धर्म

जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय से फ़ैसला करो, सभी मामलों का अंजाम तो ईश्वर ही के हाथ में है!

इस्लामी शिक्षाओं के नुसार मानवाधिकार के संबंध में क़ानून बनाने का अधिकार सिर्फ़ ईश्वर को है। उसने पैग़म्बर और आसमानी किताबें भेज कर मनुष्य के लिए कुछ नियम, सिद्धांत और क़ानून निर्धारित किए हैं।

जिस दिन मनुष्य की रचना की गई उसी दिन से ईश्वर ने उसके सामने आसमानी किताबें रखी हैं ताकि उसके जीवन का मार्गदर्शन हो सके। इन मार्गदर्शक किताबों में मनुष्य को बताया गया है कि वह कहां से आया है, कहां जा रहा है और उसे किस प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीधे मार्ग पर चलना चाहिए। क़ुरआने मजीद, जो अंतिम व सबसे संपूर्ण आसमानी किताब है, वस्तुतः एक अमानत है जो ईश्वर ने इंसानों के बीच रखी है ताकि इसकी शिक्षाओं के पालन द्वारा, सृष्टि का वास्तविक अर्थ सामने आ सके और ब्रह्मांड की रचना की सही समीक्षा हो सके। ईश्वर ने इंसान से वादा किया है कि अगर वह इस मार्गदर्शक किताब और इसकी शिक्षाओं पर आस्था रखते हुए अमल करे तो वह आकाशों और धरती से भी श्रेष्ठ हो जाएगा और अगर उसने इनसे मुंह मोड़ लिया तो फिर बहुत सारे पशु भी उससे श्रेष्ठ हो जाएंगे। क़ुरआने मजीद के सूरए अहज़ाब की 72वीं आयत में कहा गया हैः हमने (कटिबद्धता, दायित्व और ईश्वरीय स्वामित्व की) अमानत को आकाशों, धरती और पर्वतों के समक्ष प्रस्तुत किया लेकिन उन्होंने उसे उठाने से इन्कार कर दिया और उससे डर गए लेकिन मनुष्य ने उसे उठा लिया। निश्चय ही वह बड़ अत्याचारी व अज्ञानी था। (क्योंकि उसने इस स्थान की क़द्र नहीं की और अपने ऊपर अत्याचार किया।)

क़ुरआने मजीद ने वैश्विक परिवार को तीन भागों में बांटा है। इस परिवार के तीन सदस्य इस प्रकार हैं, मुसलमान, ग़ैर मुस्लिम एकेश्वरवादी और ईश्वर का इन्कार करने वाले। वैश्विक परिवार में ये तीनों ही सदस्य मौजूद हैं और क़ुरआने मजीद ने इनमें से हर एक को विशेष संदेश दिया है और हर एक के लिए विशेष अधिकार रखे हैं। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी की घोषणा के साथ ही ईश्वर ने दो सिद्धांत उनके हवाले कर दिए ताकि वे उनके माध्यम से इन सदस्यों के मामलों का संचालन करें। पहले सिद्धांत का उल्लेख सूरए आले इमरान की 64वीं आयत में है जिसमें कहा गया हैः (हे पैग़म्बर!) कह दो कि हे (आसमानी) किताब वालो! उस बात की ओर आओ जो हमारे और तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है। यह कि हम ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना न करें और किसी को उसका समकक्ष न ठहराएं और हम में से कुछ, कुछ दूसरों को ईश्वर के स्थान पर पालनहार न मानें। तो यदि उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार न किया तो (हे मुसलमानो!) कह दो कि गवाह रहो कि हम मुस्लिम और ईश्वर के प्रति समर्पित हैं। इस आयत का एक भाग, सभी एकेश्वरवादियों के बीच संयुक्त सिद्धांत का उल्लेख करता है और दूसरा भाग सभी इंसानों के बीच संयुक्त सिद्धांत का वर्णन करता है। हालांकि विदित रूप से पूरी आयत आसमानी किताब वालों से संबंधित है और एकेश्वरवादियों को संदेश देती है कि वे ईश्वर के अतिरिक्त किसी की उपासना न करें और किसी को उसका समकक्ष न ठहराएं लेकिन वह ईश्वर का इन्कार करने वालों सहित सभी इंसानों को निमंत्रण देती है कि वे अपने बीच से एक या कई लोगों को ईश्वर और रचयिता के रूप में न मानें।

दूसरा सिद्धांत सूरए मुमतहना की आठवीं आयत में बयान हुआ है जिसमें मुसलमानों को भी आदेश दिया गया है कि वे वैश्विक परिवार के बाक़ी दो सदस्यों अर्थात ग़ैर मुस्लिम एकेश्वरवादियों और ईश्वर का इन्कार करने वालों के अधिकारों का सम्मान करें। यहां तक कि काफ़िरों के संबंध में न्याय से काम लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है। आयत कहती हैः ईश्वर तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निःसंदेह ईश्वर न्याय करने वालों को पसन्द करता है।

मूल रूप से इस्लाम का बुनियादी आदेश यह है कि मुसलमान, वैश्विक परिवार के सदस्यों को सम्मान और वफ़ादारी की नज़र से देखें और केवल उनकी ओर से मुंह मोड़ें जिन्होंने उन्हें राजनैतिक व सामाजिक दबाव में डाल रखा है। इसी कारण राजनैतिक रवैये के बारे में भी मुसलमानों को यह आदेश दिया गया है कि वे कभी भी अपने वचन को न तोड़ें और जब तक दूसरा पक्ष अपने वादे का पालन कर रहा है, वे भी अपने वादे का सम्मान करते रहें। सूरए तौबा की 7वीं आयत में कहा गया हैः जब तक वे अपने वादे पर कटिबद्ध रहें तुम भी अपने वादे का पालन करते रहो। सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 83 में कहा गया हैः लोगों से अच्छी बात (और अच्छा व्यवहार) करो। मुसलमानों को, वैश्विक परिवार के सदस्यों के अधिकारों के पालन का निमंत्रण देने वाली क़ुरआने मजीद की एक अन्य आयत जिसका तीन सूरों में तीन पैग़म्बरों की ज़बान से उल्लेख किया गया है, एक अत्यंत मूल्यवान व व्यापक आदेश है। सूरए आराफ़ की 85वीं, सूरए हूद की 85वीं और सूरए शोअरा की 183वीं आयत में कहा गया हैः और लोगों की वस्तुओं में से कुछ कम न करो।

हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम के समय में यह बात प्रचलित हुई और तब से लेकर अब तक हमेशा ईश्वरीय शिक्षाओं में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अलबत्ता हज़रत शुऐब ने अपने सिद्धांत हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के मत से लिए थे और यह मूल बात सभी ईश्वरीय मतों में रही है। इस संदेश को समझने के लिए इसकी व्यापकता को दृष्टि में रखना होगा। यह आयत हर जाति और हर धर्म के सभी लोगों के जीवन के सभी आयामों पर चरितार्थ होती है। बेचने में डंडी मारना, मंहगा बेचना, पढ़ाने, लेखन या अध्ययन में ढिलाई, लोगों की सेवा के मामलों में लापरवाही, फ़ैसला करने में बेध्यानी और इसी प्रकार की सारी बातें, “लोगों को कम देने” की परिधि में आती हैं। उदाहरण स्वरूप जब एक मुसलमान और एक काफ़िर, अदालत में जाते हैं तो न्यायाधीश का फ़र्ज़ है कि वह दोनों के बीच न्याय करने में किसी प्रकार का अंतर न रखे और अगर उसने ऐसा किया तो दूसरे पक्ष के मामले में कमी की है। इसी लिए सूरए निसा की 58वीं आयत में आदेश दिया गया है सिर्फ़ मुसलमानों और आसमानी किताब वालों ही नहीं बल्कि सभी लोगों के संबंध में न्यायपूर्ण फ़ैसला किया जाए। आयत कहती हैः और जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय से फ़ैसला करो।

इस्लाम वैश्विक परिवार के सभी सदस्यों के लिए संदेश रखता है और इस परिवार के तीनों सदस्य इस्लामी संदेश का पात्र हैं। अब संभव है कि कुछ लोग यह सोचें कि संसार के लिए इस्लाम का संदेश केवल मानवता के मोक्षदाता हज़रत इमाम महदी की वैश्विक सरकार के समय से विशेष है। हालांकि यह बात अपने स्थान पर सही है कि इमाम महदी, पूरे संसार का एक सरकार के अंतर्गत नेतृत्व करेंगे लेकिन यह नहीं सोचना चाहिए कि उनके आंखों से ओझल होने के काल में वैश्विक परिवार के लिए इस्लाम का कोई कार्यक्रम और संदेश नहीं है। क्या यह सोचा जा सकता है कि इमाम महदी के प्रकट होने तक, जिसके समय को कोई निर्धारित नहीं कर सकता, संसार अपने हाल पर बाक़ी रहे और इस्लाम उसके संचालन में अक्षम हो? या क्या यह कहा जा सकता है कि संसार के सभी लोगों को मुसलमान हो जाना चाहिए ताकि इस्लाम उन्हें अपनी छत्र छाया में ले ले? निश्चित रूप से इन सवालों का जवाब नकारात्मक है क्योंकि इस्लाम के पास इमाम महदी के प्रकट होने से पहले के समय के लिए भी वैश्विक परिवार के अन्य सदस्यों के लिए संदेश व कार्यक्रम है, चाहे वे ग़ैर मुस्लिम एकेश्वरवादी हों या ईश्वर का इन्कार करने वाले हों।

इंसान, ईश्वर की रचना है और बुद्धि, संकल्प और ज़िम्मेदारी के कारण अन्य सभी जीवों पर उसे श्रेष्ठता प्राप्त है। मूल रचना में सभी इंसान एक समान हैं और वर्ण, लिंगभेद या जाति के आधार पर किसी को भी किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है बल्कि इसका आधार ईमान, ईश्वर का भय, कर्म और प्रयास है। यही कारण है कि ईश्वर ने पैग़म्बरों को इंसान की बुद्धि की सहायता और लोक-परलोक के सभी मामलों में उसके मार्गदर्शन के लिए भेजा है।

इसके अलावा उसने मनुष्य के समक्ष आसमानी किताब भी रखी ताकि वह जीवन में उसकी मार्गदर्शक रहे। क़ुरआने मजीद अंतिम व सबसे संपूर्ण आसमानी किताब है जिसमें न केवल मुसलमानों बल्कि सभी इंसानो। के लिए मानवीय व मानवता प्रेमी संदेश हैं। हमारे काल में सभी ईश्वरीय आदेश बयान हो चुके हैं और मनुष्य के लिए उपलब्ध हैं। इसके बाजवूद स्पष्ट है कि इस समय मुसलमानों के पास इतनी शक्ति नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को पूरे संसार में लागू कर सकें इस लिए आज हर मुसलमान का दायित्व है कि वह ऐसे मार्ग का चयन करे जिस पर चल कर संसार में इस्लामी आदेशों को लागू किया जा सके।

यहां पर एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुसलमानों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए अन्य इंसानों से युद्ध करें जैसा कि आजकल कुछ चरमपंथी तथाकथित इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए कर रहे हैं। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जो मार्ग अपनाना चाहिए वह भलाइयों का आदेश देने और बुराइयों से रोकने का है। यह, वही शैली है जो क़ुरआने मजीद ने मुसलमानों को सिखाई है। सूरए हज की 41वीं आयत में कहा गया है। ये वही लोग हैं जिन्हें हमने जब भी धरती में सत्ता प्रदान की तो वे नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं, भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं और सभी मामलों का अंजाम तो ईश्वर ही के हाथ में है।

अंतिम बात यह कि इस्लाम ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों की रक्षा और औपचारिक सौगंध के पालन पर बहुत अधिक बल दिया है। कुल मिला कर यह कहा जाना चाहिए कि इस्लाम वैश्विक परिवार के सभी सदस्यों का सम्मान करता है और उसने अपने सभी अनुयाइयों को इस बात के लिए कटिबद्ध किया है कि वे इस परिवार के सदस्यों को सही व अच्छी बातों की ओर बुलाएं और इस कार्य में अपनी पूरी क्षमता लगा दें।