इतिहास

#देश_विभाजन_का_जमकर_विरोध_करने_वाले_महान स्वतंत्रता सेनानी #अल्लाहबख्श_सूमरो!

Ataulla Pathan
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14 मे यौमे वफात
#देश_विभाजन_का_जमकर_विरोध_करने_वाले_महान स्वतंत्रता सेनानी #अल्लाहबख्श_सूमरो

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🟢देश विभाजन के आसपास ऐसे *कई ऐतिहासिक चरित्र हैं जिनकी भूमिका नफरत और देश विभाजन की राजनीति का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण थी. ऐसे ही एक नायक थे अल्लाह बख्श सूमरो*.

🔴वह 1938 और 1942 के बीच दो बार सिंध प्रांत के प्रमुख रहे. आज के जमाने में यह दर्जा मुख्यमंत्री का होता है. सूमरो एक प्रतिबद्ध देशभक्त थे जिनसे मुस्लिम लीग बहुत नफरत करती थी. वह एक सामंती सिंधी परिवार से आते थे लेकिन वह अपने सरल जीवन और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे.

🟡वह बस 20 साल के थे, जब उन्होंने खादी पहननी शुरू की. आज हम सुनते हैं कि सत्ता के प्रतीक के रूप में झंडे का कैसा गलत इस्तेमाल होता है, लेकिन उन्होंने सामंती और औपनिवेशिक काल में भी अपनी आधिकारिक गाड़ी में कभी झंडा नहीं लगाया.

🔵आज अविभाजित भारत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को याद किए जाने की जरूरत है. *सूमरो सभी तरह की सांप्रदायिक ताकतों की विभाजनकारी राजनीति के सामने एक मुख्य चुनौती के रूप में उभरे, खासकर मुस्लिम लीग की राजनीति के सामने*.

🟣इसमें कोई शक नहीं कि *मौलाना आजाद कॉम्पोजिट या साझे राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय प्रतीक थे लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें सूमरो जैसी ताकतवर क्षेत्रीय आवाजों से हिम्मत* मिलती थी.

🟢सूमरो की मुस्लिम लीग विरोधी राजनीति को विस्तार से समझने के लिए लंबी चर्चा की जरूरत पड़ेगी इसलिए मुझे बस देश विभाजन के दुखद ऐतिहासिक अध्याय के एक जरूरी हिस्से के बारे में बता लेने दीजिए. *मुस्लिम लीग ने 23 मार्च 1940 को लाहौर में मुसलमानों के लिए एक स्वतंत्र देश की सिफारिश वाला प्रस्ताव पारित किया था. इसके तुरंत बाद 27 से 30 अप्रैल 1940 के बीच सूमरो ने दिल्ली में देशभक्त मुसलमानों के एक बड़े सम्मेलन* का आयोजन किया जिसका नाम उन्होंने दिया आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस.

🟡अनुमानों के मुताबिक *मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति की निंदा करने के लिए उस सम्मेलन में देश भर से करीब 75000 लोग जमा* हुए थे.

🔴सम्मेलन में भाग लेने वाले ज्यादातर लोग अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक संगठनों से जुड़े थे जो पिछड़े और कारीगर वर्ग के मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करते थे. मुस्लिम लीग चंद गिने चुने उच्चभु लोगो की पार्टी थी मौलाना आझाद ये बाखुबी जाणते थे

🟣मौलाना आजाद ने 1912 में उर्दू भाषा के अखबार अल हिलाल में भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में उन्होंने लिखा था :

*उनकी जिंदगी की सबसे बदनसीब बात यह है कि उनके बीच एक एलीट वर्ग है जो उनकी अगुवाई कर रहा है, जो खुद को इस समाज का स्वयंभू नेता मानता है. इन्होंने अपने सर पर खुद ही ताज डाल लिया है, इन्हें जनता ने ताज नहीं पहनाया है. ये लोग ताकत का दिखावा और अपनी दौलत का तमाशा करते हैं. और ऐसा करते हुए इन लोगों ने अपने समाज की गरीब मिल्लत को अपना गुलाम और अनुयायी बना लिया है और जब-जब कोई इनके नेतृत्व पर सवाल खड़ा करता है या इनके नेतृत्व को नहीं मानता तो यह खुदगर्ज नेतृत्व उसे दबाता है और उसे खत्म कर देता है क्योंकि इसके पास दौलत की ताकत है*.

🔵अप्रैल 1940 में आयोजित *आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में अपने अध्यक्षीय संबोधन में अल्लाहबखश सूमरो* ने लीग के धर्म और विरासत के नाम पर गलत तर्कों का भंडाफोड़ किया. अपने भाषण में उन्होंने *साझे इतिहास और साझी विरासत पर विस्तार से बात रखी और सबको मिलाकर बने भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद पर जोर दिया और बताया कि विभिन्न समुदायों के बीच जो करार है उसे तोड़ देने में किसी का भला नहीं है*.

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📙 *28 अप्रैल 1940 को द संडे स्टेटमेंट में उनके भाषण का यह अंश छापा था* :

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9 करोड मुस्लिमों का बहुसंख्यक हिस्सा भारत के सबसे पुराने लोगों में से एक है और वह भी द्रविड़ और आर्यों की तरह ही भूमिपुत्र है. उसका भी इस जमीन पर पहले पहल बसने वालों की तरह का दावा है. केवल अलग धर्म अपना लेने भर से कोई राष्ट्र से अलग नहीं हो जाता. वैश्विक विस्तार की प्रक्रिया में इस्लाम कई राष्ट्रीयताओं और क्षेत्रीय संस्कृतियों से घुलता मिलता रहा है.उन्होंने हिंदू और मुसलमानों की साझी विरासत के लंबे इतिहास का उल्लेख किया.

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📗 उनके *भाषण का एक अंश हिंदुस्तान टाइम्स में यूं छपा था* :

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*हिंदू, मुसलमान और किसी भी अन्य लोगों द्वारा पूरे हिंदुस्तान या इसके किसी खास हिस्से का दावा सिर्फ अपने लिए करना एक जहरीली गलती है*. एक मुकम्मल और संघीकृत और मिलीजुली इकाई के रूप में यह देश यहां रहने वाले सभी लोगों का है और इसकी विरासत पर भारतीय मुसलमानों का भी उतना ही हक है जितना अन्य भारतीयों का.

*सूमरो ने सदियों से हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के अंतरघुलन और साझा इतिहास के विस्तृत संदर्भों का उल्लेख लीग और हिंदू बहुसंख्यकवाद* की बात करने वाले लोगों के तर्कों के बरअक्स पेश किए. मौलाना आजाद की तरह वह भी संयुक्त भारत के ऊपर मंडरा रहे खतरे से वाकिफ थे. .

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📘अपने भाषण में सूमरो ने आज के नवराष्ट्रवादियों की एक और दलील का जवाब दिया था कि मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग की थी और एक बार देश का विभाजन हो जाने के बाद उन सभी को वहां चले जाना चाहिए था जिससे यह मामला हमेशा के लिए सुलझ जाता. इस तरह के दावे करने वालों को यह जान लेना चाहिए कि सूमरो जैसे लोकप्रिय मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान के निर्माण के बारे में क्या कहा था :

🟢 *यह मांग कई गलत समझदारियों पर आधारित है जो यह मानती हैं कि भारत में सिर्फ हिंदू और मुसलमान रहते हैं. यह बताना जरूरी है कि भारत के सभी मुसलमान भारतीय राष्ट्र होने पर फक्र करते हैं और वे लोग अपने आध्यात्मिक स्तर और इस्लाम पर बराबर फक्र करते हैं. भारतीय राष्ट्र होने के नाते मुस्लिम और हिंदू और वे अन्य लोग जो यहां रहते हैं, अपनी मातृभूमि के इंच-इंच के साझेदार हैं और उसकी तमाम दौलत और सांस्कृतिक खजाने पर नाज करने वाले बेटे हैं*.

🟣इस सम्मेलन में आजाद नहीं आ सके थे लेकिन उन्होंने समर्थन में अपना संदेश भेजा था. *मौलाना आजाद ने सम्मेलन के साथ अपनी एकबद्धता व्यक्त की थी और इसमें होने वाले विमर्श से आजादी के महान मकसद और भारतीय मुसलमानों की भालाई हो ऐसी कामना की थी*.

🟡कॉम्पोजिट और समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद की यह लड़ाई जो आज भी हमारे सामने है, वह कुछ दशक पुरानी है. आजाद और सूमरो ने ऐसी प्रतिगामी और विभाजनकारी ताकतों को 1930 और 1940 के दशकों में चुनौती दी थी. इन लोगों ने दुश्मनों के किले में घुस कर यह लड़ाई लड़ी थी और दिल्ली में बड़ा सम्मेलन आयोजित कर मुस्लिम लीग के लीडरों में हलचल मचा दी थी. 14 मई 1943 में सूमरो का कत्ल कर दिया गया. इस काम में लीग के हाथ होने का शक था.

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उनकी मौत के बाद समकालीन समाचार पत्रों में और कई राष्ट्रवादी नेताओं ने जिस तरह की अभिव्यक्तियां दी थीं उससे उनके व्यक्तित्व और देश को हुए नुकसान का आकलन किया जा सकता है.
📙 *हिंदुस्तान टाइम्स में उनके बारे में लिखा था* :

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वह एक सर्वश्रेष्ठ सिंधी, एक सच्चे मुसलमान और भारत के शानदार सपूतों में एक थे जो किसानों की तरह यहां की जमीन से प्यार करते थे और हमेशा खद्दर पहनते थे. 20 की उम्र से ही वह खादी पहनने लगे थे क्योंकि वह गरीबों से मोहब्बत करते थे. हिंदू और मुसलमान बराबरी से उन्हें अपना नेता मानते थे. विभाजन और कड़वाहट के दौर में भी वह स्वतंत्र और एकजुट हिंदुस्तान पर विश्वास रखते थे और आने वाले सालों में एक यूनाइटेड स्टेट ऑफ एशिया का सपना देखते थे.

उनकी मौत को कई समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय आपदा की तरह देखा. अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा कि वह एक “प्रभावशाली शख्सियत थे जिनके अंदर जिम्मेदारी की ऊंची भावना थी और अपनी मान्यता के प्रति अभूतपूर्व साहस था. वह सभी लोगों से सम्मान और प्रशंसा पाते थे. यहां तक उनसे अलग विचार रखने वाले भी उनके मुरीद थे.” समाचार पत्र ने उनकी मौत पर टिप्पणी करते हुए लिखा, “एक ढेरों संभावनाओं वाले जीवन का अचानक अंत हो गया और आज भारत इस 42 साल के नौजवान की मौत के बाद थोड़ा और गरीब हो गया है जिसकी देशभक्ति और कर्तव्य के प्रति समर्पण को आज के दुखद हालात के गुजर जाने के बाद बहुत याद किया जाएगा.”

📘भारत का राइट विंग अक्सर यह कहता है कि *भारत में उपनिवेश विरोधी संघर्ष के नेता सुभाष चंद्र बोस को भारतीय इतिहास में उनके कद बराबर का दर्जा नहीं दिया गया. मुझे यह राजनीतिक रूप से प्रेरित ऐसा दावा लगता है जिसमें ईमानदारी नहीं है. बल्कि सूमरो जैसे लोग इतिहास से लापता है*. यहां तक कि तथाकथित उदारवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों की लेखनी से भी सूमरो गायब हैं.

🟡एक अपवाद शमशुल इस्लाम हैं जिन्होंने अपनी किताब *मुस्लिम्स अगेंस्ट पार्टीशन ऑफ इंडिया सूमरो के बारे में लिखा है. सूमरो की तरह उस दौर की दूसरी प्रमुख मुस्लिम आवाज सैफुद्दीन किचलू की है. वह कश्मीरी स्वतंत्रता संग्रामी थे. उनका परिवार पंजाब आ कर बस गया था. डॉ. सत्यपाल के साथ उनकी गिरफ्तारी के कारण जो विरोध हुए उनकी परिणीति सन 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड में हुई*. हममें से बहुत से लोगों को उनके योगदान का पता नहीं है.

📗 स्वतंत्रता सेनानी डॉ सैफउद्दीन किचलू साहेब ने सूमरो की मौत पर लिखा था* :

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देश में जारी स्वतंत्रता आंदोलन के इस नाजुक दौर में जनाब अल्लाह बख्श जैसी शख्सियत की मौत, राष्ट्रवादी ताकतों के लिए बड़ा झटका है. जनाब अल्लाह बख्श एक मुकम्मल नेशनलिस्ट थे. भले ही उनकी मौत हो गई है लेकिन उनका काम हमेशा जिंदा रहेगा.
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Source _ heritagetimes
Md Umar Ashraf

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संकलन *अताउल्ला खा रफिक खा पठाण सर*
*टूनकी तालुका संग्रामपूर*
*बुलढाणा महाराष्ट्र*
9423338726