साहित्य

उत्तर भारत में वर्तमान मौसम के संदर्भ में ”रवीन्द्र कान्त त्यागी” के नए उपन्यास “मुआवज़ा” का एक दृश्य!

Ravindra Kant Tyagi

Lives in Ghaziabad, India
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उत्तर भारत में वर्तमान मौसम के संदर्भ में मेरे नए उपन्यास “मुआवज़ा” का एक दृश्य।
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अप्रैल के महीने के प्रारम्भ में इतनी तेज धूंप और गर्मी की घुटन कभी नहीं हुई होगी। गर्मी की गमक के मारे सांस लेना दुर्भर हो रहा था। हालांकि औसतन लू इन दिनों में चलती भी नहीं हैं और परूआ हवा में तो बिलकुल नहीं किन्तु आज पुरवा हवा में भी एक लू जैसे भभके का अनुभव हो रहा था। लू हमेशा पछुआ हवा में ही आती है। गाँव का किसान सुबह उठते ही सब से पहले हवा का रुख देखता है कि परुवा चल रही है या पछुआ क्यूँ कि उसकी फसलों का भविष्य इसी पर निर्भर करता है। भले ही पुरवैया कवियों के लिए रोमैंटीक परिवेश उत्पन्न करने का मौसम हो मगर किसान को तो ये हवा बिलकुल पसंद नहीं होती। परूवा हवा में खेतों में हानिकारक कीट पतंगे और फसलों की बीमारियाँ पनपती हैं इसलिए गांवों में, कवियों को प्रेयसी की याद दिलाने वाली इस हवा को कहते हैं ‘आज परवा जहरा रही है। जहर मानते हैं इसे खेती के लिए किन्तु बरसात में यही हवा अक्सर जीवनदाइनी बारिश लेकर आती है।

दिन ढलते ढलते पूरब की तरफ से पहले हल्की और फिर धीरे धीरे गहरी काली घटाएँ निकलनी शुरू हो गईं। थोड़ी ही देर में आसमान में इतनी काली घटाएँ छा गईं कि दिन में ही रात हो गई।

अपनी छह महीने की मेहनत से पकी हुई फसल को अब जल्दी ही घर ले आने की आस लगाए बैठे किसान के चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लगीं। लोग तूफान आने के भय से ऐसे घरों में दुबक गए जैसे शुतुरमुर्ग के रेत में गर्दन दबा लेने की तरह अगर उन्हे दिखाई नहीं देगी तो आपदा टल ही जाएगी।
घर की जिम्मेदार महिलाएं गोबर के उपलों के बिटौड़े पर पौलोथीन लपेट रही थीं। घर के आँगन में पड़े खाट पीढ़ा को जल्दी जल्दी उठाकर भीतर समेटा जा रहा था। पंछियों के बड़े बड़े झुंड आसमान में उड़कर जैसे किसी बड़ी आपदा की चेतावनी दे रहे थे। बादलों की गरज धरती पुत्र का कलेजा दहलाये ड़ाल रही थी। हे भगवान। फसल खेतों में पकी खड़ी है और कुदरत न जाने कौन सा प्रलयंकारी तांडव नृत्य दिखाने को उतावली दिखाई दे रही है। प्रलय का सा वातावरण उत्पन्न हो गया था।

रात दस बजते बजते तेज ठंडी हवा के साथ बूँदाबाँदी होने लगी। तेज हवा के साथ बारिश को गांवों में ‘झाय का मेह’ कहते हैं और पकी हुई फसलों के लिए ये अभिशाप की तरह है। फसलें जमीन पर धराशाई हो जाती हैं और उत्पादन घट जाता है किन्तु जो होने वाला था वो इस से कहीं अधिक भयानक था।
सुबह चार बजे तेज ओलों की रौद्र कर्णभेदी कड़कड़ाहट का स्वर ऐसे सुनाई दे रहा था जैसे आसमान से मृत्यु का नाद प्रतिध्वनित हो रहा हो। भयानक घोर गरज के साथ बड़े बड़े बरफ के गोले आसमान से जमीन पर बरसने लगे थे। गरीब किसान घुटनो में सर दिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवान। ये कयामत की रात किसी तरह गुजर जाये। रहम कर परमात्मा। मेरी साल भर की खून पसीने की तपस्या का फल खुले आसमान के नीचे तेरे रहमोकरम पर पड़ा हुआ है।

सुबह गेहूं की फसल से लहलहाते खेतों का हाल शमशान से भी भयानक था। शमशान जहां इन्सानो की देह की राख़ बची होती है। यहाँ किसान की उम्मीदों की, सपनों की और साल भर मेहनत की राख़ बिखरी पड़ी थी। फसल पूरी तरह चौपट हो गई थी। गेहूं की भरी हुई बालियाँ मिट्टी और पानी की कीचड़ के नीचे दफन हो गई थीं। लहलहाते खेत किसान के अरमानों की लाश में तब्दील हो गए थे। काल विकराल अट्टहास कर रहा था और कायनात बिलख रही थी।
भट्टे पर काम करने वाला परमा कुम्हार का लड़का मुंह अंधेरे दूसरे गाँव के भट्टे से कीचड़ और फिसलन से बचाता हुआ धीरे धीरे अपने घर लौट रहा था कि उस ने देखा, एक खेत की मेंढ पर एक इंसान की देह औंधे मुंह पड़ी हुई है। उसने देह को उलटकर देखा तो उसकी आँखें फटी रह गईं। चौधरी बसंत राम की ठंडी देह धीरे धीरे पिगलते हुए ओलों के ढेर पर पड़ी थी।

लड़का कंधे पर लाठी धरे चिल्लाता हुआ दौड़ा चला आ रहा था। “अरे दौड़ो रे। बसंत चाचा अपने खेत में औंधे मुंह पड़े हैं।”

गाँव का एक हुजूम गारा और पिगलते हुए ओलों पर गिरता पड़ता बेतहाशा खेतों की तरफ भागने लगा। सारे गाँव के सब से सम्मानित किस्सागोह सब के प्यारे बसंत चाचा अपने खेत के डौले पर मरे पड़े थे। शायद सुबह अंधेरे ही अपनी बर्बाद हो गई फसलों की तबाही देखने से खुद को रोक नहीं पाये होंगे। फिर या तो सदमे के कारण उनके दिल ने गहरे आघात में डूबकर दम तोड़ दिया होगा या क्या पता खेत के गारा से लबरेज डोले पर फिसलकर पानी में जा गिरे हों और काल के गाल में समा गए हों।

पूरे गाँव में मरघट का सा सन्नाटा फैला हुआ था। अपनी मधुर चहक से सुप्रभात का संदेश देने वाले सुभागी पक्षी ओलों की मार से मौत के सन्नाटे में विलीन हो गए थे। हर बड़ा छोटा एक दूसरे की ओर उदास सवालिया निगाह से देख रहा था कि अब क्या होगा। सवाल सब के पास था मगर उत्तर किसी के पास नहीं था कि अब क्या होगा। महिलाएं घर के पुरुषों के स्याह हो गए चेहरों की अप्रत्याशित अभूतपूर्व उदासी देखकर घर के बच्चों से छुपकर भीतर की अंधेरी कोठरी में जाकर पल्लू से आँसू पोंछकर बाहर आ जातीं। नई फसल उठने के बाद छोटी मुनिया की नई गुड़िया लेने के, बबलू के नया बस्ता खरीदने के, गृहबाला के विदा होकर ससुराल जाने के, ग्रहलक्ष्मी के नए गहने बनवाने के और गृहस्वामी के बच्चों को दूध के लिए एक गाय खरीदने के सपने पर ओले पड़ गए थे। कई बरस से चू रही छत की मरम्मत इस साल भी नहीं हो पाएगी। बूढ़े बाबा का नया चश्मा बनवाने के इरादे को इस साल भी स्थगित करना पड़ेगा। अभी तो प्रश्न मात्र इतना था कि साल भर इस पेट के लिए रोटी के निवाले कहाँ से आएंगे।
रवीन्द्र कान्त त्यागी