साहित्य

आज ये पेड़ नहीं होते तो हम भी विवश होकर दूसरों की तरह ख़रीदकर खाने को मजबूर होते

Pradip Sharma ·
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मेरे घर का पेड़
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मैने अपना घर जमीन के आधे हिस्से में ही बनाया है। आधे को खाली ही रख छोड़ था। उसमें मौसमी फल जैसे आम, अमरूद, कटहल और बेल इत्यादि के पेड़ लगा रखा है। बचपन से ही मौसमी फल खाने का मैं शौकिन रहा हूं।

जब मैं नया नया यहां आया था। गर्मी का मौसम आ गया था। इस समय आम कटहल बेल खुब बाजार में मिल रहे थे। मैं रोज एक दिन छोड़कर लाता। खाता और उनके बीजों को खाली जमीन पर फेक देता।

कुछ समय बाद उस स्थान पर पौधे निकल आए जो देखने में नवजात बच्चे की तरह बहुत ही खुबसूरत लग रहे थे। मैने उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया। वे बढ़ने लगे। बढ़ते बढ़ते आज इतने बड़े हो गये कि उसकी छांव में हम सब बैठकर गर्मी का खुब आनंद लेते।

मेरे दोस्त मित्र रिश्तेदार जो भी आते। उन्हीं की छांव में बैठने का आग्रह करते। वैसे भी मेरा दो कमरों का छोटा सा खपरैल मकान था। पेड़ों ने मकान के छत पर अपना छतरी फैला रखा था इस कारण अंदर का कमरा भी ठंडा रहता था पर जो भी आगंतुक आता घर में न बैठकर उनके छांव में ही बैठने की कोशिश करता।

मुझे भी उन पेड़ों से लगाव था। जब वे छोटे थे। मैंने उनकी खुब सेवा की थी। मैं उन्हें अपने घर के सदस्य के समान समझता था। इन पेड़ों के कारण ही मेरा घर स्वर्ग सा सुंदर दिखता था। किसी को पूजा के लिए आम का पत्ता चाहिए तो किसी को सावन की पहली सोमवारी को बेलपत्र। कोई अपनी नई ब्यायी बकरी को खिलाने के लिए कटहल का पत्ता मांगने चला आता।

हर महीना हर मौसम में पेड़ के पत्तों के लिए जरूरतमंदों का तांता लगा रहता। पेड़ों के कारण आसपास में हमारी अच्छी पहचान बन गयी थी। इस इलाके में दूर दूर तक कोई पेड़ पौधा नहीं था। जिसके पास जगह जमीन था उन्होंने एक इंच जगह नहीं छोड़ा था। चारों तरफ कंक्रीट के मकान ही दिखते थे।

कोई पथिक चलते हुए थक जाता तो अगल बगल कोई ठांव न मिलता सुरज की तेज रोशनी से बचने के लिए। उनके आश्रय में सुकुन पाने के लिए दौड़े चले आते। मैं ही एक गरीब था जिसके आंगन में ये तीनों विशालकाय पेड़ मेरे अभिभावक के रूप में खड़े थे। मुझे अपने अभिभावकों पर नाज था।

उनमें फल लगने लगे थे। सबसे पहले बेल जब फुलाता है। उसके फूलों की खुशबु आसपास के वातावरण को, मन को मोहित कर देता है। मधुमक्खियां रसास्वादन के लिए उसके आसपास मंडराने लगती हैं। बेल सेहत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण फल है। हमने खुब बेल खाया। शर्बत बनाकर भी पिया। बेल खत्म होते होते आम में मंजर आ गए। साथ ही कटहल भी फुलाने लगा। मार्च में कटहल कुछ बड़े हुए तो हमलोगों ने सब्जियां बनाकर खाई और कुछ छोड़ दिया पकने के लिए।

आम पेड़ पर आ गए थे। गर्मी के बाद पहली बारिश होते ही आम पकने लगे। रोज पांच दस पके गीरते। आम खत्म होते होते कटहल जो छोड़ा था। वे पकने लगे। कटहल जब पकता है वह भीनी-भीनी खुशबु छोड़ता है। आज हमलोगों ने एक पका हुआ कटहल तोड़ा। ओह कितना मिठा है। मुंह में जाते ही संदेश मिठाई तरह मन को तृप्त कर देता है।

बाजार में भी आम कटहल बेल का फल बीक रहा था पर बहुत महंगा था। एक आध किलो से मन तो भरता नहीं। एक्स्ट्रा पैसे भी पाकेट में नहीं थे जो रोज रोज खरीदकर खाता। आज ये पेड़ नहीं होते तो हम भी विवश होकर दूसरों की तरह खरीदकर खाने को मजबूर होते।

मेरी पत्नी ने कितनी बार इन पेड़ों को काटकर हटा देने कै लिये कहा। पर मैं उनकी बातों को नजर अंदाज कर दिया करता। आज जब वो चटकारे लेकर उनके फलों को खाती है। मैं उसकी कही हुई बात याद दिला देता। वो बगले झांकने लगती है।

—-प्रदीप कुमार शर्मा
जमशेदपुर

Naveen Verma
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क्या मुंशी प्रेमचंद वास्तव में बहुत गरीब थे ?
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मुंशी प्रेमचंद (धनपतराय श्रीवास्तव) की अपनी पत्नी के साथ फोटो काफी प्रशिद्ध है जिसमें उन्होंने फटे जूते पहने हुए हैं. इस फोटो दिखाकर यह बताया जाता है कि वे इतने गरीब थे कि फोटो खिंचवाते समय भी फटे जूते पहने हुए थे. जबकि वास्तविकता यह है कि मुंशी प्रेमचंद एक सरकारी अधिकारी थे और उसके साथ ही एक प्रशिद्ध लेखक थे.

उनकी कहानिया और धारावाहिक उपन्यास बहुत लोकप्रिय थे और उस समय की तमाम पत्रिकाएं उनको छपने के लिए लाइन लगाती थी. वे अपने समय के सबसे महंगे लेखक थे. केवल इतना ही नहीं उन्होंने एक प्रेस भी खरीद ली थी और खुद के पत्र भी निकाले थे. इसके अलावा उन्होंने फिल्मो के लिए भी कहानी पटकथा लेखन का भी कार्य किया था

मुंशी प्रेमचंद जी पहले एक सरकारी स्कूल में टीचर रहे और उसके बाद स्कूल इंस्पेक्टर भी रहे. इसके साथ साथ कहानिया लिखते रहे. कहानीकार के रूप में प्रशिद्धि मिलने के बाद मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे. इसमें सफल हो जाने के बाद सरकारी नौकरी छोड़ दी और सरस्वती प्रेस खरीद ली.

वहां से उन्हने हंस और जागरण पत्र निकाला. 1933 ई. में उन्होंने मुम्बई की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी और पटकथा लेखक के रूप में काम करने का अनुबंध किया. 1934 में प्रदर्शित फिल्म “मजदूर” की कहानी उन्होंने ही लिखी थी. प्रशिद्ध कहानीकार होने के कारण उनको प्रारम्भ से ही उस ज़माने के स्थापित फ़िल्मी कहानीकारों जितना वेतन मिलता था.

उनकी 200 से ज्यादा कहानियां प्रकाशित हुईं थी और उनके लिखे हुए उपन्यास भी बहुत लोकप्रिय हुए थे. महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका “चाँद” के लिए उन्होंने धारावाहिक उपन्यास “निर्मला” लिखा जो बहुत सफल रहा था. उनके अन्य कई उपन्यास भी अनेकों पत्रिकाओं में धारावाहिक के रूप में नियमित रूप से छपा करते थे.

जिस तरह करोड़पति केजरीवाल हवाई चप्पल और पुरानी वैगन आर कार में फोटो खिंचवाते हैं और लालू यादव गरीब बने हुए हैं उसी तरह ये महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद (धनपतराय श्रीवास्तव) भी गरीब थे. भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी कुछ इसी टाइप के गरीब थे. वामपंथी लोग भी गरीबी का प्रदशन करते हैं. गांधी को सादगी पसंद गरीब दिखाने के लिए बहुत खर्च किया जाता था