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ख़ानों में बंटे लोग….

Tajinder Singh
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खानों में बंटे लोग….
हम खानों में बटे हुए लोग अक्सर दूसरों को भी खानों में बांट देखने के अभ्यस्त है। दक्षिणपंथ, वामपंथ, आस्तिक, नास्तिक। हम अपनी सुविधानुसार हरेक पर एक लेबल चस्पा कर देते हैं।

लेकिन क्या किसी खाने में होने की बजाय किसी की अपनी स्वतंत्र विचारधारा नही हो सकती? क्या जरूरी है कि एक आस्तिक/नास्तिक, दक्षिणपंथी/वामपंथी अपने पंथ की विचारधारा से पूरी तरह सहमत ही हो? उसकी सहमति आशिंक भी हो सकती है।

लोग मेरी पोस्टों से मुझे नास्तिक समझते हैं। लेकिन मैं खुद को नास्तिक नही समझता। मैं मानता हूँ कि कोई शक्ति है। और इस विश्व को चलाने के उस शक्ति के अपने नियम कायदे हैं। लेकिन इसमें किसी दखल की कोई गुंजाइश नही। कोई पूजा, पाठ, व्रत, उपवास, हवन, तीर्थ द्वारा इसमें किसी बदलाव की कोई संभावना नही। जैसा कि हमे समझाया जाता है।

मेरी नजर में ऊपर वाला ऐसा नही हो सकता जैसा उसे दिखाया जाता है। इसलिए आस्तिक होने के बावजूद मेरी आस्तिकता आज के सर्वशक्तिमान पर सवाल करने से मुझे नही रोकती। मैं उन उल जलूल कहानियों पर विश्वास नही कर सकता जिन पर आस्था रखनी आस्तिक होने की पहली शर्त है। मेरा आस्तिक होना किन्ही शर्तों, नियमो, बन्धनों में बंध जाना नही। इस लिहाज से मैं प्रगतिशील दक्षिणपंथी हूँ। जो समय के साथ चलना पसंद करता है।

खांटी दक्षिणपंथी चूंकि आस्थावान होते हैं इसलिए कभी सलीके से तर्क करना नही जानते। उन्होंने ये सीखा ही नही होता। आस्था के कारण तर्क नाम का कीड़ा दक्षिणपंथी के दिमाग में पैदा ही होता। इस मामले में आस्तिक नपुंसक होते हैं। सलीके से तर्क करना वामपंथियों का गुण है। चूंकि तर्क करना मेरा स्वभाव है तो इस नाते दक्षिणपंथी होते हुए भी मैं थोड़ा वामपंथी हूँ।

अब प्रगतिशील दक्षिणपंथी होने के नाते मैं जब धर्म और उसके पाखंडों पर सवाल करता हूँ तो लोग मुझे खांटी वामपंथी का सर्टिफिकेट दे देते हैं। वामपंथ सर्वहारा की, साम्यवाद की बात करता है। जो सुनने में बहुत अच्छा लगता है। लेकिन ये एक काल्पनिक अवस्था है। क्योंकि वामपंथ योग्यता को गौण कर देता है। योग्य और अयोग्य यहां दोनों बराबर हैं। वामपंथ बदलाव के लिए क्रांति की बात भी करता है। रक्तपात की बात करता है। लेकिन कोई भी सामाजिक बदलाव रातों रात नही होते। सुधारों की एक शृंखला चलती है। तब कहीं समाज बदलता है। जैसे दक्षिणपंथ में कई सुधारवादी आंदोलन हुए। यहां मैं धीरे धीरे परिवर्तन का पक्षधर हूँ…न कि किसी रक्तपात वाली क्रांति का।

अब अगर मैं खुद को देखूं तो मैं वामपंथ के साम्यवाद का समर्थक हूँ लेकिन आंशिक पूंजीवाद और योग्यता को नकार नही सकता। यानी थोड़ा दक्षिणपंथी भी हूँ। यही हाल मेरी आस्तिकता का भी है। मैं अगर थोड़ा आस्तिक हूँ तो बहुत सारा नास्तिक भी हूँ।

मित्रों, खुद की तरह मुझे भी किसी वाद या खाने में मत रखिये। मैं तो बुद्ध के मध्यमार्ग का समर्थक हूँ। मेरा काम सभी तरह के वादों, खानों में जो बेहतर मिले उसे समेटते हुए चलना है। कोई वाद या पंथ मेरी स्वतंत्र विचारधारा में बाधक नही बन सकता। अपनी इस स्वतंत्र विचारधारा पर मुझे गर्व है।

डिस्क्लेमर : लेखक के अपने निजी विचार और जानकारियां हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है