साहित्य

तुम इक बार हमसे मरासिम तो जोड़ो…शकील सिकंद्राबादी की दो ग़ज़लें एक साथ पढ़िये!

Shakeel Sikandrabadi
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ग़ज़ल
असर मुझ पे होता नहीं है बला का
करिश्मा है ये मेरी माँ की दुआ का
किया अज़्म का जब दिया मैंने रौशन
इधर से उधर फिर गया रुख़ हवा का
मेरे मौला उनको हिदायत अता कर
चलन छोड़ बैठीं जो शरमो हया का
तू गाता है जिस शौक़ से फिल्मी नग़मे
कभी ज़िक्र भी कर लिया कर ख़ुदा का
यक़ीनन मिले गी तुझे कामरानी
तू दामन पकड़ ले अगर औलिया का
तुम इक बार हमसे मरासिम तो जोड़ो
न उतरे गा नश्शा हमारी वफा का
बरी कर दिया है अदालत न उसको
हक़ीक़त में जो मुसतहिक़ था सज़ा का
कोई मौत की लाख धमकी दे लेकिन
सबक़ हम पढ़ाते रहेंगे वफा का
शकील अपने दमपर तलाश अपनी मंज़िल
भरोसा न कर तू किसी रहनुमा का
शकील सिकंद्राबादी

Shakeel Sikandrabadi
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ग़ज़ल
हम तो उनसे बड़ी ख़ुशी से मिले
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
जैसे कोई इक अजनबी से मिले
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
रंज ये मुझको खाए जाता है
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
क्या सुनाता मैं हाले दिल उनको
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
सोचता हूँ तो रोने लगता हूँ
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
इत्तिफाक़न नसीब से कल शब
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
मुझको इस बात का है रंज बहुत
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
ऐक मुद्दत के बाद में हम से
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
मुंतज़िर था शकील मैं जिन का
वो मिले भी तो बे रुख़ी से मिले
शकील सिकंद्राबादी