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देश आपकी ओर बड़ी उम्मीदों से देख रहा है ”मीलॉर्ड”

पूरे इतिहास में इंसान अपनी प्रतिष्ठा को हासिल करने के लिए मानवाधिकार की प्राप्ति में लगा रहा लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से मानवाधिकार से संबंधित बहुत ज़्यादा नियम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक पहुंचे और क़ानूनी दृष्टि से सरकारों को इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध बनाया।

मानवाधिकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलने में संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के पारित व लागू होने का योगदान रहा है। इसी प्रकार मानवाधिकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने में, द यूनिवर्सल डेक्लरेशन आफ़ ह्यूमन राइट्स, आईसीसीपीआर और आईसीईएससीआर सहित विभिन्न क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का योगदान रहा है।

मानवाधिकार ऐसा विषय है जिसकी जड़ मानवीय व धार्मिक विचारों से मिली है। इसी प्रकार विभिन्न वैचारिक व दार्शनिक मतों व दृष्टिकोणों ने इसका समर्थन किया है। दूसरे शब्दों में मानवाधिकार के पीछे अनेक नैतिक व तार्किक दृष्टिकोण मौजूद हैं। पश्चिमी दार्शनिकों का मानना है कि मानवाधिकार के संकलन के पीछे स्वाभाविक अधिकार का योगदान है। धार्मिक दृष्टिकोण में मानवाधिकार को ईश्वर की ओर से इंसान की प्रवृत्ति में रखा गया अधिकार माना गया है। इस्लामी नज़र से इंसान की प्रवृत्ति का तक़ाज़ा है कि इंसान मानवाधिकार से संपन्न हो।

मानवाधिकार उन अधिकारों को कहते हैं जो इंसान को इंसान होने के नाते हासिल है। यह वह अधिकार है जो सामाजिक स्थिति में भिन्नता या व्यक्ति की योग्यता में अंतर से नहीं बदलते। ये वे अधिकार हैं जिसको कोई भी समाज या सरकार नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।

अब सवाल यह उठता है कि कौन से अधिकार मनुष्य के बनुयादी हैं और कौन उन्हें निर्धारित करेगा। या यह कि इंसान के लिए समाज से हट कर कोई अधिकार है? या यह कि कौन सी चीज़ विशेष, सर्वव्यापी, नैतिक और महत्वपूर्ण अधिकारों को जन्म देती हैं और इस संदर्भ में किसे निर्णय लेने का अधिकार है?

अलबत्ता इनमें से कोई भी सवाल, हर इंसान के लिए ज़रूरी अधिकार का इंकार नहीं कर सकता। वास्तविकता यह है कि इस तरह के बहुत से सवाल का जवाब मानवाधिकार के अस्तित्व का औचित्य पेश करने वाले दार्शनिक विचार पर निर्भर है। बहुत से बुद्धिजीवी आज के युग के मानवाधिकार को स्वाभाविक अधिकार के दृष्टिकोण की देन मानते हैं।

स्वाभाविक अधिकार का दृष्टिकोण 2000 साल पुराना है। इसका यह मतलब नहीं है कि इस दृष्टिकोण का अर्थ हमेशा एक जैसा रहा है। स्वाभाविक अधिकार के अलग अलग अर्थ निकाले जाते रहे हैं। विभिन्न अर्थ व व्याख्याओं के बावजूद जो बात हमेशा से स्थिर रही वह यह कि ऐसे नैतिक नियम मौजूद हैं जिनका संबंध सृष्टि की प्रवृत्ति है और बुद्धि उनका पता लगा सकती है। दूसरे शब्दों में सृष्टि में ऐसी सच्चाई मौजूद है जो हमेशा से है। ऐसी सच्चाई जिस तक मनुष्य का दिमाग़ नहीं पहुंच सकता।

स्वाभाविक अधिकार की जड़ों को सभी राष्ट्रों व जातियों के बीच ढूंढा जा सकता है किन्तु परंपरा यह रही है कि इसकी खोज यूनान से शुरु करते हैं। यूनानी बुद्धिजीवियों ने अधिकार के दार्शनिक आधार का पता लगाने के लिए बहुत से मूल अर्थ पेश किए जिनमें स्वाभाविक अधिकार का अर्थ भी है। प्राचीन यूनान में यह विचार प्रचलित था कि हर शहरी सरकार में ऐसे क़ानून होते हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता और न ही उनका उल्लंघन किया जा सकता है। ये क़ानून मुख्यतः लिखित रूप में नहीं होते।

यूनान में शहरी सरकारों के पतन और सम्राटों के उदय से जो सिकन्दर की विजय से शुरु हुयी, स्वाभाविक अधिकार, विश्व व्यवस्था के रूप में व्यवहार में आता है और इस संदर्भ में स्टोअसिज़म अर्थात तितिक्षावादियों ने बड़ा योगदान दिया है। तितिक्षावादियों के अनुसार, जब इंसान अपना जीवन बुद्धि के अनुसार गुज़ारेगा तो उसका जीवन स्वाभाविक रूप धारण कर लेगा।

यूनान का विचार रोमियों तक पहुंचा और वे इस विचार से प्रभावित हुए। इस विचारधारा का सबसे अच्छा प्रतिनिधि रोमी वक्ता सीसरो था। सीसरो स्वाभाविक अधिकार का पहला विचारक है जिसका मानना था कि अगर बनाए गए क़ानून स्वाभाविक अधिकार के ख़िलाफ़ हैं तो उनका विरोध करना ज़रूरी है। वह कहता था, “अगर कोई क़ानून चोरी और बलात्कार की इजाज़त दे तो यह सिर्फ़ चोरों व भ्रष्ट लोगों का क़ानून होगा।”

मध्ययुगीन शताब्दियों में कैथोलिक गिरजाघर ने दार्शनिक विचारों पर बहुत प्रभाव डाला। इस युग में टॉमस आक्विनस अरस्तू के विचार और कैथोलिक ईसाइयों की आस्था को मिलाकर ऐसे क़ानून सिद्ध करता है जिसका संबंध ईश्वर से है। उसने क़ानून को चार भाग में विभाजित किया। अपरिवर्तनशील क़ानून जिसे सिर्फ़ ईश्वर जानता है। सब चीज़ उसके अधीन है और वह सृष्टि से संबंधित है। इसलिए इंसान को एक मार्गदर्शक की ज़रूरत है क्योंकि उसे विशेष उद्देश्य के लिए पैदा किया गया है और वह ख़ुद से उस तक नहीं पहुंच सकता।

इसके बाद ईश्वरीय क़ानून है जिसका उल्लेख आसमानी किताबों में है और ये इंसान के लिए स्पष्ट है। इसके बाद स्वाभाविक क़ानून आता है। स्वाभाविक क़ानून सभी इंसान के लिए एक जैसा है क्योंकि सबके सब बुद्धि रखते हैं।

टॉमस आक्विनस का मानना था कि इंसान के स्वभाव में यह बात मौजूद है कि वह कर्म को बुद्धि के अनुसार अंजाम देता। साथ ही टॉमस आक्विनस यह भी मानते हैं कि यह रुझान संभव है आदत और रीति-रिवाज के कारण अपना मार्ग बदल दे। अलबत्ता इस बीच मूल व आम सिद्धांतों का एक क्रम है जो हर जगह एक जैसा है। हालांकि इन नियमों की व्याख्या संभव है अलग अलग हो। मिसाल के तौर पर यह एक आम सिद्धांत है, “भला कर्म किया जाए और बुराई से बचा जाए।” किन्तु इस मूल सिद्धांत से निकलने वाला दूसरा सिद्धांत हो सकता है इंसान के हालात, स्थिति और बुद्धि के अनुसार भिन्न हो। टॉमस आक्विनस इस तरह क़ानून की चौथी श्रेणी तक पहुंचते हैं जिसे मानवीय क़ानून कहते हैं। उनका मानना है कि मानवीय क़ानून की ज़रूरत इसलिए है क्योंकि स्वाभाविक क़ानून के पास समाज के दैनिक जीवन से जुड़े सभी मामलों का हल नहीं है और दूसरे यह कि आत्ममुग्ध लोगों से बुद्धि का पालन कराने के लिए बल प्रयोग ज़रूरी है। मानवीय क़ानून न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण हो सकते हैं। मानवीय क़ानून के न्यायपूर्ण होने के लिए ज़रूरी है कि उसमें सबके लिए भलाई हो। अगर मानवीय क़ानून अन्यायपूर्ण व ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध होंगे जैसे मूर्ति पूजा से संबंधित क़ानून, तो ऐसे क़ानून का पालन नहीं किया जाएगा।

पुनर्जागरण के काल में व्यक्ति और इरादे की आज़ादी पर बल दिया जाता है। इस युग में विचारों से धार्मिक रंग हट जाता है। स्वाभाविक अधिकार के दृष्टिकोण में यह बदलाव आता है कि इसे सार्वकालिक व ईश्वरीय क़ानून पर निर्भर नहीं मानते। इस बीच ह्यूगो ग्रोशस स्वाभाविक अधिकार को धर्म से अलग करने वालों के अगुवा नज़र आते हैं। ग्रोशस का मानना था कि स्वाभाविक अधिकार का आधार बुद्धि व स्वाभाव है। उनका मानना था कि स्वाभाविक अधिकार की बुनियाद मनुष्य की प्रवृत्ति है इसलिए किसी व्यक्ति, अधिकारी या सरकार को उसका विरोध करने की इजाज़त नहीं है मगर यह कि प्रवृत्ति व बुद्धि के विरुद्ध हो।

ग्रोशस का मानना था कि इंसान की एक स्वाभाविक विशेषता यह है कि उसमें सामाजिक जीवन गुज़ारने का रुझान होता है। यह चीज़ उसे दूसरों के साथ शांतिपूर्ण व समन्वित जीवन के लिए प्रेरित करती है।जो चीज़ इंसान की सामाजिक जीवन जीने की प्रवृत्ति से समन्वित हो वह सही है और जिस चीज़ से इस सामाजिक समन्वय को नुक़सान पहुंचे वह ग़लत व अन्यायपूर्ण है।

सत्रहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक व वैचारिक उपलब्धियां, बुद्धि पर मनुष्य के भरोसा बढ़ने में सहायक हुयीं। मनुष्य के स्वाभाविक अधिकार के संबंध में कुछ दृष्टिकोण सामने आए जिनका आधार सामाजिक बंधन था। इस बीच जॉन लॉक को स्वाभाविक अधिकार के महत्वपूर्ण विचारकों में कहा जा सकता है। वह इस विचार को विस्तार से पेश करते हुए कहते हैं कि इनमें से कुछ अधिकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से पाए जाते हैं। जैसे जीवन जीने, आज़ादी और संपत्ति रखने के अधिकार। उनका मानना था कि सामाजिक जीवन शुरु करने से पहले भी इंसान इन अधिकारों से संपन्न था। समाज के गठन से इन अधिकारों के लागू होने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

अट्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में स्वाभाविक अधिकार के सिद्धांत ने अत्याचार के ख़िलाफ़ क्रान्ति की लहर को वैचारिक आधार दिया। इस सिद्धांत का स्पष्ट चिन्ह फ़्रांस के मानवाधिकार घोषणापत्र, अमरीका के स्वाधीनता के घोषणापत्र सहित, साम्राज्य से आज़ादी पाने वाली अनेक सरकारों के संविधान में मौजूद है। इसी प्रकार इस सिद्धांत के चिन्ह मानवाधिकार से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ के मूल दस्तावेज़ों में मौजूद हैं।

19वीं और 20वी शताब्दी में स्वाभाविक अधिकार का विरोध तेज़ होता गया। स्वाभाविक अधिकार का सबसे ज़्यादा विरोध लीगल पॉज़िटिविज़्म नामक सिद्धांत के ज़रिए किया गया। इस सिद्धांत को जॉन ऑस्टिन ने पेश किया था। ऑस्टिन का मानना था कि शासक का आदेश ही सही क़ानून है। वह अधिकार के लिए किसी पूर्व स्रोत को नहीं मानते। उनका मानना था कि जो चीज़ योग्य अधिकारी व सरकार सही समझते हैं उसे क़ानून के तौर पर निर्धारित करते हैं। लीगल पॉज़िटिविज़्म मत के समर्थक मानवाधिकार के लिए नैतिक विचारों को आधार नहीं मानते। इस विचार पर अमल करने से यह नतीजा निकलता है कि कोई क़ानून कितना ही अनैतिक क्यों न हो या किसी व्यक्ति की भावना की अनदेखी क्यों न करता हो, उसका पालन किया जाए और यही बिन्दु इस मत की बहुत सी आलोचनाओं का आधार है।