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नेतनयाहू का मंत्रिमंडल जायोनियों का अंत हैः मस्जिदु अक़सा पर हमले की तैयारी : इस्राईल किसे मानता है सबसे बड़ा ख़तरा : रिपोर्ट

जायोनी शासन के पूर्व वित्तमंत्री लेबरमैन ने कहा है कि नेतनयाहू के मंत्रिमंडल काम आरंभ करना जायोनियों का अंत है।

यरुशलम पोस्ट के अनुसार एग्विडोर लेबरमैन ने नेतनयाहू के खिलाफ अपने भाषण में कहा कि 6ठीं बार नेतनयाहू की सरकार का गठन इस्राईल नहीं बल्कि जायोनिज़्म का अंत है।

इसी प्रकार इस्राईली सेना के एक पूर्व वरिष्ठ सैनिक कमांडर एयाल बिन रून ने नेतनयाहू के नये मंत्रिमंडल के कार्य आरंभ करने की प्रतिक्रिया में कहा कि नेतनयाहू के गैर ज़िम्मेदारी वाले फैसले इस्राईल की सुरक्षा के लिए खतरा हैं।

उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि प्रधानमंत्री बहुत अच्छी तरह जानता है कि उसके फैसले इस्राईल की सुरक्षा के लिए कितने खतरनाक हैं।

ज्ञात रहे कि नया साल आरंभ होने के साथ जायोनी शासन के नये मंत्रिमंडल ने अपने कार्य का आरंभ किया था और इसके साथ ही जायोनी सैनिकों ने जार्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर दो फिलिस्तीनी जवानों को गोली मार कर शहीद कर दिया था।

पश्चिमी किनारे के चिकित्सा सूत्रों ने बताया है कि जिन दो फिलिस्तीनी जवानों को जायोनी सैनिकों ने शहीद किया था उनमें से एक की उम्र 17 और जबकि दूसरे की उम्र 21 साल थी।

समाचार एजेन्सी वफा ने इस बारे में रिपोर्ट दी है कि जायोनी सैनिकों ने जेनीन के पश्चिम में दो फिलिस्तीनी जवानों को शहीद और आठ अन्य को घायल कर दिया जिनमें से एक की स्थिति चिंताजनक है

इस्राईले चरमपंथी मंत्री बिन ग़फ़ीर मस्जिदु अक़सा पर हमले की तैयारी में

इस्राईल की नई गठबंधन सरकार में नेश्नल सेक्युरिटी के मंत्री का पद संभालने के बाद चरमपंथी ज़ायोनी नेता ईतमार बिन ग़फ़ीर ने अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया है कि वे इसी हफ़्ते मस्जिदुल अक़सा में घुसेंगे और मीडिया का कहना है कि बिन ग़फ़ीर मंगलवार या बुधवार को यह हरकत करने वाले हैं।

बिन ग़फ़ीर के मंत्री बनते ही चरमपंथी ज़ायोनी संगठन हरकत में आ गए हैं और उन्होंने मस्जिदुल अक़सा पर हमले के लिए उनसे मांग शुरू कर दी है। एक चरमपंथी ज़ायोनी संस्था के वकील अवीआद विसोली ने कहा कि नेश्नल सेक्युरिटी के मंत्री ही पुलिस को निर्देश देंगे कि मस्जिदुल अक़सा के बारे में क्या रुख़ अपनाया जाए।

क़ुदस के मामलों के टीकाकार ज़ियाद अबहीस ने कहा कि चरमपंथी ज़ायोनी संगठनों ने आने वाले दिनों के लिए अपना एजेंडा तैयार कर लिया है और उसे मंत्री को सौंप भी दिया है। उनका कहना था कि वर्ष 2023 मस्जिदुल अक़सा के ख़िलाफ़ संघर्ष का साल साबित हो सकता है। बिन ग़फ़ीर चरमपंथी ज़ायोनी नेता हैं वे मस्जिदुल अक़सा के ज़रिए फ़िलिस्तीन के मुद्दे को हमेशा के लिए ख़त्म कर देने की कोशिश करेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि हम मस्जिदुल अक़सा पर ख़ास नज़र रखें और इसी लड़ाई में अपनी पूरी ताक़त लगा दें।

क़ुद्स अंतर्राष्ट्रीय फ़ाउंडेशन ने कहा है कि बिन ग़फ़ीर का एलान ख़तरनाक है वे अलअक़सा के सिलसिले में चरमपंथी ज़ायोनियों का दौर शुरू करना चाहते हैं।

संस्था का कहना है कि बिन ग़फ़ीर ने ठीक उस दिन यह एलान किया है जब उन्हें चरमपंथी ज़ायोनी संगठनों की 11 मांगों पर आधारित पत्र मिला है। संस्था ने चेतावनी दी है कि बिन गफ़ीर इस बार मस्जिदुल अक़सा में जो प्रवेश करना चाहते हैं वह पिछली घटनाओं से अलग होगा। इस बार चरमपंथी ज़ायोनियों की कोशिश यह होगी कि मस्जिदुल अक़सा के सिलसिले में ज़ायोनियों की कस्टडी का दौर शुरु हो जाए। ज़ायोनी कोशिश करेंगे कि मस्जिदुल अक़सा के प्रयोग के समय को इस तरह बांट दें कि ज़ायोनियों को मुसलमानों के इस पवित्र स्थल को इस्तेमाल करने का मौक़ा मिल जाए और उस समय में मुसलमानों का प्रवेश इस मस्जिद में वर्जित कर दिया जाए।

फ़ाउंडेशन का कहना है कि मस्जिदुल अक़सा इस्लामी मस्जिद है जो अल्लाह के ख़ास इरादे से बनी है यह 14 शताब्दियों की इस्लामी सभ्यता की प्रतीक है। बिन ग़फ़ीर, शेरोन या किसी को भी यह हक़ नहीं पहुंचता कि इस सच्चाई को बदलने की कोशिश करें।

संस्था ने फ़िलिस्तीनियों से अपील कर दी है कि वे मस्जिदुल अक़सा की ओर कूच करें और मंगलवार, बुधवार और गुरुवार को मस्जिद में एकत्रित हो जाएं।

इस्राईल आज भी अपने लिए सबसे बड़ा ख़तरा किसे मानता है?

सीरियाई राष्ट्रपति बशार अल-असद और उनके तुर्क समकक्ष रजब तैयब अर्दोगान ने एक बार फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाने का संकेत दिया है, जिसके बाद सीरिया की क्षेत्रीय वापसी लगभग पूरी हो जाएगी।

लेकिन इसके बावजूद दमिश्क़ का अंतिम क्षेत्रीय दुश्मन, उसकी दक्षिणी सीमा पर बना हुआ है, यानी ज़ायोनी शासन।

1948 के बाद से सीरिया और इस्राईल के बीच जारी संघर्ष और टकराव पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। लेकिन कुछ अरब देशों द्वारा तथाकथित अब्राहम समझौते के तहत इस्राईल से संबंधों को सामान्य बनाने के बाद, इस्राईल में कट्टर दक्षिणपंथी सरकार के सत्ता में आने के बाद, सीरिया के सामने एक नई चुनौती है।

तेल-अवीव के सामने सबसे बड़ी चुनौती भी दमिश्क़ है, क्योंकि मिस्र और जॉर्डन तो पहले ही उसके सामने हथियार डाल चुके हैं।

अमरीका के पूर्व राजनयिक फ्रेडरिक हॉफ़ ने अपनी किताब रीचिंग फ़ॉर द हाइट्स में उल्लेख किया है कि दमिश्क़, इस्राईल की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि मोरक्को और सूडान के साथ-साथ इस्राईल ने बहरीन और यूएई से नाममात्र के समझौते कर लिए हैं। हालांकि इन देशों में से कोई भी इस्राईल के लिए इतनी बड़ी चुनौती नहीं रहा है, जितनी बड़ी चुनौती सीरिया है।

हालांकि आए दिन सीरिया पर इस्राईल के हवाई हमलों की ख़बरें सामने आती रहती हैं, लेकिन ज़ायोनी शासन सबसे ज़्यादा भयभीत भी दमिश्क़ की ओर से रहता है। फ़िलहाल तो सीरिया ज़ायोनी शासन के लिए कोई सैन्य ख़तरा नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र के राजनीतिक चक्रव्यूह को घुमाने की उसकी क्षमता से इस्राईल और उसके समर्थक पश्चिमी देश अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। उसकी इसी क्षमता के कारण, वह अन्य अरब देशों की तुलना में इस्राईल के लिए सबसे गंभीर चुनौती है।

अमरीका और उसके कुछ यूरोपीय देशों ने 2011 में सीरिया में गृह युद्ध शुरू होने से पहले तक दमिश्क़ और तेल-अवीव के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के लिए लगातार प्रयास किए, लेकिन वह न तो सीरिया को डरा सके और न ही झुका सके।

जॉन बोइकिन ने अपनी किताब सीरिया एंड इस्राईल में लिखा हैः सबसे बड़ी बात सीरिया का सैन्य, राजनयिक या आर्थिक दबाव में नहीं आना है। जबकि जॉर्डन और मिस्र ने तथाकथित शांति के बदले अमरीकी गाजर पकड़ ली, लेकिन दमिश्क़ किसी भी दबाव में नहीं आया और आज भी वह अपनी इसी नीति पर क़ायम है।

फ़िलिस्तीनी गुटों पर और लेबनान में सीरिया के प्रभाव से भी इस्राईल की नींद उड़ी रहती है। अब क्षेत्रीय देशों द्वारा एक बार फिर दमिश्क़ को महत्व दिए जाने और उसके साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने से ज़ायोनी शासन की नींद हराम हो गई है और उसने जो दांव आतंकवादी गुटों पर लगा रखा था, उस पर पानी फिरते हुए देख रहा है