साहित्य

इक तस्वीर की कितनी क़ीमत होती है…आदिल रशीद

Aadil Rasheed
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इक तस्वीर की कितनी क़ीमत होती है… आदिल रशीद
दुनिया के लिए ये महज़ एक मुशायरे की तस्वीर है मेरे लिए एक ऐसा यादगार लम्हा जिसके लिए मैं ने पूरे 25 बरस इंतज़ार किया
बात तब की है जब मैं आदिल रशीद नहीं अहमद लईक़ उर्फ चाँद तिलहरी हुआ करता था।

1992 में टाईटन वाच में नौकरी लगी तो दिल्ली आ गया नौकरी के सबब वक़्त ही नहीं मिलता था इसलिए अदबी महफ़िलों में शिरकत नहीं होती थी लेकिन शेर कहना जारी रहा
सितंबर 1997 में मैं बैंगलोर से दिल्ली आ रहा था इत्तफाक से सामने की बर्थ पर मशहूर ए ज़माना शायर मरहूम अशोक साहिल सफ़र कर रहे थे मैं उनको पहचान गया गुफ्तगू का सिलसिला चल निकला और उन्होंने बहुत सारा वो कलाम जो वो मुशायरों में नहीं पढ़ते थे वो सुनाया जिसमें ग़ज़लें क़तआत नज़्में हम्द नात और सलाम शामिल थे मैं उनसे बेपनाह मुतासिर हुआ और सोचने लगा कि अशोक साहिल को मैं सिर्फ मुशायरे के हवाले से जानता हूँ उनका कलाम जब भी सुना तो मुशायरे में ही सुना लेकिन आज उनका वो कलाम सुना जो वो मुशायरों में नहीं पढ़ते हैं वो मुशायरों के कलाम से किस दर्जा अलग है किस दर्जा मेआरी है यक़ीनन मुशायरे की मजबूरियों के चलते ही शायर मुशायरे में अपना बेहतरीन कलाम नहीं पढ़ पाते होंगे क्योंकि मुशायरे में शायर की कामयाबी का पैमाना सिर्फ और सिर्फ शोर बनकर रह गया है किसने किस दर्जा फ़िक्र आमेज़, मुफ़क्किराना, मुदब्बिराना और इस्लाह ए मआशरा पर शेर पढ़े किसी को इस से कोई मतलब नहीं मुशायरा कंवीनर भी उसी शायर को कामयाब मानता है जिसने शोर बरपा किया हो और आने वाला कम मशहूर शायर भी उसी शोर हंगामे वाले आसान रास्ते पर चल निकलता है क्योंकि वो नौजवान ग़ैर मारुफ़ शायर ख़ौफ़ज़दा हो जाता है कि अगर वो शोर हंगामा बरपा नहीं कर सका तो कंनवीनर अगले मुशायरे में मुझे बुलाने की ज़हमत गवारा नहीं करेगा

रात हुई फिर सवेरा हुआ किसी स्टेशन पर कोई उनका कोई शैदाई जिसे ये ख़बर थी कि वो इस ट्रेन से सफर कर रहे हैं खाना लेकर आया खाना खाते हुए मरहूम अशोक साहिल ने कहा “चाँद भाई एक बात मैं कल से सोच रहा हूँ कि जिस तरह आपने शेर सुने और बहर में मिसरे वापस किए मुझे हैरत हुई फिर मैंने आपकी आज़माईश के लिए जानबूझकर मिसरे बेबहर पढ़ें लेकिन आपने फिर भी जिस तरह बेबहर मिसरे बहर में करके वापस लौटाए उस से मैं यकीन ही नहीं दावे से कह सकता हूँ कि आप भी शायर हैं और अगर शायर नहीं हैं तो आप कभी भी शायरी शुरूअ कर सकते हैं

उनकी ये बात सुनकर मैं ने अर्ज़ किया कि यूँ तो मेरा नाम लईक़ अहमद है घर का नाम चाँद है और चाँद तिलहरी के नाम से ही मेरा एक शेरी मजमुआ जिसका नाम “ग़ज़ल से रिश्ता” है 1990 में शाया हो चुका है लेकिन नौकरी में बिल्कुल वक़्त नहीं मिलता इसलिए मुशायरे या किसी अदबी महफ़िल में शरीक नहीं होता

ये सुनकर अशोक साहिल भाई बहुत खुश हुए और उनके इसरार पर कई ग़ज़लें उनको सुनाईं जिनको उन्होंने बेहद पसंद फ़रमाया और कहा कि जैसी आप की शायरी है आपको कभी-कभी मुशायरे में भी शामिल होना चाहिए।

मरहूम अशोक साहिल के हुक्म पर ही मैं ने अपने ज़िले से बाहर अपनी जिंदगी का जो पहला मुशायरा पढ़ा वो मुहतरम शकील पटवारी का मुशायरा था जो इसी एटलस चौराहे उज्जैन पर मुनक़्क़िद हुआ था और तारीख थी 23 दिसंबर 1997 तारीख यूँ याद है क्यूंकि उसके दो दिन बाद 25 दिसंबर मेरा जन्मदिन था और मरहूम अशोक साहिल ने चलती ट्रेन में मेरा मुंह मीठा कराया था ईश्वर स्वर्गीय अशोक साहिल की आत्मा को शांति दे।

मुहतरम शकील पटवारी का वो तारीखी मुशायरा मैं यूँ भी कभी फरामोश नहीं कर सकता क्योंकि मुशायरे की सुब्ह जब लोगों ने मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी (जो शदीद बुखार के सबब मुशायरे में शरीक नहीं हो पाए थे) से मुशायरे की रुदाद बयान की और बताया कि रात एक नौजवान लड़के ने बहुत ही उम्दा शायरी पढ़ी तो उन्होंने मुझे तलब फ़रमाया और मुझे लेने के लिए डाक्टर ज़िया राना भाई आए वहीं मरहूम रशीद इमकान भी मिले ये दोनों लोग उसी दिन से मेरे अज़ीज़ दोस्त हो गए।

जब मैं मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी की खिदमत में उनके दौलतकदे पर हाजिर हुआ तो क्या देखता हूँ कि उज्जैन शहर के सभी सुखनफ़हम बाज़ौक़ मोतबर हस्तियां मौजूद हैं उन सबकी मोजूदगी में मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी साहिब के हुक्म पर कुछ ग़ज़लें पेश कीं मेरी शायरी सुनकर मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी साहिब के मुँह से दुआइया कलमात निकले कि “चाँद साहिब शकील पटवारी का मुशायरा बहुत ही मोतबर और लकी मुशायरा है देखना एक दिन पूरी दुनिया का प्यार तुमको नसीब होगा”

मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी मुझे चांद ही कहा करते थे उन्होंने मेरी शायरी पर अपनी बेशकीमती राय से भी एक मज़मून में नवाजा “मुश्किल तरीन ज़मीनों का शायर चाँद तिलहरी”

काश आज मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी साहिब हयात होते तो बहुत खुश होते की उनकी दुआ उनकी पेशनगोई सही साबित हुई और वाक़ई मुहतरम शकील पटवारी का मुशायरा मेरे लिए लकी साबित हुआ और चाँद तिलहरी अब आदिल रशीद हो गया है और हिंदुस्तान से बाहर भी कई बार मुशायरे में शिरकत के लिए गया है

मैं चाँद तिलहरी 2004 में लाडो सराय महरौली से शाहीन बाग़ दिल्ली में मुंतक़िल हुआ तो मेरी मुलाक़ात मुहतरम डाक्टर ताबिश मेंहदी से हुई जो मरहूम ताहिर तिलहरी के दोस्त थे मरहूम ताहिर तिलहरी जिनको हम सब ताहिर भईया कहते थे उनसे मेरी क़ुरबत ही नहीं रही मेरी दो तीन ग़ज़लों पर उनकी इस्लाह भी है और मैं आज भी उनको अपना उस्ताद कहता हूँ

एक दिन मुहतरम डाक्टर ताबिश मेंहदी ने कहा कि चाँद जिस तरह का तुम्हारा लहजा है और जिस तरह के तुम मज़ामीन शायरी में लाते हो उसके साथ तुम्हारा तख़ल्लुस इंसाफ़ नहीं करता तुम तख़ल्लुस तब्दील कर लो मैं ने बेहद आज़ीज़ाना लहजे में कहा लेकिन मुहतरम मेरे सारे मक़्ते खारिज हो जाएँगे तो उन्होंने मुझे बद्र तख़ल्लुस दिया कि बद्र का वज़्न और मआनी चांद के वज़्न और मआनी एक ही हैं

रशीद मेरे वालिद का नाम था तो मैंने निस्बत के तौर पर रशीदी लगाकर अपना नाम बद्र रशीदी कर लिया लेकिन बद्र की रे और रशीद की रे की जो तकरार थी वो समाअत पर बेहद गराँ गुज़रती थी और हमारे दिल्ली के एक नाज़िम दोस्त जो लाख लोगों के समझाने के बाद भी बद्र को बद्र ना कहकर हमेशा बदर रशीदी ही कहते थे तो मैंने इसको भी बदलने का फैसला किया अब्बू से इस सिलसिले में मश्वरा किया उन्होंने बताया कि लगभग 10-11 साल की उम्र में जब तुमने अपनी ज़िंदगी का पहला शेर जो सलाम का था कहा था तब तमन्ना अमरोही साहब ने तुम्हारा सलाम का शेर सुनकर कहा था कि रशीद साहब चाँद पर आदिल नाम ही ज़ेब देता है तो तुम तमन्ना अमरोही के दिए नाम आदिल को तख़ल्लुस बनाओ और नाम आदिल रशीद कर लो लेकिन एक मसअला है कि आदिल रशीद नाम के एक बहुत ही बड़े नाॅविल निगार हुए हैं मैंने कहा कि क्या उन आदिल रशीद ने शायरी भी की अब्बू बोले नहीं अल्लाह ने उनको ये तौफीक अता नहीं की मैंने कहा फिर कोई मसअला नहीं अल्लाह ने उन आदिल रशीद को शेरगोई की तौफीक यूँ अता नहीं की क्यूंकि ख़ुदा ए बरतर ये जानता था कि एक दिन चाँद तिलहरी ही आदिल रशीद होगा इस तरह मैं अहमद लईक़ चाँद, चाँद मंसूरी,चाँद मीनाई, चाँद तिलहरी से आख़िर आदिल रशीद हो गया
2005 और 2013 में आदिल रशीद के नाम से नगर निगम कार्तिक मेला मुशायरे उज्जैन में शिरकत भी हुई लेकिन दिल तो मुहतरम शकील पटवारी के मुशायरे और शकील पटवारी से मुलाकात का मुत्मन्नी था, लेकिन उनसे मुलाकात कभी नहीं हुई मेरे पास उनका फोन नंबर भी था लेकिन मेंने कभी शकील पटवारी साहिब को फोन नहीं किया कि न जाने वो क्या समझेंगे

फिर वो हसरत भी पूरी हुई मैं देवास मुशायरा पढ़ने के लिए स्टेज पर बैठा था किसी शायर ने सफ़ ए सामाईन में बैठे मेरे मुहतरम शकील पटवारी को मुखातिब किया मैं ख़ुशी से झूम उठा लेकिन उनको पहचान नहीं पाया 25 बरस में शक्ल में काफी तब्दीली आ ही जाती है तो मुझे एक शायर दोस्त से पूछना पड़ा कि मुहतरम शकील पटवारी कौन से हैं
देवास मुशायरे में मुझे बेपनाह मुहब्बत मिली।

देवास मुशायरा खत्म होते ही मुहतरम शकील पटवारी ने गले लगा कर मुबारकबाद दी और नंबर तलब किया मैं ने उनको नंबर दिया उन्होंने काल की तो मैंने मोबाइल दिखा कर कहा कि मुहतरम आप का नंबर सेव है लेकिन कभी आपको फोन नहीं किया

मुहतरम शकील पटवारी जिस तरह मुझसे पेश आए मुझे लगा कि शकील साहिब इस बार अपने मुशायरे में बुलाएंगे।

फिर उज्जैन नगर निगम से कार्तिक मेला मुशायरे के लिए 27 नवंबर का दावतनामा तो आया लेकिन शकील पटवारी साहब का कोई दावत नामा नहीं आया तो मुझे मायूसी सी हुई।
19 नवंबर को जयपुर से टोंक मुशायरे में जाते हुए भाई शकील आज़मी ने पूछा कि आदिल “उज्जैन से शकील पटवारी का फोन आया”मैं ने कहा “नहीं”
उसी वक्त शकील आजमी ने शकील पटवारी साहब को फोन करके कहा कि “शकील भाई आपने देवास मुशायरे में आदिल रशीद को सुना था नंबर भी लिया था मेरे ख़्याल में आदिल रशीद आपके मुशायरे का हिस्सा होना चाहिए उसके बाद अगले दिन मुहतरम शकील पटवारी साहब का हुक्म आया कि आदिल रशीद आपको 17 दिसंबर 2022 को उज्जैन मुशायरे में आना है, मैंने उसी वक़्त फैसला कर लिया कि अब उज्जैन नगर निगम के सरकारी मुशायरे में मैं नहीं जाऊँगा

मुहतरम शकील पटवारी के मुशायरे में ही जाऊँगा
17 दिसंबर को एटलस चौराहा उज्जैन का तारीखी मुशायरा शुरू हुआ और जब नाज़िम ए मुशायरा शादाब अहमद सिद्दीकी जो कि बेहतरीन निज़ामत कर रहे थे मुझे पेश किया तो उज्जैन के बाज़ौक़ सामाईन ने पहले शेर से ही मुझे उसी मुहब्बत से नवाजा जिस मुहब्बत से 1997 में नवाज़ा था
मैं पढ़ता रहा, पढ़ता रहा , पढ़ता रहा, सामाईन और स्टेज पर बैठे हमारे सीनियर शोअरा हज़रात ने मुझ गरीब का दामन बेपनाह दुआओं से भर दिया

और फ़िर वो लम्हा आया जिसका इंतज़ार मुझे पिछले 25 बरस से था कि मेरे करमफ़रमा मुहतरम शकील पटवारी सफ़ ए सामाईन से उठे और मेरे गले में फूलों का हार डालकर ठीक उसी तरह गले से लगा लिया जिस तरह 25 बरस पहले लगाया था मेरी आँखें नम हो गईं ये तस्वीर उसी यादगार लम्हे की है

तेरे साथ नहीं है तो अहसास हुआ
इक तस्वीर की कितनी क़ीमत होती है
इस तरह इस तस्वीर को हासिल करने में पूरे 25 बरस लग गए

बहुत बहुत शुक्रिया मुहतरम शकील पटवारी और बहुत शुक्रिया मेरे भाई मेरे अज़ीज़ शकील आज़मी अल्लाह मेरे दोनों भाईयों की इज़्ज़त शोहरत में मज़ीद इज़ाफ़ा फरमाए
मैं अपनी बात अपने एक शेर पर ख़त्म करता हूं

मुहसिन के ख़ानदान का भी एहतराम हो
बच्चा भी सामने हो तो आँखें झुकी रहें
आदिल रशीद
22 दिसंबर 2022