सेहत

जब तीस साल पहले भारत में सेलप्पन निर्मला ने जानलेवा एचआईवी एड्स का पहला केस खोजा था : रिपोर्ट

तीस साल पहले भारत में जानलेवा एचआईवी एड्स का पहला केस मिला था, जब छह सेक्स वर्कर्स के ब्लड सैंपल की जांच के दौरान उन्हें पॉज़िटिव पाया गया.

यह मूल रूप से एक युवा वैज्ञानिक के प्रयासों से संभव हो पाया था. लेकिन आज उनके इस काम को भुला दिया गया है.

यह साल 1985 की बात है, चेन्नई (उस वक़्त मद्रास) के एक मेडिकल कॉलेज की 32 साल की माइक्रोबायोलाजी की छात्रा सेलप्पन निर्मला अपने लेख का विषय ढूंढ रही थीं.

उनके शिक्षक और मेंटर सुनिति सोलोमॉन ने पहली बार सेलप्पन निर्मला को एचआईवी एड्स के लिए लोगों की जांच करने की सलाह दी. अमरीका में तो एड्स के मामलों का औपचारिक रूप से पता लगाने की शुरुआत 1982 में हुई थी

भारत में चिकित्सा अधिकारी इस बीमारी की जांच में फंसना नहीं चाह रहे थे. निर्मला याद करते हुए कहती हैं कि उस वक़्त इस तरह के सुझाव को ज़्यादातर नामुमकिन माना जाता था.

उस वक़्त की मीडिया ने एचआईवी को ‘अय्याश’ पश्चिमी देशों की बीमारी बताया था, जहां कथित तौर पर खुले सेक्स और समलैंगिकता का प्रचलन था. दूसरी तरफ भारत के लोग को विपरीत लिंग वालों से संबंध रखने, एक शादी और भगवान से डरने वाले माने जाते थे.

कुछ अख़बार तो अपनी मर्ज़ी से यह भी लिखते थे कि जब तक यह बीमारी भारत पहुंचेगी, तब तक अमरीका इसका इलाज ढूंढ लेगा.

तमिलनाडु में चेन्नई शहर और इसके आसपास के इलाक़े को ख़ास तौर पर रूढ़िवादी समाज माना जाता है. जबकि मुंबई को आमतौर पर स्वच्छंद शहर माना जाता है. उस वक़्त मुंबई शहर से भी सैकड़ों सैंपल इकट्ठे किए गए थे, जिसकी जांच पूना के वायरोलॉजी संस्थान में की गई थी और इनमें से एक भी सैंपल को पॉज़िटिव नहीं पाया गया था.

इसलिए इस बात पर कोई हैरानी नहीं हो सकती कि निर्मला को भी अपनी मेहनत के रिज़ल्ट को लेकर अंदाज़ा था. उनका कहना है, “मैंने डॉक्टर सोलोमॉन से कहा कि मुझे पक्का यकीन है इस जांच के रिज़ल्ट निगेटिव आएंगे.”

हालांकि सोलोमॉन ने अपनी छात्रा को एक बार कोशिश करने के लिए मना लिया.

यह तय किया गया कि निर्मला उन 200 लोगों के ब्लड सैंपल इकट्ठा करेगी जिन्हे एड्स को लेकर ज्यादा खतरा है जैसे सेक्स वर्कर्स, समलैंगिक और अफ्रीकी छात्र. लेकिन यह आसान काम नहीं था. नर्मला ने पहले बैक्टेरिया से होने वाली लेप्टोस्पायरोसिस बीमारी पर काम किया था, जो कुत्ते और चूहे जैसे जानवरों से फैलता है. निर्मला एड्स के बारे में कुछ भी नहीं जानती थीं.

निर्मला के सामने एक और समस्या भी थी. मुंबई, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में काफ़ी चर्चित रेड लाइट इलाक़े थे, लेकिन चेन्नई में सेक्स वर्कर्स का कोई निश्चित पता नहीं था.

इसलिए उन्होंने लगातार मद्रास जनरल हॉस्पिटल जाना शुरू किया, जहां सेक्सुअली ट्रांसमिटेड बीमारियों से पीड़ित कई महिलाओं का इलाज होता था.

वो बताती हैं, “मैंने वहां कुछ सेक्स वर्कर्स से दोस्ती कर ली और फिर उन लोगों ने मुझे कुछ और सेक्स वर्कर्स के बारे में बताया. जब मैंने उनका फ़ॉर्म देखा तो उस पर ‘वी होम’ लिखा था. मैंने इसके बारे में पता किया तो बताया गया कि इसका मतलब विजिलेंस होम होता है. यानी कि जहां वेश्याएं और बेसहारा लोग अधिकारियों की क़ैद में रहते हैं.”

उस वक़्त और आज भी भारत में भीख मांगना अपराध है. उन महिलाओं को फिर से हिरासत में लेकर हवालात में डाला जाना था, क्योंकि उनके पास ज़मानत कराने के लिए पैसे नहीं थे.

इसलिए हर सुबह काम पर जाने से पहले निर्मला एक बार रिमांड होम जाकर सेक्स वर्कर्स से मिलने लगीं.

सेक्स वर्कर्स से लिए सैंपल
निर्मला का पालन पोषण एक छोटे से गांव में एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था. उनकी शादी हो चुकी थी और दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे. वो बताती हैं, “मैं काफ़ी नर्वस महसूस करती थी और तमिल में बात करती थी. मैं एक शांति से भरी ज़िंदगी चाहती थी.”

लेकिन पति वीरप्पन रामामूर्ति ने उनको प्रोत्साहित किया. उन्होंने हर कदम पर निर्मला का साथ दिया. वो अक्सर बस का किराया बचाने के लिए स्कूटी पर निर्मला को रिमांड होम तक छोड़ने जाते थे. उस वक़्त दोनों ने अपना करियर शुरू किया था और उनके पास ज़्यादा पैसे भी नहीं होते थे.

तीन महीने गुज़र जाने के बाद निर्मला ने 80 सैंपल जमा कर लिए. उनके पास कोई दस्ताना नहीं था और न ही सुरक्षा का कोई और सामान. दूसरी तरफ सेक्स वर्कर्स को भी इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि ये जांच किसलिए हो रही है..

निर्मला बताती हैं, “मैंने उन्हें नहीं बताया था कि मैं एड्स की जांच कर रही हूं. वो सभी लोग अनपढ़ थे और अगर मैं बता भी देती, तो उन्हें समझ में नहीं आता कि एड्स क्या है. उन लोगों ने सोचा कि मैं सेक्स से जुड़ी किसी बीमारी की जांच कर रही हूं.”

सोलोमॉन की शादी हृदय और फेफड़े के एक सर्जन से हुई थी. उन्होंने अपने पति और दूसरों की मदद से छोटा सा लैब बनाया था. इसी लैब में वो और निर्मला, सीरम को अलग करने का काम करती थीं. एड्स की जांच के लिए यह एक अहम प्रक्रिया होती है. इन सैंपल्स को सुरक्षित रखने का कोई और ज़रिया नहीं होने की वजह से निर्मला उन्हें अपने घर के फ़्रीज़ में रखती थीं.

चेन्नई में एलिसा टेस्टिंग की कोई सुविधा नहीं होने की वजह से डॉक्टर सोलोमॉन ने सैंपल्स की जांच चेन्नई से 200 किलोमीटर दूर वेल्लोर के क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज में कराने की व्यवस्था की.

निर्मला बताती हैं, “साल 1986 के फ़रवरी में एक दिन मैंने और मेरे पति ने उन नमूनों को आइस बॉक्स में रखा और वहां से रात की ट्रेन लेकर काटपडी रवाना हुए. फिर वहां से हमने ऑटो रिक्शा लिया और सीएमसी पहुंचे”.

वहां के वायरोलॉजी विभाग के निदेशक डॉक्टर जैकब टी जॉन ने दो लोगों पी जॉर्ज बाबू और एरिक सिमॉस को, निर्मला की मदद के लिए लगाया.

कहां से जमा किए गए थे सैंपल?
निर्मला याद करती हैं, “हमने सुबह साढ़े आठ बजे जांच शुरू की. बिजली कट जाने की वजह से दोपहर में टी-ब्रेक लिया. जब हम वापस लौटें तो मैं और जॉर्ज बाबू पहले लैब में पहुंचे.”

वो बताती हैं, “डॉक्टर जॉर्ज बाबू ने लिड को खोला और उसे तुरंत ही बंद कर दिया. उन्होंने चेतावनी दी कि प्ले मत करो. लेकिन मैं उसे देख चुकी थी. उनमें से छह सैंपल पीले हो गए थे. मैं हैरान रह गई, मैंने कभी ऐसा कुछ भी सोचा तक नहीं था.”

एक मिनट बाद ही सिमॉस भी अंदर आए. उन्होंने भी रिज़ल्ट को देखा और कहा, “इनमें से कुछ रिज़ल्ट पॉज़िटिव हैं”. मैं जॉन को बुलाने के लिए भागी, वो दौड़ते हुए कमरे की ओर आ रहे थे.

इस पॉज़िटिव रिज़ल्ट को न मानने का कोई मतलब ही नहीं था, यह तो सभी के चेहरों पर दिख रहा था. जॉन ने निर्मला से पूछा, “आपने ये सैंपल कहां से इकट्ठा किए?”

चेन्नई लौटने से पहले ही निर्मला और उनके पति ने यह बात किसी को नहीं बताने की कसम खा ली. रामामूर्ति कहते हैं, “हमें कहा गया कि यह बहुत ही गंभीर मामला है, इसलिए किसी को न बताएं.”

चेन्नई लौटने के बाद निर्मला सोलोमॉन के दफ़्तर गईं और उन्हें इस ख़बर के बारे में बताया.

उसके फौरन बाद वो सोलोमॉन, बाबू और सिमॉस के साथ विजिलेंस होम गईं. उन लोगों ने उन छह महिलाओं के सैंपल फिर से लिए.

सिमॉस इन सैंपल्स को लेकर अमरीका रवाना हो गए, जहां वेस्टर्न ब्लॉट टेस्ट से यह कन्फ़र्म हो गया कि भारत में एचआईवी वायरस पहुंच चुका है.

यह भयानक ख़बर इंडियन काउंसिल फ़ॉर मेडिकल रिसर्च को दी गई, जिसने उस वक़्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और फिर तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री एचवी हांडे को इसकी जानकारी दी.

जब मई में हांडे ने विधानसभा में इस बुरी ख़बर के बारे में बताया, तो उस वक़्त निर्मला और सोलोमॉन विधानसभा के दर्शक दीर्घा में बैठे हुए थे.

शुरू में तो लोगों ने इस पर कोई यकीन नहीं किया. किसी ने इसकी जांच पर सवाल उठाए, तो किसी ने कहा कि डॉक्टरों से कोई ग़लती हुई है.

परिणाम आने पर मंचा हंगामा
पिछले साल सोलोमॉन की मौत हो गई. लोगों ने ख़ास तौर पर उन्हीं की आलोचना की थी, क्योंकि वो दूसरे राज्य महाराष्ट्र की रहने वाली थीं.

सोलोमॉन के बेटे सुनील कहते हैं, “लोग सच में बहुत भड़के हुए थे. वो कह रहे थे कि एक उत्तर भारतीय महिला हमें बुरा बता रही है. लेकिन इस पर मेरी मां सहित सारे लोग हैरान थे.”

उधर इस तरह के परिणाम के बाद सारे अधिकारियों में पागलों की तरह भगदड़ मच गई. निर्मला कहती हैं, “आईसीएमआर के निदेशक ने मुझे बताया कि यह एक विशाल पहाड़ का एक छोटा सा टुकड़ा है. हमें इस पर जल्दी से काम करना होगा.”

अधिकारियों ने बड़े पैमाने पर जांच और एड्स की रोकथाम के लिए कार्यक्रम शुरू किए. कुछ साल के बाद भारत में एड्स एक महामारी बन गया और देश के हर कोने में तेज़ी से फैलने लगा.

कई साल तक भारत में एसआईवी संक्रमित लोगों की संख्या दुनिया मे सबसे ज़्यादा मानी जाती थी, जो क़रीब 52 लाख बताई जाती थी. लेकिन 2006 में आए नए आंकड़ों में यह संख्या इसकी आधी बताई गई है.

आज भी भारत में 21 लाख से ज़्यादा एचआईवी संक्रमित लोग हैं, जिस जानलेवा बीमारी का कोई इलाज नहीं है.

उधर निर्मला फिर से अपनी पढ़ाई में जुट गईं. उन्हें अपने थेसिस के लिए ज़रूरी 200 में से 100 से ज़्यादा सैंपल अब भी इकट्ठे करने थे.

उसके बाद कुछ हफ़्तों बाद तक वो सेक्स वर्कर्स और क़ैदियों के लिए रिमांड होम जाती रहीं.

मार्च 1987 में उन्होंने अपने लेख ‘सर्विलांस फ़ॉर एड्स इन तमिलनाडु’ जमा किया. उन्होंने अपना इम्तेहान पास किया और चेन्नई के किंग इंस्टिच्यूट ऑफ़ प्रिवेंटीव मेडिसीन में वैक्सीन प्रोडक्शन कार्यक्रम में नौकरी शुरू दी, जहां से वो साल 2010 में रिटायर हुईं.

जब उन्होंने भारत में एचआईवी एड्स की मौजूदगी का पता लगाया था, उसके ठीक 30 साल बाद निर्मला को पूरी तरह से भुला दिया गया है. उस वक़्त मीडिया की कुछ ख़बरों को छोड़ दें तो इतने बड़े काम के लिए उनको कोई पहचान नहीं मिली.

मैंने उनसे पूछा, “क्या कभी आपको एहसास होता है कि आपके इतने बड़े काम की कद्र किसी ने नहीं की?

निर्मला जवाब देती हैं, “मेरा लालन पालन एक गांव में हुआ है. वहां कोई नहीं है जो इस तरह की ख़बर पर उत्साहित हो या निराश हो. मैं ख़ुश हूं कि मुझे समाज के लिए कुछ करने का अवसर मिला.”

================
गीता पांडेय
बीबीसी न्यूज़