साहित्य

तभी उनकी निगाह बराबर में बैंच पर बैठी महिला की ओर गई और….

Ravindra Kant Tyagi
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————— बिछोह ———
लन्दन के सेंट्रल पार्क का मौसम ऐसा ही था जैसा अकसर होता है. धुंध के गोले से हर तरफ तैर रहे थे. कंपकंपा देने वाली ठण्ड ने चारों तरफ एक सन्नाटा सा पसरा रखा था. फिर भी इक्का दुक्का लोग गर्म कपडे कसकर लपेटे हुए टहल रहे थे.

एक बैंच पर एक वृद्ध महिला भारतीय शैली में सर के ऊपर से गुजरती हुई शाल लपेटे हुए चुप चाप शून्य में देख रही थी या न जाने अपने अतीत में विचरण कर रही थी. उसकी सर पर ढकी काली चादर के आगे उसके झक सफ़ेद बाल उम्र की चुगली न करते तो कोई महिला की उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता था. कसा हुआ सा गोरा चेहरा और गहरी काली आँखें. अपने जमाने में उसका रूप सौंदर्य देख कर लोग रास्ता भटक जाते होंगे.

बराबर की बेंच पर एक गहरे काले रंगे बालों वाले प्रौढ़ से गौर वर्ण भारतीय बैठे थे. उन्होने एक शानदार ओवरकोट पहन रखा था और आँखों पर टिंटिड ग्लास वाला स्टाइलिश चशमा लगा रखा था. सर पर आँखों तक झुका हुआ कैप लगाकर और कानों में ईयरफोन लगाकर कोई संगीत सुनते हुए इधर उधर नजारों का आनंद सा ले रहे थे.

तभी उनकी निगाह बराबर में बैंच पर बैठी महिला की ओर गई और स्थिर सी हो गई. वे नजरें घूमाकर बार बार उनकी तरफ देखते और फिर शिष्टाचार वश नजरें फेर लेते। न जाने महिला क्या सोचेगी. महिला ने कनखियों से देख लिया था कि कोई अजनबी उसे घूर रहा है, किन्तु सामान्य बनकर बैठी रही. अब इस उम्र में क्या सोचना.


कई मिनट सज्जन बार बार महिला को पेशानी पर सलवट डाले कुछ सोचते हुए से देखते रहे. फिर उन से रुका नहीं गया। वे अपनी जगह से उठे. महिला के पास गए और धीरे से खाली जगह की और इशारा करके बोला.

” हेलो मैम, में आई …….
” जी? महिला ने संकोच से प्रश्नवाचक निगाहों से देखा.

” क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ? “

महिला कुछ बिना बोले एक और सिमट सी गई और दूसरी और देखने लगी. इतनी बैंच खाली पड़ी है मगर … भारत में तो इसे अशिष्टता ही माना जाता किन्तु ये लंदन है। यहाँ के लोग किसी महिला से दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए संकोच नहीं करते।
पुरुष अब भी उसकी और गौर से देख रहे थे. फिर उसने धीरे से कहा “तुस्सी इण्डिया में कहाँ से हो जी”.
“अंबरसर” छोटा सा जवाब. मगर इस बार महिला ने भी पुरुष की और उत्सुकता से देखा.
” तुस्सी … नई … ए नी हो सकदा … आ …. तुस्सी स्वीटी हो …. मेरा मतलब … जसप्रीत कौर रंधावा।

महिला ने एक झटके से अपना चेहरा पुरुष की और घुमाया. बड़ी बड़ी आँखों से उसे देखती रही … देखती रही. फिर उसकी आँखों में एक लालिमा सी तैर गई. फिर अचानक नमी की एक परत आँखों के कोने में आकर सिमट गई. निःशब्द निसंकोच लगातार वो उस पुरुष को देख रही थी. फिर धीरे से उसके मुँह से निकला “रज्जी ……. रजिंदर सिहां ……. ओये तू …. आ ..आ आप तो सिख थे ना. और यहाँ … लंदन में?”

रजिन्दर के शरीर में एक सनसनी सी दौड़ गई. उनके हाथ बेकाबू होकर महिला के कंधे तक पहुँच जाना चाहते थे और बरसों पहले मुहब्बत को अधूरा छोड़कर चली गई अपनी प्रेयसी को बाहों में समेट लेने के लिए उतावले हो उठे थे किन्तु … किन्तु उन्होने बैंच के हत्थे को कस कर पकड़ लिया और अपनी उमड़ती हुए भावनाओं पर भरसक काबू करते हुए धीरे से कहा “बड़ा वक्त गुजर गया स्वीटी जी. हजारों साल गुजर गए जैसे. सब बदल गया चौरासी के बाद. मैं राजिंदर सिंहा बेदी केश कटाकर आर.के.बेदी बन गया और तू … तुम यहाँ लन्दन में?”

” सरदार साब के जाने के बाद … यहाँ आ गई … पुत्तर के पास. ओये सब बदल गया पर तेरी आवाज नहीं बदली रज्जी” इस बार वो हलके से मुस्कराई थी. वही मुस्कान जो बरसों पहले से रजिन्दर सिंह के दिल पर अंकित थी.

“तेरे बच्चे कहाँ हैं रज़्जी. तेरी मेम साब भी यहीं रहती है लंदन में?” पिंकी ने मुसकराकर कहा.
रज़्जी ने एक लंबी सांस ली और चुप हो गया. स्वीटी ने दोबारा पूछा. “कौन कौन है तेरे घर में. कहाँ रहते है रज़्जी?”

“ओए … कोई तेरे जैसी कोई मिली ही नहीं स्वीटी। बस न जाने मंद मुट्ठी की रेत की तरह कब गुजर गई जिंदगी।
पिंकी ने अत्यंत आश्चर्य से उसे देखा। फिर उसकी आँखों में एक नमी सी तैर गई. कुछ देर दोनों के बीच मौन बैठा रहा। फिर रज़्जी ने धीरे से कहा
“एक बार … एक बार तेरा हाथ छू लूँ स्वीटी बस एक बार …

“अब इस उम्र में रज़्जी ……
और रज़्जी ने बिना उत्तर सुने ही स्वीटी का हाथ अपनी दोनों हथेलियों में दबा लिया और आँखें बंद कर लीं. एक पल में उसका मस्तिष्क चालीस साल पुरानी यादों में खो गया था. उसे लगा कि … कि वो एक बीस साल का मुंडा है और बालों में सफ़ेद रंग की जूड़ी बांधकर साइकिल पर स्वीटी के घर के चक्कर लगा रहा है. फिर पार्कों में मिलना। एक दिन मौका मिलते ही स्वीटी के गालों को चूम लेना. स्वीटी का शरमाकर हाथ छुड़ाकर भाग जाना. कसमें वादे. घर छोड़कर भाग जाने के इरादे. फिर … ओह. फिर एक दिन रंगे हाथों पकड़े जाना. दोनों परिवारों में बंदूकें और किर्पाण उठ जाना. फिर एक दिन पिंकी की डोली रजिन्दर सिंह के दिल को कुचलते हुए गुजर गई थी. जाने कहाँ गए वो दिन. वो शहर. वो उम्र.
तभी एक अपटूडेट सा सिख नौजवान तेजी से धुंध में आँखें झपकता सा ढूंडता हुआ उधर आया और चिल्लाकर बोला “ओये बेबे जी, किदर हो. ठण्ड वध गई है. कबतक ऐसे पार्क में बैठी रहोगे. सारे बन्दे डिनर पर इंतज़ार कर रहे है। गोल्लू तो आप के बिना टुकड़ा नी तोड़ेगा.”
वृद्धा बिना कुछ बोले धीरे से उठी. एक भरपूर निगाह से पुरुष की और देखा और धुंध में खो गई.
रवीन्द्र कांत