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क्या भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध में एक संभावित मध्यस्थ के तौर पर देखा जा रहा है?

क्या भारत की रूस के प्रति नीति के बारे में पश्चिमी देशों की राय बदल गई है?

क्या भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध में एक संभावित मध्यस्थ के तौर पर देखा जा रहा है?

हालिया भू-राजनैतिक घटनाक्रमों को बारीकी से देखा जाए, तो इस तरह के सवालों का उठ खड़ा होना स्वाभाविक है.

रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से पश्चिमी देश भारत पर लगातार इस बात का दबाव बनाते रहे हैं कि वो रूस से अपनी नज़दीकी को कम करे.

साथ ही पश्चिमी देश भारत पर इस बात को लेकर भी निशाना साधते रहे हैं कि इस युद्ध में जहाँ एक तरफ़ अमेरिका और यूरोप के देश रूस के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी कर रहे हैं, वहीं भारत रूस से सस्ती क़ीमतों पर तेल ख़रीद रहा है.

लेकिन हाल ही में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर की रूस यात्रा के बाद अमेरिका ने जो प्रतिक्रिया दी, उससे ये संकेत ज़रूर मिला कि पहले की तुलना में अमेरिका के भारत के प्रति रुख़ में कुछ नरमी आई है.

अमेरिकी प्रतिक्रिया से इस तर्क को भी बल मिला है कि वो रूस-यूक्रेन युद्ध का हल ढूंढने में भारत की एक अहम भूमिका देख रहा है और इस संभावना को नकार नहीं रहा है कि आने वाले समय में भारत इस संकट में मध्यस्थता कर सकता है.

‘अगर यह मेरे फ़ायदे में है तो मैं इसे जारी रखूंगा.’

रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से ही भारत ने कई मौकों पर अपना पक्ष साफ़ तौर पर रखा है. विदेश मंत्री जयशंकर ने अपनी हालिया रूस यात्रा में उसी पक्ष को फिर एक बार दृढ़ता से रखा.

उन्होंने कहा, “हमारे लिए रूस एक स्थिर और समय की कसौटी पर खरा उतरने वाला भागीदार रहा है. कई दशकों में हमारे संबंधों का कोई भी वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन इस बात की पुष्टि करेगा कि इसने वास्तव में दोनों देशों की बहुत अच्छी सेवा की है.”

अगर इस संबंध ने कई दशकों तक मेरे देश की बहुत अच्छी तरह से सेवा की है, तो मुझे लगता है कि आप उस संबंध को मज़बूत और स्थिर रखने में हमारी स्पष्ट रुचि और प्रतिबद्धता देख सकते हैं.”

उन्होंने कहा, “जहाँ तक तेल आपूर्ति के मुद्दे का संबंध है, ऊर्जा बाज़ारों पर दबाव है. यह एक तनाव है जो कई वजहों से बना है, लेकिन आज दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल और गैस के उपभोक्ता के रूप में, जहाँ आय का स्तर बहुत अधिक नहीं है, यह सुनिश्चित करना हमारा मौलिक दायित्व है कि भारतीय उपभोक्ताओं को अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में सबसे फ़ायदेमंद शर्तों पर तेल मिले.

इस संबंध में हमने देखा है कि भारत-रूस संबंधों ने हमारे फ़ायदे के लिए काम किया है. अगर यह मेरे फ़ायदे के लिए काम करता है, तो मैं इसे जारी रखना चाहता हूँ.”

अमेरिका ने क्या कहा?
भारत के विदेश मंत्री की यात्रा के बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा, “रूस में विदेश मंत्री जयशंकर से हमने जो संदेश सुना वह कुछ मायनों में संयुक्त राष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी से हमने जो सुना, उससे भिन्न नहीं था जब उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि यह युद्ध का युग नहीं है.”

नेड प्राइस ने कहा, ”भारत ने फिर से पुष्टि की है कि वह इस युद्ध के ख़िलाफ़ खड़ा है, वह संवाद देखना चाहता है, वह कूटनीति देखना चाहता है, वह इस अनावश्यक रक्तपात का अंत देखना चाहता है जिसके लिए रूस ज़िम्मेदार है. ”

साथ ही प्राइस ने कहा, “यह महत्वपूर्ण है कि रूसी उस संदेश को दुनिया भर के देशों से सुनें. यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि रूस भारत जैसे देशों से उस संदेश को सुनें जो पड़ोसी हैं, जिनके पास आर्थिक, राजनयिक, सामाजिक और राजनीतिक ताकत है, और यही संदेश विदेश मंत्री जयशंकर ने दिया.”

‘भारत का रूसी तेल खरीदना प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ नहीं’

नेड प्राइस ने कुछ ऐसी बातें भी कहीं, जिनसे ये मतलब निकाला जा सकता है कि आख़िरकार अमेरिका रूस के प्रति भारत के रवैये का सम्मान करने लगा है.

प्राइस ने कहा, “जब रूस की बात आती है, रूस के साथ भारत के संबंध की बात आती है तो हमने लगातार यह बात कही है कि यह एक ऐसा रिश्ता है जो दशकों के दौरान विकसित और मज़बूत हुआ है. शीत युद्ध के दौरान ऐसे समय जब संयुक्त राज्य अमेरिका भारत के लिए एक आर्थिक भागीदार, एक सुरक्षा भागीदार और एक सैन्य भागीदार होने की स्थिति में नहीं था.”

साथ ही उन्होंने कहा कि अमेरिका ने हर क्षेत्र में भारत के साथ अपनी साझेदारी को गहरा करने की कोशिश की है–चाहे वो आर्थिक क्षेत्र हो, या सुरक्षा संबंधों की बात हो या सैन्य सहयोग की बात हो.

एक पत्रकार ने नेड प्राइस से पूछा, “तो आप कह रहे हैं कि कोई भी देश रूस के साथ व्यापार संबंध रख सकता है, उनका तेल ख़रीद सकता है, अपने व्यापारिक संबंधों का विस्तार कर सकता है. लेकिन उन्हें सिर्फ़ यूक्रेन युद्ध पर रूस की निंदा करने की ज़रूरत है?

इसके जवाब में नेड प्राइस ने कहा, “नहीं. साफ़-साफ़ कहा जाए तो हमने रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों से तेल और गैस जैसे ऊर्जा क्षेत्र को जान-बूझ कर छूट दी है. तो तथ्य यह है कि भारत की ऊर्जा की अत्यधिक मांग है, और इसलिए वो रूस से तेल और ऊर्जा के अन्य रूपों की तलाश जारी रखता है. ये ऐसा कुछ नहीं है जो लगाए गए प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ है.”

प्राइस ने ये भी कहा कि अमेरिका ये भी स्पष्ट कर चुका है कि अब रूस के साथ हमेशा की तरह व्यापार करने का समय नहीं है और यह दुनिया भर के देशों पर निर्भर है कि वे रूस के साथ उन आर्थिक संबंधों को कम करने के लिए क्या कर सकते हैं.

उन्होंने ये भी कहा कि भारत समेत ये सभी देशों के हित में है कि वे समय के साथ रूसी ऊर्जा पर अपनी निर्भरता को कम कर लें.

क्या रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत मध्यस्थ बन सकता है?
छह नवंबर को न्यूयॉर्क टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी, जिसका शीर्षक था “क्या भारत यूक्रेन में शांति समझौता करवाने में मदद कर सकता है?”

इस रिपोर्ट में कहा गया कि रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान ऐसे कुछ मौक़े आए, जब भारत ने बिना किसी शोर-शराबे के इस युद्ध से जुड़ी समस्याओं का समाधान निकालने में मदद की.

इसकी वजह से अब राजनयिक और विदेश नीति विशेषज्ञ इस बात पर नज़र बनाए हुए हैं कि क्या भारत रूस पर यूक्रेन में अपने युद्ध को समाप्त करने के लिए दबाव बना सकता है?

न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक़ जुलाई में जब संयुक्त राष्ट्र और तुर्की लाखों पाउंड के सख़्त ज़रूरत वाले उस यूक्रेनी अनाज को मुक्त करवाने की कोशिशें कर रहे थे, जिसका रास्ता रूस रोक रहा था, उस समय भारत ने रूस को समझाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

एनवाईटी की रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि जब रूसी सेनाएँ यूक्रेन में ज़पोरेज़िया परमाणु संयंत्र पर गोलाबारी कर रही थीं, जिसकी वजह से पूरी दुनिया एक परमाणु तबाही के बारे में चिंतित थी, उस वक़्त भारत ने फिर एक बार हस्तक्षेप किया और रूस को पीछे हटने के लिए कहा.

एनवाईटी की रिपोर्ट में कहा कि रूस-यूक्रेन युद्ध में अगर भारत शांति लाने में कामयाब होता है, तो इससे न सिर्फ़ उसका दुनिया में एक प्रमुख स्थान बन सकता है बल्कि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट मिलने के भी क़रीब पहुँच सकता है.

लेकिन मध्यस्थता के मुद्दे पर विदेश मंत्री एस जयशंकर का कहना है कि रूस और यूक्रेन के बीच शांति के लिए भारत को मध्यस्थ के रूप में देखना अभी जल्दबाज़ी होगी.

अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स की लीडरशिप समिट में जयशंकर ने कहा- अभी जो स्थितियाँ हैं, वो काफ़ी अलग हैं. हम आज की स्थितियों का सामना किसी अनुभवों के आधार पर नहीं कर सकते.

जयशंकर ने कहा कि कई देश ये मानते हैं कि ये युद्ध का युग नहीं हैं और यही बात पीएम नरेंद्र मोदी रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ द्विपक्षीय बातचीत में कह चुके हैं.

उन्होंने कहा- मुद्दे युद्ध के मैदान में हल नहीं हो सकते. इसकी आवश्यकता है कि इससे जुड़े पक्ष बातचीत करें, अपनी चिंताओं को व्यक्त करें और इसे सकारात्मक दिशा में ले जाएँ. जयशंकर ने कहा कि इस समय इससे ज़्यादा कुछ सलाह देना उचित नहीं.

लेकिन क्या वाकई भारत रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता कर सकता है?

मीरा शंकर अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत के रूप में कार्यरत रही हैं.

वे कहती हैं, “मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसा होते हुए नहीं देखती. सामान्य तौर पर भारत वार्ताओं की शुरुआत को सुविधाजनक बनाने का प्रयास करेगा. अन्य वार्ताकार भी रहे हैं जिन्होंने मध्यस्थता सेवाओं की पेशकश की है, जिनमें तुर्की सबसे उल्लेखनीय है.”

कँवल सिब्बल भारत के पूर्व विदेश सचिव रह चुके हैं. बीबीसी ने उनसे पूछा कि क्या वे वार्ता के मध्यस्थ या सूत्रधार के रूप में भारत के लिए कोई भूमिका देखते हैं?

उन्होंने कहा, “बिल्कुल नहीं. मध्यस्थ के रूप में तो नहीं. केवल एक चीज है जो भारत ने पहले किया है और फिर से कर सकता है. हम रूस को ग्लोबल साउथ की चिंताओं से अवगत कराने के इच्छुक हैं कि यह संघर्ष समाप्त हो जाना चाहिए.

तो यह न तो मध्यस्थता है और न ही बातचीत को सुविधाजनक बनाना. यह सिर्फ़ संवाद और कूटनीति की वापसी की वकालत करना है जैसा कि हमने संघर्ष शुरू होने के बाद से किया था.”

क्या भारत के प्रति पश्चिम का नज़रिया वाकई बदला है?
हालिया घटनाक्रम से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत ने रूस से अपने संबंधों के प्रति जो निष्ठा दिखाई है, उस पर पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका के रुख़ में नरमी आई है.

कँवल सिब्बल कहते हैं, “ये सही है कि अमेरिका के रुख़ में नरमी दिख रही है, लेकिन दूसरी तरफ़ अमेरिकी ट्रेज़री सेक्रेटरी जेनेट येलेन ने अब यह कहकर पलटवार किया है कि वे रूसी तेल ख़रीद को लेकर भारत पर दबाव नहीं डालेंगे, लेकिन वे भारत से उम्मीद करेंगे कि वो अपने हित में मूल्य-सीमा का निरीक्षण करें और कम क़ीमतों पर तेल प्राप्त करने के लिए रूस के साथ बेहतर सौदेबाज़ी करे.”

सिब्बल कहते हैं कि पश्चिम देश भारत के रुख़ से नाख़ुश है, लेकिन उन्होंने स्थिति को स्वीकार कर लिया है.

वे कहते हैं, “चूँकि भारत को रूस और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना है, इसलिए अमेरिका को भी हिन्द-प्रशांत और क्वाड के संदर्भ में भारत के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना होगा. तो यह एक तरह का नाज़ुक संतुलन है, जो दोनों तरफ़ चल रहा है.”

साथ ही सिब्बल का मानना है कि दुनिया में इस बात की थोड़ी सी मान्यता बनी है कि रूस पर पश्चिमी-यूरोपीय नीति सफल नहीं हो रही है.

वो कहते हैं, “और भारत के साथ मुद्दे पैदा करना और भारत को अलग-थलग करने की प्रक्रिया शुरू करना उनके हित में नहीं है. फिर वे हिन्द-प्रशांत नीति का प्रबंधन कैसे करेंगे? ये एक मान्यता की शुरुआत है कि उन्हें भारत के संबंध में थोड़ा और सावधान रहना होगा.”

वहीं मीरा शंकर का कहना है कि अगर यूक्रेन पर भारत का रुख़ अमेरिका के रुख़ से मेल खाता, तो अमेरिका अधिक सहज होता.

वो कहती हैं, “भू-राजनीतिक वास्तविकता में यह संभव नहीं था, भारत के 60 प्रतिशत रक्षा उपकरण रूसी मूल के होने के कारण मुझे नहीं लगता कि दिल्ली में कोई भी सरकार इस समय रूस को अलग-थलग करने की स्थिति में होती, ख़ासकर उस समय जब हमारे सैनिक चीन के साथ सीमाओं पर तैनात हैं.”

वो कहती हैं कि दिल्ली को भी पता था कि रूस का यूक्रेन पर हमले का एक संदर्भ है और यह अचानक नहीं हुआ.

वो कहती हैं, “दिल्ली ने अमेरिका और पश्चिम में अपने वार्ताकारों को यह बताने का प्रयास किया कि एक निश्चित वास्तविकता है जिसका भारत सामना कर रहा है. अमेरिका में इस बात की अनिच्छा से स्वीकार्यता थी.

उन्होंने महसूस किया कि रूस के साथ भारत के संबंध उस समय से हैं, जब अमेरिका भारत के साथ किसी भी तरह के रक्षा संबंध रखने को तैयार नहीं था. और ऐसा नहीं है कि भारत रूस के साथ अपने संबंध अचानक से तोड़ देगा. मैं कहूँगी कि यह एक ऐसी चीज़ है, जिसे पश्चिम ने स्वीकार किया है- कम से कम अमेरिका में तो स्वीकृति है.”

मीरा शंकर का कहना है कि भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसका रुख़ पश्चिमी विरोधी नहीं है.

वो कहती हैं, “भारत का रुख़ अमेरिका विरोधी रुख़ नहीं है बल्कि यह भारत समर्थक रुख़ है. इन परिस्थितियों में हम ऐसी नीति चुनने का प्रयास करते हैं, जो भारत के हित में सर्वोत्तम हो. हमने यह भी कहा है कि रूस की निंदा करने वाले अधिकांश प्रस्तावों से हमने परहेज़ किया है. हमने संयुक्त राष्ट्र चार्टर का पालन करने और देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान की आवश्यकता पर भी बल दिया है.”

वो कहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए बातचीत की और आग्रह किया है. भारत का रुख बहुत स्पष्ट है.

उन्होंने कहा, “हम सार्वभौमिक मूल्यों का पालन करते हैं. लेकिन हमें लगता है कि संघर्ष और हिंसा के माध्यम से यूक्रेन मुद्दे का कोई समाधान नहीं है और आगे का रास्ता बातचीत के माध्यम से ही निकलेगा. हमें उम्मीद है कि दोनों पक्ष इस बातचीत की शुरुआत करेंगे.”

रूसी तेल ख़रीदने पर भारत का नज़रिया
पश्चिमी देशों की आलोचना के बावजूद भारत सरकार ने रूस से अपनी तेल की ख़रीद का बचाव करते हुए कई बार कहा है कि वो वहीं से तेल ख़रीदेगा, जहाँ से उसे सबसे सस्ता तेल मिलेगा.

हाल ही में सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में भारत के पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने रूसी तेल ख़रीदने के सवाल पर भारत की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि 31 मार्च, 2022 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में भारत में रूसी तेल की ख़रीद मात्र 0.2 प्रतिशत थी.

विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर की बात को दोहराते हुए हरदीप पुरी ने कहा कि भारत अभी भी जितना तेल एक साल की तिमाही में ख़रीदता है, उतना तेल यूरोप एक दोपहर में ख़रीदता है और इसीलिए इस विषय के परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट रखने की ज़रूरत है.

हरदीप पुरी ने ये भी कहा कि रूस भारत को तेल का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता नहीं है.

उन्होंने कहा कि जहाँ कुछ महीने पहले तक रूस ने केवल 0.2 प्रतिशत तेल की आपूर्ति की थी, वहीं पिछले कुछ समय में वो शीर्ष चार या पाँच आपूर्तिकर्ताओं में से एक बन गया है. साथ ही उन्होंने कहा कि पिछले महीने भारत का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता इराक़ था.

पुरी ने ये भी कहा कि भारत का अपने उपभोक्ताओं के प्रति एक नैतिक कर्तव्य है. “हमारी आबादी 1.34 अरब है और हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें ऊर्जा की आपूर्ति की जाए-चाहे वह पेट्रोल, डीजल हो.

जब हरदीप पुरी से पूछा गया कि क्या रूसी तेल खरीदना भारत के लिए एक नैतिक संघर्ष का सवाल नहीं है तो इसके जवाब में पुरी ने कहा, “नहीं, बिल्कुल नहीं. कोई नैतिक संघर्ष नहीं है. ठीक है, हम x या y से नहीं ख़रीदते हैं, हम जो कुछ भी उपलब्ध है उसे ख़रीदते हैं और मैं ख़रीदारी नहीं करता हूँ. यह तेल कंपनियाँ हैं, जो ख़रीदारी करती हैं.

पुरी ने ये भी कहा कि पिछले साल भारत ने अमेरिका से 20 बिलियन डॉलर मूल्य का तेल ख़रीदा, जो ओपेक से भारत की ओर से ख़रीदे गए तेल का लगभग आधा है. “हमें जहाँ से तेल और गैस मिलेगा, हम ख़रीद लेंगे.”

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राघवेंद्र राव
बीबीसी संवाददाता