साहित्य

आधा तीतर आधा बटेर…. आख़िर, हमारे इसरो के वैज्ञानिक मंदिरों में क्या कर रहे हैं?

Tajinder Singh
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आधा तीतर आधा बटेर….
विज्ञान और आस्था दो विपरीत विचार हैं। आस्था अगर तर्कों को खारिज करती है तो विज्ञान का मतलब ही तर्क है, अनास्था है। आस्था अगर अंधकार है तो तर्क एक दीपक। चलिए आस्था को अंधकार कहना अगर आपको नही जंचा तो विज्ञान को आग और आस्था को बर्फ कह लीजिए। इन दोनों का साथ असम्भव है।

तो फिर सवाल उठता है कि आखिर हमारे इसरो के वैज्ञानिक मंदिरों में क्या कर रहे हैं। राफेल विमान पर नींबू मिर्ची लटकाने की क्या आवश्यकता है। दो विरोधी विचार आखिर क्यों मिल रहे हैं।

दरअसल इसकी वजह हम हैं। हम यानी आधा तीतर और आधा बटेर। हमने विज्ञान की पढ़ाई डिग्री और नौकरी के लिए की। विज्ञान को जीवन मे उतारा नही। चेचक होने पर हम आज भी दवाई के साथ अपने सारे देसी टोटके भी करते हैं। ये मानते हुए की माता आयी है।

ऐसा होना बहुत स्वभाविक है। असल मे जिस परिवेश में हमारा लालन पालन होता है उसका असर हम पर विज्ञान की पढ़ाई से ज्यादा रहता है। बालमन पर अंकित हुई आस्था से पीछा छुड़ाना आसान नही। केवल कुछ गिनती के लोग ही होते हैं जो इससे उबर पाते हैं। अधिकतर का विज्ञान का ज्ञान नौकरी पाने तक ही सीमित रहता है।

हम जानते हैं की किस वजह से गर्म पानी के स्त्रोत बनते हैं और उनमें गन्धक घुली होने पर ये त्वचा के उपयोगी हो जाते हैं। लेकिन धर्म स्थलों के गर्म कुंड हमारी आस्था के केंद्र बन जाते हैं। हम ये भी जानते हैं कि भूगर्भीय गैस ज्वलनशील हो सकती है। उसमें आग लगाने पर वो सालों तक जल सकती है। झारखंड के धनबाद में कई जगहों पर जमीन से निकलती गैस सालों से जल रही है। लेकिन यहां कोई आस्था नही जबकि किसी खास जगह से निकली अग्नि पर हमारी आस्था हो जाती है।

प्राकृतिक रूप से बून्द बून्द टपके पानी के बर्फ बन जमने पर लिंग का आकार लेना सामान्य घटना है और विश्व की कई जगहों पर घटती है। लेकिन किसी स्थान विशेष पर ऐसा होने के कारण हम उससे अपनी आस्था को जोड़ लेते हैं।

आधा तीतर आधा बटेर का मतलब अजीब या बेढंगा होना या फिर बेतुका मेल होना। तो इंसान नामक प्राणी भी कुछ ऐसा ही है। ऊपर से विज्ञान की डिग्री गले मे लटकाए एक वैज्ञानिक और अंदर से पूर्ण आस्थावान आस्तिक।

अगर देखा जाए तो तथ्य और तर्क की रोशनी में ही इंसान ने सारी तरक्की की है। सच को परखने का इससे बेहतर उपाय नही। रही बात आस्था की तो यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस चलता है। जिसकी सर फोड़ने की जितनी शक्ति होती है उसकी आस्था जीत जाती है। तुर्की की मस्जिद हेगिया सोफिया और अपने देश मे भी इसका स्पष्ट उदाहरण मौजूद है।

वैसे आस्था केवल एक आस्तिक की या दक्षिणपंथी की नही होती। आस्थावान तो वामपंथी भी हो सकता है। कभी तर्कों के सहारे माओ, लेनिन पर कोई सवाल कीजिये। देखिए उनकी आस्था खंडित होने पर वह कैसे जवाब देती है।

अब सवाल है कि आज के वैज्ञानिक युग मे आस्था की जरूरत क्या है। दरअसल हमारा जीवन अनिश्चितता से घिरा है। जीवन मे घटने वाली घटनाओं की कोई तार्किक व्याख्या विज्ञान आज तक नही दे पाया। अपने दुखों तकलीफों से जूझते इंसान को अगर आस्था का सहारा न हो तो शायद इंसान पागल हो जाएगा। आस्था ही उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला देती है। इसलिए जब तक जीवन मे अनिश्चितता है, आस्था भी रहेगी।

अब फिर सवाल है कि हमारी इस आस्था का दायरा क्या हो। तो इसका सीधा जवाब ये होना चाहिए की आस्था हमारे व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा रहे। ये हम तय करेंगे कि हमारे जीवन मे आस्था का कितना स्थान होगा। लेकिन जब बात समूह के आपसी झगड़ों की हो तो समूह की आस्थाओं को दरकिनार कर फैसला विज्ञान के तथ्यों और तर्कों के आलोक में होना चाहिए।

बहरहाल हम जिस ढंग से भी जिंदगी जियें। फिलहाल रहेंगे हम “आधा तीतर आधा बटेर”

 

डिस्क्लेमर : लेखक के अपने निजी विचार और जानकारियां हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है