर 1966 को (राज कपूर का जन्मदिन वाले दिन) उनका निधन हो गया।

कहते हैं कि राज कपूर ने इस फिल्म के लिए केवल एक रुपये का मेहनताना लिया था। संगीतकार शंकर-जयकिशन और मुकेश ने भी नाममात्र की फीस ली थी। फिल्म का कुछ भाग मध्यप्रदेश में शूट किया गया था और कई सीन राज कपूर के चेम्बूर स्थित आर के स्टूडियो में फिल्माए गए थे।
फिल्म में जिस बैलगाड़ी का प्रयोग हुआ वह गाड़ी, बैल और एक गाड़ीवान की व्यवस्था बिहार के फॉरबिसगंज से की गई। गाड़ीवान को बैल और गाड़ी के साथ स्टूडियो में रहने की व्यवस्था कर दी गई थी।

शूटिंग के वक़्त जब सब तैयारियां हो जाती तो गाड़ीवान को बैलगाड़ी के साथ जल्दी से फ़िल्म के सेट पर आ जाने की ख़बर भेजी जाती और शूटिंग शुरू होती। कामकाज ठीक चल रहा था। एक दिन जब सारी तैयारियां हो गईं, वहीदा और राज कपूर आ गए तब गाड़ीवान रोनी सी सूरत बनाकर आया और बोला, “साब, गाड़ी न ला सकत, बैल मर गयो।”

शूटिंग की तैयारी में जुटे शैलेन्द्र दौड़े-दौड़े गाड़ीवान के पास गए और गाड़ीवान से बोले, “नया बैल कितने में आएगा ?”

पहले से तैयार गाड़ीवान ने एक रकम बताई जिसे शैलेन्द्र ने तत्काल निकाल कर दी। कुछ ही समय में गाड़ीवान सेट पर बैलगाड़ी ले आया। शैलेन्द्र को नए और पुराने बैल में कोई अंतर ही नज़र नहीं आया। वे गाड़ीवान को देखकर सिर्फ़ मुस्कराये। शैलेन्द्र ने गाड़ीवान को न तो कभी बेइज़्ज़त किया और न ही डांटा।

कह सकते हैं कि शैलेन्द्र की फिल्म के पात्र जितने भोले थे, शैलेन्द्र भी वैसी ही थे। वरना क्या कोई कुटिल इंसान इतने प्यारे गाने कभी लिख सकता है ?

शैलेन्द्र का लिखा पूरा गाना :
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है …
भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है …
लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है …
-प्रकाश हिन्दुस्तानी
23-6-2023

Happy Life Entrepreneur
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एक प्रोफेसर अपनी क्लास में कहानी सुना रहे थे, जोकि इस प्रकार है –

एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी. कप्तान ने शिप खाली करने का आदेश दिया.जहाज पर एक युवा दम्पति थे. जब लाइफबोट पर चढ़ने का उनका नम्बर आया तो देखा गया नाव पर केवल एक व्यक्ति के लिए ही जगह है. इस मौके पर आदमी ने औरत को धक्का दिया और नाव पर कूद गया.

डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा…अब प्रोफेसर ने रुककर स्टूडेंट्स से पूछा – तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा ?
ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये – स्त्री ने कहा होगा– मैं तुमसे नफरत करती हूँ ! I hate you !
प्रोफेसर ने देखा एक स्टूडेंट एकदम शांत बैठा हुआ था, प्रोफेसर ने उससे पूछा कि तुम बताओ तुम्हे क्या लगता है ?
वो लड़का बोला – मुझे लगता है, औरत ने कहा होगा – हमारे बच्चे का ख्याल रखना !
प्रोफेसर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने लडके से पूछा – क्या तुमने यह कहानी पहले सुन रखी थी ?
लड़का बोला- जी नहीं, लेकिन यही बात बीमारी से मरती हुई मेरी माँ ने मेरे पिता से कही थी.
प्रोफेसर ने दु:खपूर्वक कहा – तुम्हारा उत्तर सही है !
प्रोफेसर ने कहानी आगे बढ़ाई – जहाज डूब गया, स्त्री मर गयी, पति किनारे पहुंचा और उसने अपना बाकि जीवन अपनी एकमात्र पुत्री के समुचित लालन-पालन में लगा दिया. कई सालों बाद जब वो व्यक्ति मर गया तो एक दिन सफाई करते हुए उसकी लड़की को अपने पिता की एक डायरी मिली.
डायरी से उसे पता चला कि जिस समय उसके माता-पिता उस जहाज पर सफर कर रहे थे तो उसकी माँ एक जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थी और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष थे.
ऐसे कठिन मौके पर उसके पिता ने एक कठोर निर्णय लिया और लाइफबोट पर कूद गया. उसके पिता ने डायरी में लिखा था – तुम्हारे बिना मेरे जीवन का कोई मतलब नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ ही समंदर में समा जाना चाहता था. लेकिन अपनी संतान का ख्याल आने पर मुझे तुमको अकेले छोड़कर जाना पड़ा.
जब प्रोफेसर ने कहानी समाप्त की तो, पूरी क्लास में शांति थी.
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इस संसार में कईयों सही गलत बातें हैं लेकिन उसके अतिरिक्त भी कई जटिलतायें हैं, जिन्हें समझना आसान नहीं. इसिलिए ऊपरी सतह से देखकर बिना गहराई को जाने-समझे हर परिस्थिति का एकदम सही आकलन नहीं किया जा सकता.

जय सियाराम 🙏🌹