साहित्य

ठिकाने ग़म भी मिरा अब मिरे सिवाय लगे।। मैं चाहता भी यही हूँ कि तेरी हाय लगे।। – दाग़ अलीगढ़ी की चंद ग़ज़लें पढ़िये!

दाग़ अलीगढ़ी
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आह में बदलती हैं सिसकियाँ भी खुलती हैं।।
देखना दिसम्बर में सर्दियाँ भी खुलती हैं।।
रफ़्ता रफ़्ता बनता है इश्क़ कीमती मोती,
चाहतों की चोटों से सीपियाँ भी खुलती हैं।।
जब सियासी रक़्क़सा हुक़्म दे तो क़दमों में,
तख्तों-ताज गिरते हैं पगड़ियाँ भी खुलती हैं।।
राज़ भी बहुत दिन तक राज़ रह नहीं सकता,
थोड़ा वक्त लगता हैं चोरियाँ भी खुलती हैं।।
आजकल मुहब्बत में जाने क्या क्या होता है?
पायलें उतरती हैं बालियाँ भी खुलती हैं।।
हुस्न को समझने में वक़्त का तकाज़ा क्या?
हो अगर हुनर तो फिर लड़कियाँ भी खुलती हैं।।
– दाग़ अलीगढ़ी
#daaghaligarhi

दाग़ अलीगढ़ी
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कुछ इस हद तक पसीना चल रहा है।
दिसम्बर में भी पंखा चल रहा है ।।
नहीं सुनता है बेटा बाप की अब,
मियां माहौल ऐसा चल रहा है।।
तुम्हारे शहर का कोई मिले तो,
उसे पूछें, वहाँ क्या चल रहा है?
ख़रे सोने पे तह है गर्द की अब,
जो खोटा है वो सिक्का चल रहा है।।
ज़रा सा मर्ज़ बिगड़े, गिर पड़ेगा,
दवाओं से ये ढाँचा चल रहा है।।
लगे हैं फूलने फलने कमीने,
यहां चटनी का टोटा चल रहा है।।
तवायफ़ हो गयी है अब सियासत,
हरिक नुक्कड़ प मुजरा चल रहा है।।
-दाग़ अलीगढ़ी

दाग़ अलीगढ़ी
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एक ताज़ा ग़ज़ल के चंद अश’आर……(Ghazal)

ठिकाने ग़म भी मिरा अब मिरे सिवाय लगे।।
मैं चाहता भी यही हूँ कि तेरी हाय लगे।।

Thikane Gam Bhi Mera Ab Mere Sivay Lage.
Main Chahta Bhi Yahi Hu’n Ki Teri Haay Lage.

न नींद है,न सुकूँ है, न जी लगाय, लगे।
ख़ुदाया सारा जहां मुझको इक सराय लगे।।
Na Neend Hai, Na suku’n, Na Jee lagay Lage.
Khudaya Sara Jahan Mujhko Ik Saraay Lage.

क़ुबूल वो भी मुझे है भला तेरी ख़ातिर,
तुझे जो अच्छा कोई भी मिरे बजाय लगे।।
Qubool Vo Bhi Mujhe Hai Bhalaa Teri Khaatir,
Tujhe Jo Achchha Koi Bhi Mere Bajay Lage.

मैं मानता हूं फ़क़त अपने दिल-दिमाग़ की बात,
किसी भी शख़्स की जाइज़ न मुझको राय लगे।।
Main Manta Hu’n Faqat Apne Dil-Dimaagh Ki baat,
Kisi Bhi shakhs ki jaa’ez Na Mujhko Raay Lage.

ठिठुरती रात, हवा सर्द, आख़िरी मिसरा,
तलब है हाथ मिरे और एक चाय लगे।।
Thithurti Raat, Hawaa Sard, Aakhiri Misra,
Talab Hai Haath Mere Aur Ek Chaay Lage.
-दाग़ अलीगढ़ी (#Daaghaligarhi)

Daagh Aligarhi
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फुंके हर बज़्म में, कैसी हवस है?
ग़ज़लगोई है या सूखा चरस है?
जिसे औरत समझता है ज़माना,
ज़माने भर की वो तार-ए-नफ़स है।।
पड़ी है पाँव में जंज़ीर सच के
ये इक मुद्दत से बस क़ैदे-क़फ़स है।।
जो क़ातिल है हमारा मुल्क़ भर में,
वही अब शाह है वो ही असस है।।
उजड़ कर खाक़ हो जाना है सबको,
बदन कोई भी हो बस ख़ार-ओ-ख़स है।।
ख़ुदा का शुक्र है, ज़िंदा हैं कुछ लोग,
सुख़न पर जिनको अब भी दस्तरस है।।
अज़ल से है हमारा इश्क़ उस से,
अज़ल से दिल मुआ सज़दा-नफ़स है।।
मिलेंगे दाग़ दुनिया से यक़ीनन,
मुहब्बत है तो फिर क्या पेश-ओ-पस है?
#daaghaligarhi
-दाग़ अलीगढ़ी