साहित्य

#जो_भी_प्यार_से_मिला_हम_उसी_के_हो_लिए….

मनस्वी अपर्णा
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#जो_भी_प्यार_से_मिला_हम_उसी_के_हो_लिए
मेरी एक दोस्त है, दिल की साफ़, ज़ुबान की भी साफ़ जो जी में आता है बोल देती है और जैसे जी में आता जीती है…. इन आदतों से अक्सर मुसीबतों से घिरी रहती है…जिसको अपना मान लिया उसके लिए दिल निकाल कर रख देना उसकी आदत है….अपनी समझ और तजरिबे के मुताबिक़ हर हद तक जाकर रिश्ते निभाती है…..लेकिन लौटती है हमेशा टूटा हुआ दिल, उजड़ी हुई उम्मीदें और बेहिसाब मायूसी लेकर… ज़ार ज़ार रोती है, बिलखती है, कलपती है…. हर मुमकिन कोशिश करती है कि टूटा दिल कहीं न कहीं संभल जाए, लेकिन बीमारी का इलाज सुरीले नग़में गाने से न हुआ न होगा…उसको लेकर कई लोगों के कई ख़याल है , मुंहफट, जल्दबाज़, बदतमीज और भी बहुत कुछ…… बाहरी तौर कोई उससे मिले तो यही पाएगा भी लेकिन मैं उसके भीतर झांक पाती हूं और वहां मुझे एक तन्हा, अपनेपन, और मुहब्बत को तरसती औरत नज़र आती है जो अपने पास मौजूद हर चीज़ लुटा देने को आमादा होती है बस इन चीज़ों की चाहत में।

उससे लोग जुड़ते हैं, दोस्तियां और सोहबतें भी करते हैं, प्यार मुहब्बत के दावे भी करते हैं लेकिन जब भी वो अपना हक़ मांगने लगती है सब पिछली गली से खिसकने लगते हैं… उन्हें घर–परिवार, इज़्ज़त, दुनियादारी सब की यकजा आने लगती है… वो छटपटाती है, लड़ती है, भिड़ती है, बिफरती है लेकिन सब बेनतीजा होता है, क्यूंकि जो लोग उससे जुड़ते हैं उन्हें उससे तो सब चाहिए होता है..? उसकी मुहब्बत, उसका वक़्त, उस पर हक़ सब… लेकिन जब देने की बारी आती है तो सारे हद दर्जे के भिखारी और मजबूर हो जाते हैं… मुझे उन लोगों से ज़्यादा जलील कोई नहीं लगता….. किसी को कुछ भी लगता हो लेकिन मुझे मेरी दोस्त के हाल पर ममता उमड़ती है, मैं उसकी असली ज़रूरत को समझती हूं…. उसे प्यार की दरकार है, किसी साथी की दरकार है, अपनेपन की दरकार है और यह कोई गैर वाजिब मांगें नहीं हैं ये हर इंसान की ज़रूरत है, इंसान क्या जानवर भी प्यार और अपनेपन की दरकार रखते हैं।

ऐसे लोग जो प्यार के दो बोलों पर बिक जाया करते हैं, सच्चे लोग होते हैं, ज़ुबान और मिजाज़ से चाहे जैसे भी हो दिल नेक होता है…. और ज़ुबान और मिजाज़ के बुरे होने की वाजिब वजहें होती हैं, कोई इंसान जो प्यार के नाम पर लगातार धोखा खा रहा हो, जलालत झेल रहा हो, बदनामियों से वाबस्ता हो रहा हो उससे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसमें ज़रा भी कड़ुआहट न आए, उसका ज़हन बीमार न हो, उसकी ज़ुबान आग न उगले… ये सब तो होगा ही।


बहरहाल मैं तो बस इतना चाहती हूं कि जो लोग किसी को प्यार, साथ, तसल्ली, सहारा और हिम्मत दे नहीं सकते उन्हें कोई हक़ नहीं है कि वो अपनी जरूरतों और अपने दिल की खुशी के लिए किसी अहसासत से खेलें…. किसी ज़ख्मी दिल को आप मरहम न दें सकें कोई बात नहीं लेकिन आपको कोई हक़ नहीं कि आप उसे थोड़ा और कुरेद जाएं …. थोड़ी तो इंसानियत रखनी चाहिए, कहते हैं टूटे हुए दिलों की आह में बड़ा असर होता है… बेहतर है कि हम अपने लिए आहें न इकट्ठा करें.. किसी रिश्ते को निबाहना अगर आपके बस का नहीं… अगर आप बंधे हैं मजबूर हैं…. दुनियादारी की बेड़ियां आपके पांव में बंधी हैं तो अपनी दुनिया में रहिए…. अपने खुलूस, इज़्जतो एहतराम में रहिए पर ज़रा सी दिल्लगी के लिए किसी की दुनिया मत उजाड़िए , जो उम्मीद आप पूरी कर ही नहीं सकते उसको मत बंधाइये, इतना सा करके भी आप किसी ज़ख्मी टूटे दिल पर बहुत अहसान कर सकते हैं..मुहब्बत बड़ी अज़ीम ज़िम्मेदारी होती है.. काश इसे हम समझ पाएं।
ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।