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निर्माता-निर्देशक और सुपर-स्टार ”भगवान दादा” से मिलवाते हैं!

Manohar Mahajan
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🎬निर्माता-निर्देशक और सुपर-स्टार:
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अपने ज़माने मशहूर निर्माता-निर्देशक और सुपर-स्टार भगवान दादा से मेरी मुलाक़ात. एक स्टेज-शो दे दौरान-20 अगस्त 1984 में हुई थी.उस मुलाक़ात में मुझे उन्हें बहुत क़रीब से जानने का मौक़ा मिला. और ऐसा कुछ भी जानने को मिला. जिसे सिनेमा-प्रेमी कम ही जानते हैं एवम् जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग में घुमड़ता रहता है. आज मैं वही आपके सबके साथ शेयर कर रहा हूँ.

दोस्तो,1951 में हिंदुस्तान में तीन फिल्में रिलीज हुईं : ‘आवारा’ ‘बाजी’ और ‘अलबेला’. तीनों फिल्में सिने-इतिहास की लैंड-मार्क फिल्में थीँ-जिन्होने हिंदी सिनेमा को तीन ‘आइकॉनिक सुपरस्टार’ दिए : राजकपूर, गुरुदत्त और भगवान दादा. इन फिल्मों में तीनों का अंदाज़ ही केवल जुदा-जुदा न था तीनों की क़िस्मत ने भी जुदा-जुदा करवट ली थी.

आज के समय में भगवान दादा की पहचान सिर्फ़ अमिताभ बच्चन के ‘आइकॉनिक-डांस’ के जनक के रूप में होती है पर हिंदी-सिनेमा में बहुत कुछ ऐसा है जिसकी नींव भगवान दादा ने रखी थी.1913 जब दादा साहब फाल्के फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के ज़रिए हिंदुस्तान में सिनेमा की नींव रख रहे थे तब दादर की एक चॉल में एक मज़दूर के घर भगवान आभाजी पालव ने जन्म लिया. ये शायद सिनेमा की नींव रखे जाने के वर्ष का ही असर था कि उनके DNA में सिनेमा ही सिनेमा घर कर गया और शायद यही वजह थी कि ‘नियति’ ने चौथी क्लास के बाद उनकी पढ़ाई भी छुड़वा दी.

5 फुट के छोटे के क़द में भगवन आभाजी ने कसरत के ज़रिये अपने बदन में खूब ज़ोर भरा और ‘चॉल के दादा’ कहलाने लगे.उनकी ‘पहलवानी’ से उभरी ताक़त का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदहारण उस दौर की सबसे खूबसूरत ।अभिनेत्री ललिता पवार थीं, जो आगे चलकर सबसे ‘खतरनाक-सिनेमाई-सास’ के रूप में मशहूर हुईंं. ललिता पवार को भगवान दादा ने एक फिल्म की शूटिंग के दौरान ऐसा ‘थप्पड़’ मारा कि ललिता जी की आंख की नस फट गई.. उनका चेहरा ऐसा ‘बिगड़ा’ कि वो जीवन भर क्रूरता-भरे रोल ही करती रहीं. हालांकि ललिता पवार कहती थीं कि भगवान दादा के कारण ही वो इतना पॉपुलर हो पाईं.

भगवन दादा सिनेमा में अपने ‘एक्शन’ खुद करने वाले शुरुआती अभिनेताओं में से एक थे.1949 तक वो ‘लो-बजट-स्टंट’ फिल्में बनाते रहे. उस दौर के मज़दूर-तबक़े में ये फिल्में खूब लोकप्रिय होती थीं. फिल्म‘अलबेला’ ने दादा को: डान्स, स्टार-डम,और शोहरत से खूब नवाजा. ‘..शोला जो भड़के..’ और ‘..भोली सूरत दिल के खोटे..’ जैसे गानों में किए गए ‘अलबेले-डांस’ को: अमिताभ बच्चन, गोविंदा,मिथुन जैसे स्टार्स ने फॉलो किया. यही नहीं,’अलबेला’ दादा के जीवन में पैसों की बरसात लेकर आई. दादर की दो कमरों की चॉल से जुहू-बीच पर 25 कमरों के बंगले का सफर दादा ने तय किया. ये वो दौर था जब उनके घर के सामने सात लग्ज़ारी कारें खड़ी होती थीं. हफ्ते के हर दिन के लिए अलग. मगर हिंदी सिनेमा की पहली पीढ़ी के कई दूसरे सितारों की तरह दादा भी भूल गए थे कि पैसों की ये रिमझिम बरसात एक दिन थम भी सकती है.


अलबेला’ के बाद उनकी बनाई गई फिल्में..‘लाबेला’ और ‘झमेला’..बुरी तरह पिट गईं. फिल्म ‘सहमे हुए सपने’ भी-बॉक्स-ऑफिस पर ‘फ्लॉप’ हुई.इसके बाद आई-‘हंसते रहना’.इस फ़िल्म को बनाना भगवान दादा के करियर की सबसे बड़ी ग़लती साबित हुई. भले ही उस फ़िल्म के नायक किशोर कुमार थे,पर उनके नख़रे और तमाम अन्य वजहों से फ़िल्म पूरी नहीं हो पाई.घर,गाड़ी,बीवी के गहने सब कुछ बिक गया. इसके साथ ही सिनेमा में भी ‘बदलाव’ का दौर शुरू हो चुका था. दादा इस ‘बदलाव’ को भांप नहीं पाये..रही सही क़सर उनकी ‘शराब की लत’ और ‘काम न मिलने” ने पूरी ने कर दी..यही नहीं उनकी फिल्मों के गोदाम में आग लग गई..लगभग सारी फिल्में जलकर स्वाहा हो गईं..’अलबेला’ भी इसलिये बच गई क्योंकि उसका प्रिंट वो पहले ही ‘गिरवी’ रख चुके थे..देखते ही देखते ‘नसीब’ ने दादा को दादर की उसी चॉल में ला पटका जहाँ से वो चले थे.दादर की उस ‘चॉल’ ने अपने भगवान दादा को उसी प्रेम के साथ अपनाया.

फिल्मों के जानकार और समीक्षक गजेंद्र सिह भाटी बताते हैं: “..हर साल दादर के गणपति-विसर्जन के समय,गणेश- विसर्जन के लिये जाने वाली ‘झांकी’ थोड़ी देर के लिये दादा की उस चॉल के सामने रुकती थी. दादा बाहर निकलकर अपना ‘सिग्नेचर-डांस’ करते थे..उसके बाद ही फिर ‘झांकी’ आगे बढ़ती थी”.

पुराने ज़माने की ‘दोस्ती’ के कारण दादा को छोटे-मोटे किरदार मिलते रहते थे.तमाम मुश्किलों के बाद भी दादा 1995-96 तक फिल्मों में सक्रिय रहे.65 साल लंबी फिल्मी-पारी के आख़िरी सालों में भगवान दादा को ‘आख़री-बार’ सलमान ख़ान की फ़िल्म ‘मैने प्यार किया’ में देखा गया.

भगवान दादा की जीवनी,एक ‘रियल-स्टोरी’,या ‘उपन्न्यास’ से कम नहीं है.हो सकता है आने वाले कल को किसी क़ामयाब फिल्म की विषय-वस्तु बन जाये.
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【मेरी पुस्तक:”यादें मेरे दौर की” से साभार.】