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देव आनंद सुरैया को ‘नोज़ी’ कहते थे?

Avdhesh Raghuwanshi ·
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आप भी पढ़िए। पढ़िए।
बेहतरीन लेखन द्वारा सुशोभित जी
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देव आनंद सुरैया को ‘नोज़ी’ कहते थे, क्योंकि उनकी नाक उन्हें बहुत ख़ूबसूरत लगती थी। वहीं सुरैया देव को ‘स्टीव’ कहती थीं, क्योंकि देव ने उन्हें एक नॉवल दिया था, जिसमें स्टीव नाम का किरदार था। सुरैया को लगता था देव बिलकुल स्टीव जैसे थे।

1948 में जब सुरैया अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थीं, तब जीत प्रोडक्शंस की फिल्म ‘विद्या’ में गुमनाम-से देव आनंद को उनके हीरो के रूप में साइन किया गया। तब तक देव की तीन ही फिल्में आई थीं और तीनों ही नाकाम रही थीं। सुरैया सेट पर आईं। सब उठ खड़े हुए। “सुरैया जी, सुरैया जी” करने लगे, जबकि तब वो महज़ 19 साल की थीं। लेकिन देव अपनी कुर्सी पर बैठे रहे और सुरैया को टकटकी बाँधकर देखते रहे। उस नज़र ने ‘मल्लिका-ए-हुस्न’ के खिताब से नवाज़ी गईं इस सुपरस्टार को बेध दिया। उन्होंने डायरेक्टर से जाकर कहा, “ये कौन नौजवान वहाँ बैठा है?” डायरेक्टर ने कहा, “ये आपका हीरो है, गुरदासपुर से आया है, नाम है देव आनंद!”

मरीन ड्राइव पर जहाँ सुरैया का घर था, वहाँ उनकी एक झलक देखने को प्रशंसकों का ताँता लगा रहता था। इंडस्ट्री के तमाम लोग उन्हें घेरे रहते थे। पर उनके दिल में बस गई थी उस नौजवान की नज़र, जिसने कुर्सी से उठकर उनका अभिवादन करने की ज़ेहमत नहीं उठाई थी। वो शरीफ़ था, फ़रिश्तों जैसा ख़ूबसूरत, पढ़ा-लिखा, ज़हीन। उसमें सुरैया के पसंदीदा अभिनेता ग्रेगरी पेक की झलक थी। वो सबसे अलग था। टीनएजर सुरैया का दिल 24 साल के उस युवा पर आ गया।


वे सेट्स और लोकेशंस पर ही मिलते थे। बाज़ दफ़े जब मौक़ा मिलता, तब सुरैया के घर पर- कृष्णा महल, मरीन ड्राइव- जहाँ वे ताउम्र रहीं। तब सुरैया के पास तीन गाड़ियाँ थीं, देव के पास एक भी नहीं। वे लोकल ट्रेन में सफ़र करते थे। चर्चगेट उतरते। वहाँ से पैदल ही सुरैया के घर चले जाते। युवा प्रेमी देर तक बतियाते। हाथों में हाथ थाम लेना भी तब मुक़द्दर की बात थी, क्योंकि सुरैया की नानी पूरे समय उन पर नज़र रखती थीं। फिल्म ‘अफ़सर’ में एक दृश्य था, जिसमें देव आनंद को सुरैया की आँखों को चूमना था। सुरैया राज़ी थीं, लेकिन सेट पर मौजूद नानी इसके लिए कभी तैयार नहीं हो सकती थीं। तब उन्हें किसी बहाने चंद मिनटों के लिए स्टूडियो से बाहर ले जाया गया और तुरत-फुरत में वह शॉट लिया गया।

लेकिन शूटिंग के बाद बातें कैसे हों? तय किया गया कि हर शुक्रवार रात को एक निश्चित समय देव टेलीफोन करेंगे, सुरैया ठीक उसी समय टेलीफोन के इर्द-गिर्द मौजूद रहेंगी। दोनों प्रेमियों में सरगोशियों के साथ बातें होतीं जो अकसर अधूरी छूट जातीं, क्योंकि अंदेशा था कि नानी चली आएँगी और पूछेंगी इतनी रात गए किससे बातें करती हो? बाज़ दफ़े वे ख़त लिखते और ख़त पकड़े न जाएँ, इसलिए उन्हें डाक से नहीं भेजा जाता। सुरैया की क़रीबी दोस्त दुर्गा खोटे और कामिनी कौशल तब क़ासिद की भूमिकाएँ निभाती थीं। कामिनी ख़ुद उस समय दिलीप कुमार की मोहब्बत में गिरफ़्तार थीं।

जब प्यार परवान चढ़ गया और साथ जीने-मरने के इरादे ज़ाहिर कर दिए गए, तब देव ने सुरैया के लिए हीरों की एक अँगूठी बनवाई। इसके लिए उन्होंने अपने दोस्तों से पैसे उधार लिए थे। उन्होंने सुरैया से कहा, हमारी सगाई तो नहीं हुई है, इसलिए तुम इसे पहन नहीं सकतीं। पर तुम इसे मेरे अमर-प्रेम की यादगार बतौर सहेजकर रखना। पर नौजवान लड़की उस बेशक़ीमती अँगूठी को पहनने से ख़ुद को रोक नहीं पाई। नानी की नज़र उस पर पड़ी। राज़ खुल गया। नानी ने अँगूठी को छीनकर समन्दर में फेंक दिया। सुरैया तब कई रातों तक रोती रही थीं।

आखिरकार देव ने कहा, हम एक-दूसरे के बिना जी न सकेंगे, क्यों ना कोर्ट में ब्याह कर लें। सुरैया सहम गई थीं। एक हिंदू लड़के से मुस्लिम लड़की की शादी मंज़ूर नहीं की जा सकती थी। उन्होंने चुप्पी साध ली। देव तड़प उट्ठे। क्या यह इनकार थी? शायद, लेकिन साफ़ शब्दों में नहीं। साफ़ शब्दों में इनकार उन्हें कभी नहीं मिली, लेकिन संगीन चुप्पी में ही ना का रुक़्क़ा था। फिल्म ‘सनम’ के सेट पर जब वो मिले, तो देव ने नाराज़ होकर कहा- “बुज़दिल लड़की!”

उस बुज़दिल लड़की ने फिर ताउम्र विवाह नहीं किया! जिसको चाहने वाले कम न थे, उसने एक भी साथी नहीं चुना। देव आनंद ने कल्पना कार्तिक से ब्याह रचा लिया। वो सुरैया से भी बड़े स्टार बनकर उभर चुके थे। सुरैया को फिल्म इंडस्ट्री ने भुला दिया। उन्होंने एक गुमनाम और तन्हां जिंदगी बिताई।

1972 में एक इंटरव्यू में सुरैया ने क़बूल किया कि भूल उनकी थी, वो कोई फ़ैसला नहीं कर पाईं, और हिम्मत नहीं जुटा पाईं। लेकिन उन्होंने देव आनंद के तमाम ख़तों को सहेजकर रखा था।​ किसी और से विवाह क्यों नहीं किया, पूछने पर उन्होंने कहा, “मेरी नज़र में केवल देव बसे थे!”

बहुत सालों के बाद, 1978 में, देव और सुरैया एक फिल्मी-पार्टी में एक-दूसरे से टकरा गए। टकटकी बाँधकर अपने पुराने प्यार को देखते रहे। पास गए, कुछ बातें की, कि तभी कैमरों के फ़्लैश चमक उठे। ​तनहाई में मिलने, बातें करने का उनका मुक़द्दर शुरू से ही नहीं था।

मरीन ड्राइव के जिस कृष्णा महल में देव आनंद चर्चगेट स्टेशन से उतरकर पैदल ही सुरैया से मिलने जाते थे, फिर रोज़ सालों-साल अपनी गाड़ी में उस घर के सामने से निकलते रहे। लेकिन वो सबकुछ भुलाकर ऐसे आगे बढ़े थे कि फिर कभी उस देहरी पर क़दम नहीं रखे। देव आनंद अत्यंत अनासक्त व्यक्ति थे, पर काश, चंद मर्तबा जाकर सुरैया से मिल आते।
क्योंकि प्यार निभाने की चीज़ है, ब्याह करके साथ रह पाना सभी प्रेमियों के नसीब में तो होता नहीं!

सुरैया की मौत 2004 में हुई। मीडिया के कैमरों को तलाश थी कि जनाज़े को काँधा देने देव आनंद आएँगे, पर वो नहीं आए। बहुत समय के बाद सिम्मी ग्रेवाल से बातचीत में उन्होंने कहा, “मैं आता तो मीडिया मुझे घेर लेता, तस्वीरें उतारी जातीं, अहसासों को बेचने की कोशिश की जाती, सवाल पूछे जाते। दु:ख की भी एक गरिमा होती है। मैं उस दिन अपने कमरे में सबकी नज़रों से दूर अकेला ही रहा।”

सुरैया देव से अलगाव के बाद पूरे पचास साल जीवित रही थीं। ये आधी सदी उन्होंने कैसे बिताई, किसे पता है? तबस्सुम ने एक बार उनसे पूछा था- “आपा, कैसी हो?” इस पर सुरैया ने जवाब दिया- “कैसी गुज़र रही है सब पूछते हैं, कैसे गुज़ार रही हूँ ये कोई नहीं पूछता!”

साभार Sushobhit ji