साहित्य

#आस्तीन का साँप………..जिसको पालकर उन्होंने अपने घर की खुशियों में ही आग लगा ली!

#आस्तीन का साँप
आज अग्रवाल साहब अपनी लड़की के रिश्ते के लिए जा रहे थे। सारी तैयारी कर ली गई। शगुन में देने के लिए गिन्नी भी रख ली।चाचा को भी साथ ले लिया गया।
देखने दिखाने का कार्यक्रम चल रहा था। गोद भरने की तैयारी हो रही थी। लेकिन तभी कुछ कानाफूसी सी होने लगती है और लड़के वाले रिश्ते से मना कर देते हैं।
सभी लोग उदास मन से घर लौट आते हैं। अग्रवाल साहब की बेटी मान्या के दिल पर गहरी चोट लगती है।
दबी जवान से सुनाई भी पड़ता है कि लड़की के चाचा ने चुगली की है।
पर अग्रवाल साहब सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करते। उन्हें अपने भाई पर पूरा भरोसा था।
कुछ दिन बाद सुबह-सुबह चाचा मिठाई का डिब्बा लेकर उनके घर आते हैं। मिठाई निकालते हुए कहते हैं, “भाभी मुंह मीठा कीजिए। आप की भतीजी सौम्या का रिश्ता तय हो गया है।”


मान्या की मम्मी बधाई देते हुए पूछती हैं,”अच्छा भाई साहब बढ़िया है। कहाँ से हुआ रिश्ता?”
चाचा दांत निपोरते हुए कहते हैं,”भाभी जो मान्या के लिए लड़का देखा था ना। वह लड़का लंबा था। सौम्या की लंबाई भी अधिक है। मुझे तभी वह लड़का बहुत जम गया था।
कोई बात नहीं भाभी, मान्या के लिए और अच्छा घर ढूंढ लेंगे।”
मान्या की मम्मी उनकी बात सुनकर सोचने लगी #आस्तीन का साँप घर पर ही था।
जिसको पालकर उन्होंने अपने घर की खुशियों में ही आग लगा ली ।
स्वरचित मौलिक
प्राची लेखिका
बुलंदशहर उत्तर प्रदेश\\

Mukta Vyas ·
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#Bookreview
मेरी तलब के तकाजे़ पे ज़रा गौर तो कर ,
मैं तेरे पास आई हूं खुदा के होते हुए ….!
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बनारस ऐसा शहर है जहाँ आप यूँ ही टहलते या भटकते हुए बस पहुँच जाएँ तो भी वह आपको थाम ही लेता है।
गोवा की तरह रोमांटिक होकर बाहों में नहीं लेता बल्कि एक माँ की तरह गोद में ले लेता है जो हौले हौले आपके बालों में उँगलियाँ चलाती हैं ।
यहाँ आकर आप खुद के बिल्कुल करीब भी जा सकते हैं और पूरी तरह खुद को मुक्त भी कर सकते हैं।
गहरी आत्मीयता का मोहपाश डालने वाला शहर भी है बनारस …. और मुक्ति का , वैराग्य का फलसफा़ पढ़ता शहर भी है बनारस !
मुझे पूरा यकीन था कि इस शहर में मैं बिना किसी मानसिक और तामझामी तैयारी के अचानक भी कूद पड़ती , तब भी मुझे यह शहर अपना बना ही लेता लेकिन मैं अपने बैगपैक में आईडी प्रूफ और मोबाइल फोन के साथ बिना भूले कुछ ऐसा लेकर गई थी जिससे यह शहर मेरे ज़ेहन में उतरता ही चला गया। मेरा होता चला गया …
पिछले वर्ष ब्लेसिंग की तरह एक किताब मिली ‘–‘फक्कड़ घुमक्कड़ के किस्से’ (आधुनिक शैली में संक्षिप्तीकरण करें तो FGKK ) 📗
नाम सुनकर ही लगता है किसी रेलगाड़ी की सीटी बज गई है और सफ़र शुरू हो गया है और इस रेल में एक ट्रैवलर है जो अनगिनत किस्से लिए बैठा है ।
कवर फोटो भी कुछ ऐसा ही है और हकीकत भी कुछ ऐसी ही है।
224 पेज जैसे हवा से फड़फड़ाए हों वैसे हम कब पूरी किताब पढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता ।
इस किताब के हर्फ़ और लफ्ज़ मेरी आंखों के गलियारों से मेरे मन के अहाते में पहुंचते गए और वहां शब्दों से चित्र और चित्रों से चलचित्र बन गए । किसी- किसी की कलम में वह ताकत होती है कि काली- नीली स्याही से भी सात रंग के दृश्य रच देते हैं ।
‘श्वेतवर्णा प्रकाशन’ की इस पुस्तक ने ना तो मुझे बनारस की दुनिया में गुमशुदा होने दिया और ना मेरी योजना को आधा अधूरा छूटने दिया । ऐसा लगा जैसे वाराणसी ट्रिप में एक टूर ऑर्गेनाइजर को मैं अपने साथ ले गई हूं ।
काशी पर अनंत लेखन कार्य हुआ है, फिल्में बनी है ,गीत और कविताएँ रचे गए हैं जिनसे मैं अनभिज्ञ तो नहीं पर वह मेरे लिए गुरु ज्ञान है , और यह किताब मेरी दोस्त है, मेरी गाइड है, मेरी अनकंडीशनल,अनडिमांडिंग फ्रेंड है !!
मुझे पुस्तक कैसे मिली यह मैं जब-जब सोचती हूँ, मुझे यकीन आ जाता है कि जिन चीजों का हम मानसिक रूप से चयन कर लेते हैं उनका हम तक पहुंचने का रास्ता भी कायनात बना ही देती है।
लेखक *कमल रामवानी सारांश* Kamal Ramwani Saransh जी के बारे में घुमक्कड़ी जिंदाबाद ग्रुप ज्वाइन करने के बाद ही जाना । मुझे इनके मस्त रोमानी मौसम जैसा लेखन बेहद प्रभावित कर गया और लेखन के भीतर स्पष्टवादिता का खरा – खरा ताप और निर्भीक सच्चाई की आँच मुझे मंत्रमुग्ध कर गई।
उन दिनों इनकी एक सीरीज — “कहीं पहुंचने के लिए कहीं से निकलना होता है ” ज़बर्दस्त हाइप पर थी।
मैं भी उसके हर भाग को कई बार पढ़ती थी।
सर की ही फेसबुक प्रोफाइल पर इस किताब के बारे में जाना और उन्हीं दिनों संयोग से घुमक्कड़ी जिंदाबाद ग्रुप में 50 k सदस्य होने का जश्न जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में होना तय हुआ ।
यहां कमल सर से पहली मुलाकात हुई लेकिन हम सभी व्यस्त थे और ज्यादा बातचीत नहीं हो पाई । ये अलग बात है कि व्यस्त वे आज भी है और बात आज भी नहीं हो पाती है।
कार्यक्रम वाली शाम अचानक पता चला कि सर अभी अपने शहर के लिए निकलने वाले हैं तो मुझे किताब याद आई ।
मैं जानना चाहती थी कि मैं किताब कहाँ से और कैसे ले सकती हूं ? और पता चला कि सर के पास एक या दो किताबें रखी है और इस तरह मुझे स्वयं लेखक के हाथों से ऑटोग्राफ वाली स्पेशल कॉपी मिल गई ।📕
किताबें पढ़ने का मेरा मिराक जबरदस्त है। पढ़ा भी काफी है और किताबों से घिरी ही रहती हूँ । पुस्तक हाथ में आने पर जल्दी ही पूरी करके अगली पुस्तक शुरु कर देती हूँ । इसके बावजूद इस किताब के चुंबकीय प्रभाव ने मुझे आज़ाद नहीं होने दिया।
एक बार शुरू करके मैं इसे पूरा पढ़ गई ।
कई जगह अंडरलाइन की, कई पन्नों के कोने मोड़े, कई जगह अपने खुद के कुछ नोट लिखे…. लेकिन मन नहीं भर रहा था ।
उस समय मैं जॉब में थी और मेरी आदत हो गई कि मैं इस किताब को रोज़ अपने वर्कप्लेस ले जाती और अपने केबिन के डेस्क पर रखती। बीच में 5 – 10 मिनट मिलते ही मैं कहीं से भी कोई भी पन्ना खोल कर जल्दी से पढ़ डालती । यह रूटीन कई दिनों तक चला । मैंने लेखक को वहाँ रखी किताब के एक दो बार फोटो भी भेजे थे। शायद उन्हें याद हो ।
इसके बाद मैंने एक-दो रेल यात्राएँ भी इस पुस्तक के साथ की और ऐसा करते करते मुझे इसके सारे किस्से याद हो गए।
पिछले माह वाराणसी की यात्रा करते समय यह पुस्तक जिस तरह मेरी गार्जियन कम गाइड बनी मैं इस पर विमुग्ध हो गई।
मैंने अपने कुछ दोस्तों जो किताबों के शौकीन होने के साथ-साथ स्वादी भी थे उनको यह किताब तोहफे में दी और उनके लिए यह एक लाइफटाइम असेट बन गया ।
पुस्तक में कुल 224 पेज हैं, भूमिका के बाद 9 चैप्टर है जिनमें लेखक हमें हिमाचल प्रदेश, इंदौर (मध्य प्रदेश) ,अजमेर- (राजस्थान) ,कुंभलगढ़ -(मेवाड़) ,पंजाब और पुष्कर की यात्राओं के साथ दास्तान ए बनारस से रूबरू करवाते हैं ।
मुझे इंदौर भी यही किताब घुमाएगी और लेखक से इस बार मिलने पर मैं यह अनुरोध जरूर करूंगी कि वह इसके अगले भाग पर भी अगर काम कर सकें तो हम शुक्रगुज़ार रहेंगे।
मैं कई बार सोचती हूं कि कैसे प्रकृति ने हमें प्राणवायु मुफ्त में दे दी बस वैसे ही कुछ किताबों को देखकर भी यही विचार आता है ।
इस किताब की शक्ल में ₹260 में एक खुशियों का खजाना आपके हाथों में आ जाता है जो कभी आपको व्यावसायिक पृष्ठभूमि में यकायक साहित्यिक रुचि रखने वाले एक बच्चे से परिचित कराता है, तो कभी एक जुनूनी जवान से जो अपने पैशन के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता !!!
यह किताब आपको टूरिज्म और ट्रैवलिंग जैसे दो समानार्थी प्रतीत होने वाले शब्दों का गहरा अंतर बताती है ।
यह किताब एक तरफ हमें एक सोलो ट्रैवलर्स की मनःस्थिति और आंतरिक आवेगो से परिचित कराती है तो दूसरी ओर हमें एक स्मार्ट ट्रैवलर बनने के स्मार्ट टिप्स भी देती है ।
ऐसा नहीं कि यह किताब आपको सिर्फ इन जगहों की तारीफों के कसीदे ही पेश करेगी । कई जगहों पर लेखक आपको महंगाई, ठगी और बारगेनिंग से आगाह करते हुए और चेतावनी देते हुए मिलेंगे तो कभी अपने फूड टूर्स के बुरे प्रसंगो से रूबरू भी करवाएंगे ।
यह किताब हमारे सामने ऐसे अनेक नाम और व्यक्तित्व उजागर करती है जिनकी हुनरमंद उंगलियों का जादू किसी शहर को प्रसिद्धि की बुलंदियों पर पहुंचा रहा है ।
प्रसिद्ध दुकानों के नाम ,उनके मालिकों के साक्षात्कार ,पकवानों के नाम ,स्वाद , कीमतें ,पर्यटन स्थलों की जानकारियां और इन सब का खूबसूरती से किया गया वर्गीकरण पाठक को मंत्रमुग्ध कर देता है।
किताब का फ्रंट फ्लिप नोट अपने एकरस जीवन के कारावास से आज़ाद होकर घूमने की प्रेरणा देता है ,आनंद के रसायन उत्पन्न करने की प्रेरणा देता है तो बैक फ्लिप नोट किसी भी शहर के स्थानीय लोगों की ताकत से जोड़ता है ।
लेखक के जीवन के माइलस्टोन जैसे फोटोग्राफ इस किताब को एक रजिस्टर्ड डाक्यूमेंट्स में बदल देते हैं तो प्रसंगों के बीच में अचानक आए ‘वन लाइनर’ कभी आप के दिमाग पर हथौड़ा मारते हैं तो कभी आपके पेट में गुदगुदी सी कर जाते हैं ।
जैसे जैसे हम इसके पन्ने पलटते जाते हैं , हम घुमक्कड़ी के साथ साथ जायके का सफर भी करते जाते हैं।
यात्राओं और स्वाद की अनंत कथाओं में जब आप डूब चुके होंगे तो ऐसा महसूस करेंगे जैसे इस किताब की पंक्तियों ने सलाइयों की तरह आपके पैरों के तलवे में बनी यात्रा योग की रेखाओं और जिह्वा की स्वाद कलिकाओं को आपस में गूँथ दिया और उससे एक ऐसा अनूठा ताना-बाना रच गया है जो कभी तो आपकी यात्राओं के दौरान एक अदृश्य परचम की तरह लहराता रहेगा तो कभी सफर की धूप – बरसात से बचाने के लिए आपका शामियाना बन जाएगा ।
हमारी शुभकामना है कि आपकी लेखनी इसी तरह अनवरत गतिशील रहे और स्वाद और यात्राओं के अनंत किस्से हमारे मन के मौसम को गुलज़ार करते रहें !

Dharmbir Kaushik
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रोटी
एक मित्र ने पत्नी के स्वर्ग वास हो जाने के बाद अपने दोस्तों के साथ सुबह शाम पार्क में टहलना और गप्पें मारना, पास के मंदिर में दर्शन करने को अपनी दिनचर्या बना लिया था।
हालांकि घर में उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी। सभी उनका बहुत ध्यान रखते थे, लेकिन आज सभी दोस्त चुपचाप बैठे थे।
एक दोस्त को वृद्धाश्रम भेजने की बात से सभी दु:खी थे” आप सब हमेशा मुझसे पूछते थे कि मैं भगवान से तीसरी रोटी क्यों माँगता हूँ? आज बतला देता हूँ। “
कमल ने पूछा “क्या बहू तुम्हें सिर्फ तीन रोटी ही देती है ?”
बड़ी उत्सुकता से एक दोस्त ने पूछा? “नहीं यार! ऐसी कोई बात नहीं है, बहू बहुत अच्छी है।
असल में “रोटी, चार प्रकार की होती है।”
पहली “सबसे स्वादिष्ट” रोटी “माँ की “ममता” और “वात्सल्य” से भरी हुई। जिससे पेट तो भर जाता है, पर मन कभी नहीं भरता।
एक दोस्त ने कहा, सोलह आने सच, पर शादी के बाद माँ की रोटी कम ही मिलती है।” उन्होंने आगे कहा “हाँ, वही तो बात है।
दूसरी रोटी पत्नी की होती है जिसमें अपनापन और “समर्पण” भाव होता है जिससे “पेट” और “मन” दोनों भर जाते हैं।”, क्या बात कही है यार ?” ऐसा तो हमने कभी सोचा ही नहीं।
फिर तीसरी रोटी किस की होती है?” एक दोस्त ने सवाल किया।
“तीसरी रोटी बहू की होती है जिसमें सिर्फ “कर्तव्य” का भाव होता है जो कुछ कुछ स्वाद भी देती है और पेट भी भर देती है और वृद्धाश्रम की परेशानियों से भी बचाती है”, थोड़ी देर के लिए वहाँ चुप्पी छा गई।
“लेकिन ये चौथी रोटी कौन सी होती है ?” मौन तोड़ते हुए एक दोस्त ने पूछा-
“चौथी रोटी नौकरानी की होती है। जिससे ना तो इन्सान का “पेट” भरता है न ही “मन” तृप्त होता है और “स्वाद” की तो कोई गारँटी ही नहीं है”, तो फिर हमें क्या करना चाहिये यार?
माँ की हमेशा पूजा करो, पत्नी को सबसे अच्छा दोस्त बना कर जीवन जिओ, बहू को अपनी बेटी समझो और छोटी मोटी ग़लतियाँ नज़रन्दाज़ कर दो, बहु भी खुश रहेगी तो बेटा भी ध्यान रखेगा।
यदि हालात चौथी रोटी तक ले आये तो भगवान का आभार जताओ कि उसने जीवित रखा हुआ है और अब स्वाद पर ध्यान मत दो केवल जीने के लिए थोड़ा कम खाओ ताकि आराम से बुढ़ापा कट जाए। बड़ी खामोशी से दोस्त सोच रहे थे वाकई हम कितने खुशकिस्मत हैं ।