साहित्य

“ड्रामा लंबा चौड़ा हुआ पर ठेका अंततः बादशाह के छोटे भाई और दामाद को ही मिला”

चित्र गुप्त
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बादशाह_वजीर_और_सियार (जनश्रुति)
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सुना है … शाम ढलते ही जब सियारों ने हुक्का हुवाँ शुरू किया तो बादशाह ने वजीर से पूछा –
” सियार क्यों चिल्ला रहे हैं।”

वजीर भी स्वतंत्र भारत के नौकरशाह टाइप ही था उसने तपाक से उत्तर दिया।

“हुजूर इन्हें ठंड लग रही है इसलिए चिल्ला रहे हैं।”

बादशाह को ये सुनकर बड़ा दुःख हुआ। सत्ता अक्सर जनता के दुखों में दुखी हो ही जाती है। फिर जनहित की योजनाएं बनती हैं। धनों का आवंटन होता है। यहाँ भी वही हुआ। रातों रात धन का आवंटन हुआ। सियारों को कंबल बांटने के लिए संविदाएं मंगाई गई। ठेका उठा… ड्रामा लंबा चौड़ा हुआ पर ठेका अंततः बादशाह के छोटे भाई और दामाद को ही मिला। मंत्री जी को प्रतिवाद के लिए उनका हिस्सा पहले ही दे दिया गया। रानी के लिए हार और राजा के लिए मुकुट की भी ब्यवस्था की गई। बचा खुचा धन ठेकेदारों ने हड़प लिया।

सियारों ने तो फिर चिल्लाना ही था वे फिर चिल्लाये। पर बादशाह रोज़ रोज़ उनकी सुने ये कोई जरूरी तो है नहीं…। आखिर वो वी आई पी है।

दो चार दिन बाद एक शाम बादशाह फिर बैठे थे तो उन्होंने सुना कि सियार फिर चिल्ला रहे हैं। वैसे भी सिंहासनों तक जनता की आवाज कभी कभी ही पहुंचती है। यहाँ भी पहुंची तो उन्होंने वजीर को तलब किया। “कि जब सियारों को कंबल बांटने के लिए धन का आवंटन कर दिया गया तो अब सियार क्यों चिल्ला रहे हैं।”

वजीर इससे पहले भी कई जांच आयोगों में प्रमुख रह चुका था। उसे बादशाह के मूड का पूरा अंदाजा था। उसने तपाक से उत्तर दिया। “हुजूर आपने इन्हें कंबल बंटवाया था न इसीलिए खुशी में अब ये आपको आशीर्वाद दे रहे हैं।”

वो जो परंपरा किसी काल्पनिक बादशाह ने शुरू किया था। वो अब तक कायम है। सियारों को कंबल अब भी बांटे जा रहे हैं और वो अब भी बादशाह को दुआ देने के लिए रात रात भर हुक्का हुवाँ चिल्लाते रहते हैं।
#चित्रगुप्त