साहित्य

जीवन की त्रासदी…..!!! लेखक-तेजेन्द्र सिंह

Tajinder Singh

Lives in Jamshedpur

=================
जीवन की त्रासदी…..!!! संडे स्पेशल
बात 7 साल पहले की है। उस वक्त मैं एक छोटे से टाउन में रहता था। एक दिन सुबह मैं टहलने निकला। सोचा टहलते टहलते रास्ते मे एक मित्र से भी मिलता चलूंगा। इसी रास्ते पर आगे 4 किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन भी था। इस छोटे से टाउन में स्टेशन तक जाने के लिए कोई सवारी उपलब्ध नही थी। इसलिए लोग अक्सर पैदल ही चला करते थे। इलाका भी ग्रामीण था जहां पैदल चलने की सभी को आदत भी थी।
अपनी ही सोच में डूबा, अपनी नई फ़ेसबुक पोस्ट के लिए मसाला सोचते हुए मैं चला जा रहा था। मैंने ध्यान दिया कि एक जवान आदिवासी स्त्री फोन पर बात करती हुई, मेरे करीब से निकलती हुई…. ये जा और वो जा। लग रहा था जैसे उसके पैरों में पंख लगे हों।
किसी स्त्री की चाल भी सचमुच में किसी खूबसूरत कविता के समान होती। जिसमे एक लय, एक गति, एक लोच और होते हैं बेहद सधे हुए उतार चढ़ाव। ऐसे समय स्त्री से पीछे रह जाने में कोई तकलीफ नही होती और कोई नाक भी नही कटती। बल्कि रास्ता कट जाता है और पता भी नही लगता। इस अवसर पर समझदार लोग अक्सर पीछे रहना ही पसंद करते हैं।
पर मैं शायद उतना समझदार नही और ये उस दिन साबित भी हो गया।
ये आदिवासी स्त्री जवान है। अपनी जवानी की ताकत और जोश में अपनी सधी हुई चाल में चल रही है। लेकिन मैं भी कौन सा बूढ़ा हो गया हूँ। अभी 55 वसंत ही तो देखे थे मैंने। 25 वसंत वाली मुझे पीछे कर दे, अभी इतना बूढ़ा भी नही हुआ हूँ? उसकी जवानी को लेकर पहले मन में ईर्ष्या सी हुई लेकिन फिर एक प्रतियोगी भाव जागृत हो गया। दिखाता हूँ इसे कि एक समय पैदल चलने में मेरी फुर्ती के आगे कोई ठहरता ही नही था। मैंने केदार, बद्री, हेमकुंड और अमरनाथ तीर्थों के दर्शन पैदल ही किये हैं । मैंने अपनी गति बढ़ानी शुरू की, इस संकल्प के साथ की इसे पीछे छोड़ देना है। हालांकि तब तक वो काफी दूर जा चुकी थी। लेकिन मैं भी कम जिद्दी ( थोड़ा बेवकूफ भी ) नही था। जब ठान लिया तो पूरा कर के दिखाना है। मैंने अपनी गति बढ़ानी शुरू की।
शनै शनै, अब हमारे बीच की दूरी घट रही थी और मेरा उत्साह बढ़ रहा था। मैं अपने बढ़े हुए उत्साह के साथ अपनी गति और बढ़ा रहा था। मुझसे आगे चल रही जवान स्त्री मेरे इस संकल्प से बेखबर अपनी ही जवानी की उमंग और मस्ती में अभी भी फोन पर बात करती हुई बेहद सधी हुई तेज चाल से बढ़ी चली जा रही थी।
55 और 22 वसंत का ये मुकाबला अब मुझे थोड़ा कठिन प्रतीत होने लगा था। मैंने माना 55 वसंत में जवानों जैसा जोर और शक्ति थोड़ी कम है लेकिन उत्साह और अनुभव तो है। खैर आज का ये युद्ध तो जीतना ही होगा। अपने मन के संकल्प को और मजबूत करते हुए, अपनी गति को अपनी सामर्थ्य से ज्यादा बढाते हुए , मैं भी बढ़ा चला जा रहा था। धीरे धीरे मेरा लक्ष्य मेरे करीब आ रहा था। मुझे अब सामने रेलवे स्टेशन दिखाई पड़ने लगा था। शायद ये स्त्री सुबह की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन जा रही थी।
“निरंतर परिवर्तित होने वाले लक्ष्य को साधना थोड़ा ज्यादा मुश्किल होता है। लेकिन अगर योजना सटीक और लक्ष्य के अनुसार लचीली हो तो सफलता निश्चित है।”
आखिर धीरे धीरे हमारे बीच की दूरी इंच इंच कर घटने लगी और फिर वो समय भी आया जब मेरे कदम उस स्त्री के पीछे नही, उसके साथ पड़ रहे थे। अपने चेहरे पर एक मुस्कान लिए मैंने अपने कदम उसके कदमो से आगे बढ़ा दिए और एक विजयी भाव अपने चेहरे पर चिपकाए मैंने मुड़कर मुस्कुराते हुए उस स्त्री की तरफ एक थैंक यू उछाल दिया।
मेरे मन के भावों से पूरी तरह अनिभिज्ञ , पीछे से जवान दिखने वाली और अब आगे से देखने पर काफी हद तक सुंदर स्त्री की प्रतिक्रिया ने मुझे बिल्कुल भौंचक कर दिया।
क्या उसने मेरे थैंक्यू रूपी बॉल को लपका???
या
किसी सिक्सर की भांति उसे सीमा रेखा के पार भेज दिया???
जानने के लिए…अगली कड़ी…..

Tajinder Singh
============
जीवन की त्रासदी…पार्ट 2
जीत की खुशी और अपनी उखड़ी हुई साँसों को सँभालता हुआ मैं , अब इस छोटे से स्टेशन पर बैठने के लिए जगह तलाश रहा था। एक बेंच पर बैठ मैं सुस्ता ही रहा था कि थोड़ी देर में वही स्त्री आकर उसी बैंच पर बैठ गयी।
“अंकल आप ने थैंक्यू क्यो बोला।”
“अरे वो……मैं…..बस यूं ही।”
दरअसल मैं उसे बताना नही चाह रहा था।
“नही…आपके चेहरे की मुस्कुराहट और थैंक्यू की कुछ तो वजह जरूर होगी।”
“वो क्या है ना कि…..मैंने तुमसे एक रेस लगाई थी।”
“मुझसे…रेस??? कैसी रेस…..और किसलिए…..????”
“नही….वो…..सब तुम्हे कुछ नही मालूम।”
“फिर मैंने उसे सब कुछ बता दिया कि कैसे मैं ताव में आकर तुमसे रेस लगा बैठा और फिर कैसे तुम्हे पछाड़ने के लिए मुझे इस उम्र में इतनी मेहनत करनी पड़ी। देखो अभी भी मेरी उखड़ी हुई सांस वापस नही आई है।” – मैंने कहा
वो हंसने लगी। आदिवासी स्त्रियां वैसे भी बहुत खुले स्वभाव की होती हैं।
“अच्छा अंकल आपने कौन सी ट्रेन पकड़नी है।”
“मैं……मुझे याद आया कि अरे!….मैंने तो कोई …..ट्रेन ही नही पकड़नी। वो….तो…. इसे पछाड़ने के चक्कर मे मैं यहां तक आ गया वरना मुझे तो रास्ते मे पड़ने वाले एक मित्र के घर तक ही जाना था।” – ये बताते हुए मुझे खराब भी लग रहा था।
वो और जोर से हंसने लगी और बोली – “अंकल आप भी गजब हैं। एक बेवजह की रेस के चक्कर मे आप अपना लक्ष्य ही भूल गए।”
मुझे और खराब लगने लगा और थोड़ी शर्मिंदगी सी भी होने लगी कि कैसी है ये रेस , जिसमे जिससे रेस लगी उसे कुछ मालूम ही नही। और ऐसी बेमतलब की रेस को जीतने के चक्कर मे मैं अपने रास्ते से भी भटक गया।
मेरी सूरत देखकर हंसते हंसते वो बोली – “अंकल दरअसल इसमें आप का दोष नही। हम सब ऐसे ही हैं। ज़िन्दगी में बिना वजह, बिना दूसरे की जानकारी में आये हम उससे प्रतियोगिता करने लगते हैं।
केवल कुछ मामलों में ही ऐसी प्रतियोगिताओं से हमारा मानसिक विकास होता है। लेकिन अक्सर तो हम भौतिक सुविधाओं को लेकर ही ऐसी रेस लगाते हैं। हमारी जरूरतें क्या हैं , हमे क्या चाहिए को छोड़ कर। अगले के पास क्या है….हमे उससे बेहतर चाहिए। इसे हम सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखने लगते हैं। और अपने जीवन के कीमती वर्ष ऐसी ही रेसों के चक्कर मे व्यर्थ कर डालते हैं।
फिर उसने मुझे एक कहानी सुनाई कि एक स्त्री किसी शादी के आयोजन में जाने के लिए अपनी पड़ोसन से उसका कीमती हार मांग कर ले जाती है। दुर्भाग्यवश शादी में उसका हार चोरी हो जाता है। शर्म और बदनामी से बचने के लिए उधार लेकर वो हूबहू वैसा ही हार उसे खरीद कर दे देती है।
आखिर अपनी सभी इच्छाओं को मार कर अपनी जिंदगी के 20 वर्ष वो पाई पाई जोड़ कर उस उधार को चुकाने में लगा देती है। 20 वर्ष बाद एक दिन जब वही स्त्री उसे मिलती है तो वो उसे हकीकत बताती है कि कैसे जब उसका वाला हार चोरी हो गया तो उसने वैसा ही एक हार इतने रुपयों में खरीद कर उसे दे दिया। जिसे वो आज तक पहचान नही पाई।
तब वो हार वाली स्त्री कहती है कि “बहन ठीक कहती हो, वो तो एक नकली हार था। इसलिए मैंने उसे कभी पहचानने की जरूरत ही नही समझी। लेकिन नकल और असल को ना पहचानने के कारण तुमने अपने जीवन के 20 वर्ष जरूर तबाह कर लिए।”
कहानी खत्म होते होते ट्रेन भी आ पहुंची थी। वो आदिवासी स्त्री तो चली गयी लेकिन पीछे छोड़ गई मुझे।
नकल, असल और ज़िन्दगी में लगाई गई बेवजह की रेसों का हिसाब करने के लिए।