इतिहास

देश के लिये फांसी के फँदे पे झूल गये शहीद मल्लप्पा धनशेट्टी, जगन्नाथ शिंदे, किसन सारडा और अब्दुल रसूल कुर्बान हुसैन!

Ataulla Pathan
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12 जनवरी शहीद दिवस
देश के लिये फांसी के फँदे पे झूल गये शहीद हुतात्मा, स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल रसूल कुर्बान हुसेन
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स्वतंत्रता संग्राम में साहस, वीरता, बलिदान और उत्कट देशभक्ति को प्रदर्शित करने वाले सोलापुर के चार शहीदों को युवा पीढ़ी और आम लोगों के साथ-साथ स्वराज्य के इतिहास से परिचित कराया गया जाणा चाईए। इन चार क्रांतिकारियों में शहीद मल्लप्पा धनशेट्टी, जगन्नाथ शिंदे, श्री किसन सारडा और अब्दुल रसूल कुर्बान हुसैन शामिल थे। शहीद अब्दुल रसूल कुर्बान हुसैन का जन्म 1910 में फ्रेम मेकर का व्यवसाय करणे वाले परिवार में हुआ था। वे एक चतुर मिल मजदूर नेता थे। महात्मा गांधी उनकी प्रेरणा थे। स्वतंत्रता, स्वदेशी, समानता, समाजवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता पे अतूट विश्वास था।

वे कांग्रेस पार्टी के कट्टर कार्यकर्ता और प्रभावी वक्ता थे। उन्होंने कई कांग्रेस बैठकों में इंग्रजो के खिलाफ आवेशपूर्ण भाषण दिए थे। वह कट्टर खादीदारी थे। डॉ कृ भी. अत्रोरोळीकर के नेतृत्व में सभाओं, रैलियों और जुलूसों में भाग लेने के कारण वह सभी के चहेते थे और उनके लेखन और भाषणों में हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उनका जुनून स्पष्ट होता था।1927 में, समाज की एकता के लिए स्वतंत्रता, ज्ञान और कौशल के महत्व पर गजनफर नामक एक अखबार शुरू किया गया था। यह अखबार हर शुक्रवार को प्रकाशित होता था। गजनफर एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ है शेर। 1927 से 1930 तक तीन साल तक गजनफर का प्रकाशन चला, फिर मार्शल लॉ की अवधि के दौरान इसे बंद कर दिया गया।गजनफर वर्तमानपत्र की सेवा सोलापुर और महाराष्ट्र के अखबारों की दुनिया में एक विशेष स्थान रखती है। गजनफर उन कुछ अखबारों में से एक था जो गुलामी की अवधि के दौरान स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल जलाते थे। कुर्बान हुसैन एक महान लेखक थे। अपने संपादकीय में, उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता, पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं पर विशेष लेख प्रकाशित करके युवाओं को एक नई रोशनी देने का भरसक प्रयास किया। अपने पिता की देश के लिये शहादत पे वो गर्व महसुस करते थे। पिता की मृत्यु के बाद, वह शहीद अब्दुल रसूल ये कुरबान हुसैन के नाम से जाने जाणे लगे।

देश भर में अपने जीवन का बलिदान देने वाले युवा अब्दुल रसूल के बारे में बहुत कम जानकारी है। आजादी के लिए अपने पिता की हत्या, दुकान को जलाकर राख कर देने से कुछ दिनों के लिए वह परेशान था, लेकिन उसने जल्द ही फिर से देश की सेवा शुरू कर दी। उन्होंने सोलापुर सिटी वर्कर्स यूनियन की स्थापना की और ट्रेड यूनियनों के माध्यम से शहर के मिल मजदूरों खडे किया। अब्दुल रसूल क़ुर्बान हूसेन सोलापुर में श्रमिक आंदोलन के संस्थापक थे। उन्होंने कार्यकर्ताओं से शराब पर पैसा खर्च नहीं करने की अपील की थी।वह हिंदू-मुस्लिम दंगों की प्रवृत्ति के खिलाफ दृढ़ता से लिखते थे। वह कहते थे,यदि मुझे एकता के लिए और भारत की स्वतंत्रता के लिए खून बहाना पड़े, तो मैं पहले खून बहाने के लिए तैयार हूं।अब्दुल रसूल क़ुर्बान हुसैन का अर्थ क्रांतिकारी राष्ट्रीय गौरव की एक जलती हुई मशाल थी। *दुही आणि तरुण पीढ़ी* उनका लिखित फ्रंट पेज लेख को आज की घटनाओं के संदर्भ में फिर से पढ़ा जाना चाहिए। युवा पीढ़ी राष्ट्र की ज्वलंत आशा है। यह मत भूलो कि भारत की दुर्भाग्यपूर्ण माँ, गुलामी की जंजीरों से बंधी हुई है, उसे केवल आपसे बहुत आशा है। यदि आप हिन्दू और मुसलमानों के जीवन को खतरे में डालने वाले दुहाई का अभिशाप नहीं झेलते हैं, तो कल की पीढ़ी आपकी अक्षमता पर हंसने लगेगी। जब आप राष्ट्रीय सूत्रधार हों, तो अपने दिल को दुखी करने की त्रासदी से परेशान न हों।अब्दुल रसूल कुरबान हुसैन ने युवा पीढ़ी से हिंदुओं और मुसलमानों की एकता की भूमिका निभाने की अपील की है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह वर्तमान पृष्ठभूमि पर कितना लागू होता है। उस समय सोलापुर में माहौल कुर्बान हुसैन की सटीक शैली के कारण स्वतंत्रता के पक्ष में, देशभक्ति से लबरेज था।

5 मई, 1930 को महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद, अब्दुल रसूल क़ुर्बान हुसैन ने एक बैठक बुलाई। बैठक की प्रतिक्रिया इतनी भारी थी कि युवा आक्रोश से भर उठे और सड़कों पर उतर गए। स्थिति नियंत्रण से बाहर होते ही तत्कालीन कलेक्टर नाइट ने भीड़ पर गोलियां चला दीं। तारीख 8-9 मई, 1930 थी। कुर्बान हुसैन के आंदोलन के परिणामस्वरूप, सोलापुर तीन दिन, 9 मई, 10 और 11, 1930 तक ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं था। मानो वे आजादी में थे। इसे दबाने और अब्दुल रसूल कुर्बान हुसैन की देशभक्ति का विरोध करने के लिए, ब्रिटिश ने अब्दुल रसूल कुरबान हुसैन पर एक पुलिस आगजनी हमले में शामिल होने का आरोप लगाया। बाद में, मलप्पा धनक्षेत्री, जगन्नाथ शिंदे और किसान सारदा को उनके साथ फांसी पर लटका दिया गया।

जब स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास लिखा जायेगा, तो सोलापुर के चार शहीदों, लोगों के शासन के तीन दिन और मार्शल लॉ का उल्लेख सुनहरे अक्षरों में किया जाएगा। अब्दुल रसूल कुर्बान हुसैन सहित चार लोगों को शेंडी बांध तोड़ने, अदालत को आग लगाने, पुलिस कांस्टेबल को जिंदा जलाने और लोगों को उकसाने के आरोप में मार्शल कोर्ट में पेश किया गया था। मामला कुछ समय के लिए चला और आखिरकार निर्दयी न्यायाधीश कर्नल पेज ने इन चार निर्दोष सत्याग्रही नेताओं को मौत की सजा सुनाई। इस घटना के कारण पूरे देश में हंगामा मच गया,महात्मा गांधी ने ब्रिटिश वायसराय को उनकी फांसी को रद्द करके बरी कर देने का अनुरोध किया।अब्दुल रसूल क़ुर्बान हुसैन उनकी प्रखर देशभक्ति और उनकी मजबूत सोच के कारण अमानवीय यातना और मौत की सजा उसे पुलिस आगजनी की साजिश में भाग लेने से विचलित नहीं कर सकती थी। राष्ट्रीय आंदोलन में उनका जब साथी कवि कुंजबिहारी ने यरवदा जेल का दौरा किया, तो अब्दुल रसूल कुरबान हुसैन ने धैर्यपूर्वक उनसे कहा, *तुमची भेट नऊ महिन्यांनी* ये कविता को पढ़ने के बाद फांसी का सामना करूंगा। इस प्रकार शरीर, मन, वाचा से स्वतंत्रता संग्राम से एकरूप होने वाले गौरवशाली सितारे को 12 जनवरी, 1931 को फांसी दी गई थी। उस समय उनकी उम्र केवल 21 वर्ष थी।

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संदर्भ: 1) स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम मुजाहिदीन (स्वतंत्रता सेनानी)- अ.लतीफ नल्लामंदू
2) स्वतंत्रता लढ्यातील मुस्लिमांचे योगदान – सोमनाथ देशकर
३) दैनिक लोकमत-संजय नहार

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संकलक तथा अनुवादक लेखक – अताउल्ला खां रफीक खां पठान सर टूनकी तालुका संग्रामपूर बुलढाना महाराष्ट्र 9423338726