दाग़ अलीगढ़ी
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आह में बदलती हैं सिसकियाँ भी खुलती हैं।।
देखना दिसम्बर में सर्दियाँ भी खुलती हैं।।
रफ़्ता रफ़्ता बनता है इश्क़ कीमती मोती,
चाहतों की चोटों से सीपियाँ भी खुलती हैं।।
जब सियासी रक़्क़सा हुक़्म दे तो क़दमों में,
तख्तों-ताज गिरते हैं पगड़ियाँ भी खुलती हैं।।
राज़ भी बहुत दिन तक राज़ रह नहीं सकता,
थोड़ा वक्त लगता हैं चोरियाँ भी खुलती हैं।।
आजकल मुहब्बत में जाने क्या क्या होता है?
पायलें उतरती हैं बालियाँ भी खुलती हैं।।
हुस्न को समझने में वक़्त का तकाज़ा क्या?
हो अगर हुनर तो फिर लड़कियाँ भी खुलती हैं।।
– दाग़ अलीगढ़ी
#daaghaligarhi
दाग़ अलीगढ़ी
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कुछ इस हद तक पसीना चल रहा है।
दिसम्बर में भी पंखा चल रहा है ।।
नहीं सुनता है बेटा बाप की अब,
मियां माहौल ऐसा चल रहा है।।
तुम्हारे शहर का कोई मिले तो,
उसे पूछें, वहाँ क्या चल रहा है?
ख़रे सोने पे तह है गर्द की अब,
जो खोटा है वो सिक्का चल रहा है।।
ज़रा सा मर्ज़ बिगड़े, गिर पड़ेगा,
दवाओं से ये ढाँचा चल रहा है।।
लगे हैं फूलने फलने कमीने,
यहां चटनी का टोटा चल रहा है।।
तवायफ़ हो गयी है अब सियासत,
हरिक नुक्कड़ प मुजरा चल रहा है।।
-दाग़ अलीगढ़ी
दाग़ अलीगढ़ी
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एक ताज़ा ग़ज़ल के चंद अश’आर……(Ghazal)
ठिकाने ग़म भी मिरा अब मिरे सिवाय लगे।।
मैं चाहता भी यही हूँ कि तेरी हाय लगे।।
Thikane Gam Bhi Mera Ab Mere Sivay Lage.
Main Chahta Bhi Yahi Hu’n Ki Teri Haay Lage.