धर्म

आसमानों और ज़मीन में कोई भी चीज़ उससे छिपी नहीं है, तुम्हारा पालनहार किसी भी चीज़ को नहीं भूलता!

मानवाधिकार के संबंध में क़ानून बनाने का उचित ज़िम्मेदार इंसान नहीं है।

मानवाधिकारों को समझने के लिए सबसे पहले इंसान को पहचानना चाहिए इसके बाद दुनिया और फिर दोनों के बीच संबंध को समझना चाहिए। सवाल यह है कि कौन सा व्यक्ति यह दावा कर सकता है कि उसने इंसान को पूरी तरह समझ लिया है और उसके अस्तित्व के सभी आयाम से वह अवगत है। दूसरी बात यह है कि इंसान अज्ञानता और भूल जाने की आदत से सुरक्षित नहीं है। इसी प्रकार आंतरिक इच्छाएं भी मानव समाज के विचारकों के रास्ते में प्रायः रुकावट बन जाती हैं। कौन विधि विशेषज्ञ और विचारक यह दावा कर सकता है कि उसके बनाए हुए क़ानून और नियम हर क्षेत्र और हर संस्कृति के इंसानों के सभी हितों से समन्वित हैं। जबकि क़ानून यदि ईश्वर या उसके विशेष दूतों द्वारा बनाए जाएं तो फिर यह समस्याएं नहीं आएंगी।

मानवाधिकारों के निर्धारण के संबंध में सर्वोच्च और सबसे उपयुक्त हस्ती ईश्वर की है। क्योंकि ईश्वर के यहां अज्ञान की कोई कल्पना ही नहीं है क़ुरआन ने सूरए सबा की आयत नंबर 3 में ईश्वर के ज्ञान के बारे में कहा है कि आसमानों और ज़मीन में कोई भी चीज़ उससे छिपी नहीं है। दूसरी ओर ईश्वर किसी चीज़ को भूलता भी नहीं। यह असंभव है कि वह किसी भी चीज़ के बारे में ज्ञान न रखता हो या बाद में भूल गया हो। क़ुरआन इस बारे में कहता है कि तुम्हारा पालनहार किसी भी चीज़ को नहीं भूलता।

इसी प्रकार द्वेष और दिली चाहत जैसी चीज़ें भी ईश्वर से परे हैं। ईश्वर जिसने इंसान को पैदा किया और उसे जीवन गुज़ारने का अधिकार दिया है वह ख़ुद उस इंसान से ज़्यादा बेहतर ढंग से जानता है कि इंसान का हित क्या है। इस प्रकार क़ानून बनाने और सज़ा या पारितोषिक तय करने में सबसे उपयुक्त हस्ती ईश्वर की है और उसी को यह अधिकार है।

ईश्वरीय धर्मों का यह कहना है कि सारे इंसान मिल जुलकर शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं। क्योंकि सभी इंसानों के बीच एक महत्वपूर्ण समानता पायी जाती है। यही समानता इंसानों के भाग्य का निर्धारण कर सकती है और उनके कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकती है। क़ुरआन के अनुसार यह समानता आत्मा की है। आत्मा में ईश्वरीय प्रवृत्ति पायी जाती है।

यहां यह सवाल पैदा हो सकता है कि क्या यह वही प्रवृत्ति है जिसे पश्चिमी विद्वानों ने मानवाधिकार का आधार बनाया है? जवाब में यह कहना चाहिए कि हम जब चीज़ों की कुछ विशेषताओं को देखते हैं तो उन्हीं के आधार पर उनके बारे में हमारी सोच बनती है। जैसे इंसान मिट्टी को देखता है पानी को देखता है दोनो पदार्थ हैं लेकिन दोनों की विशेषताएं अलग अलग हैं। इंसान यह समझता था कि इनमें से हरेक के भीतर एक विशेष ऊर्जा है जो इस पदार्थ के अंदर यह विशेषताएं उत्पन्न करती है जबकि दूसरे पदार्थ में दूसरी शक्ति निहित है जिसके कारण उसके भीतर यह विशेषताएं उत्पन्न हुई हैं। जो चीज़ यह विशेषताएं उत्पन्न करती है वही प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति भी अलग अलग होती है। प्राणियों की प्रवृत्ति अलग है और निर्जीव चीज़ों की प्रवृ त्ति अलग होती है। चीज़ों के भीतर इन विशेषताओं के साथ ही ईश्वरीय प्रवृत्ति भी होती है जिस पर पश्चिमी विचारकों ने ध्यान नहीं दिया जबकि ईश्वरीय धर्मों ने इस बिंदु पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया है। ईश्वरीय प्रवृत्ति इंसान को हमेशा उत्थान और परिपूर्णता की ओर खींचती है। यह झुकाव प्राकृतिक होता है और इंसान की प्राकृतिक क्षमताएं उसी समय हरकत में आती हैं जब उनके सामने मौजूद रुकावटें दूर कर दी गई हों। जब इंसान पैदा होता है तो वह एक आम प्राणी होता है और उसके भीतर इंसानी क्षमताएं निहित होती हैं। इन क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है। क्षमताओं को परवान चढ़ाने के लिए प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है, संघर्ष करना पड़ता है। आत्मा अपने भीतर इस ईश्वरीय प्रवृत्ति को स्थान देती है और अपने अधीन रखती है।

क़ुरआन मजीद की दृष्टि में यह ईश्वरीय प्रवृत्ति सभी इंसानों में पायी जाती है और यह उनके बीच महत्वपूर्ण समानता है। इसकी तीन महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं। पहली विशेषता यह है कि वह केवल ईश्वर को चाहती है दूसरे यह कि उसे सभी इंसानों के अस्तित्व में रखा गया है और तीसरे यह कि उसमें न कोई बदलाव आता है और न उसे कोई नुक़सान पहुंचता है। क़ुरआन मे कहा गया है कि ईश्वरीय प्रवृत्ति का अनुसरण करो ईश्वर ने उसी के आधार पर इंसानों को पैदा किया है, ईश्वर की सृष्टि में कोई बदलाव नहीं है।

इस प्रकार यह बात स्पष्ट है कि सभी इंसानों के बीच एक महत्वपूर्ण समानता के रूप में ईश्वरीय प्रवृत्ति को चिन्हित किया जा सकता है। इस लिए मानवाधिकार तय करने के संबंध में इस आधार के अलावा किसी और चीज़ को आधार नहीं बनाया जा सकता। इस संबंध में इंसान की इच्छाओं को भी आधार मान लेना सही नहीं है। जब यह बिंदु समझ में आ जाएगा तो यह भी समझ में आ जाएगा कि ईश्वरीय प्रवृत्ति की रचना ईश्वर ने की है और वह उसे भली भांति जानता है।

यहां तक यह बात साफ हो गई कि क़ुरआन ने ईश्वरीय प्रवृत्ति को सभी इंसानों के बीच महत्वपूर्ण समानता बताया है और उसे बहुत अधिक महत्व दिया है लेकिन इससे भी अधिक मूल्यवान चीज़ है वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश। इसी लिए क़ुरआन ने ईश्वरीय दूतों सहित सबको आदेश दिया है कि वह अपनी तरफ़ से कोई क़ानून न बनाएं बल्कि ईश्वरीय संदेश पर ध्यान दें। जब पैग़म्बरों के बारे में यह स्थिति है तो फिर दूसरे आम इंसानों की स्थिति पहले से ही मालूम है। ईश्वरीय दूत ईश्वरीय अनकंपाओं से सुसज्जित होते हैं वह महान हस्ती के मालिक होते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें इंसानों के लिए क़ानून बनाने का अधिकार नहीं दिया गया है। कुरआन में ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम से कहता है कि जल्दबाज़ी में क़ुरआन की तिलावत न करो कि हमने ही क़ुरआन को संकलित किया है और तुमपर नाज़िल करते हैं।

ईश्वर के इस आदेश का अर्थ यह है कि पैग़म्बरे ईश्वरीय संदेश मिल जाने से पहले कोई बात नहीं कह सकते। पैग़म्बरे इस्लाम की शैली भी यही थी। इसी लिए ईश्वर ने उनके बारे में कहा है कि वह अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कहते बल्कि जो भी कहते हैं वह ईश्वरीय संदेश होता है।

इस तरह मानवाधिकारों से संबंधित क़ानून बनाने का अधिकार ईश्वर को है। क्योंकि इंसान का अपने रचनाकार से गहरा संबंध होता है। यह संबंध इंसान की रचना तक ही सीमित नहीं है बल्कि रचना पूरी हो जाने के बाद भी इंसान का जीवन हर क्षण ईश्वर पर निर्भर रहता है। अतः यदि इंसान परिपूर्णता का सफ़र तय करना चाहता है तो वह अकेले अपने बल पर इस लक्ष्य में सफल नहीं हो सकता। इस प्रकार नतीजा निकलता है कि मानवाधिकारों का निर्धारण जो परिपूर्णता के मार्ग का भाग है ईश्वर द्वारा होना चाहिए।

दूसरी ओर मानवाधिकारों के निर्धारण से पहले यह भी ज़रूरी है कि इंसान और उसकी आवश्यकताओं की जानकारी हो। आवश्यकताओं की जानकारी के लिए मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का ज्ञान होना चाहिए। यह स्पष्ट है कि इन सभी आयामों की जानकारी ईश्वर को ही है। ईश्वर ने ही इंसान की रचना की है और वही इंसान के अस्तित्व के सभी पहलुओं को जानता है और वही मानवाधिकारों का निर्धारण कर सकता है।

ईश्वरीय आइडियालोजी में अधिकारों के बारे में विशेष व्यवस्था रखी गई है। इस वैचारिक व्यवस्था के अनुसार ईश्वर वह हस्ती है जिसमें कोई त्रुटि नहीं है वह संपूर्णता का प्रतीक है और हर प्रकार की कमी से परे है। वही है जो अधिकारों का निर्धारण कर सकता है। इसी लिए क़ुरआन कहता है कि अधिकार तुम्हारे पालनहार की ओर से है।

दूसरी ओर संसार की सभी वस्तुओं में कोई न कोई कमी ज़रूर है और सब महान ईश्वर की दृष्टि में हैं। यदि इनमें कोई भी वस्तु महान ईश्वर से अपना संपर्क कम करेगी तो उसके अस्तित्व की कमियां उसी मात्रा में बढ़ जाएंगी।