साहित्य

पड़ोस में एक लड़की रहती है…… सुनिए! सच्ची घटना है, एकदम सत्यकथा!

Kavita Krishnapallavi
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किस्सा दो साल पुराना है! एक बार सुना चुकी हूँ शायद! लेकिन फिर से सुनिए! सच्ची घटना है, एकदम सत्यकथा!
पड़ोस में एक लड़की रहती है I सुन्दर-सुशील-गुणवान और कर्तव्यनिष्ठ कन्या है I एम. ए. की छात्रा है I पूरे घर का ख़याल रखती है I फ़िजूलखर्ची और किसी भी किस्म की लापरवाही के लिए माँ, पिता और भाई को भी लताड़ लगा देती है I घर में जब काम वाली बाई आती है तो उसके सिर पर खडा होकर एक-एक कोने से धूल निकलवाती है, एक-एक बर्तन उठाकर जाँचती है कि कहीं विम तो नहीं लगा रह गया ! प्रेस वाला जब कपड़े लेकर आता है तो उन्हें गिनने के बाद एक-एक कपड़े की तहें खोलकर देखती है कि ठीक से प्रेस हुआ है या नहीं I फिर छोटे-बड़े कपड़े के हिसाब से देर तक मोलतोल करके पैसे देती है I मोहल्ले में जब सब्ज़ी या फल के ठेले वाले आते हैं तो उसे देखते ही उनकी रूह फ़ना हो जाती है ! हमारी सुन्दर-सुशील कन्या मोलतोल के युद्ध में उनके छक्के छुड़ा देती है, हमेशा तौल पूरा होने के बाद तराजू पर कुछ आलू, परवल या प्याज एक्स्ट्रा चढ़ा देती है और अंत में मुफ़्त का धनिया-मिर्चा झगड़कर बड़ी मात्रा में हासिल करने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल करती है !
पर उम्र के भी अपने तक़ाज़े होते हैं I रूमानियत की बयार जब बहती है तो बाज़ दफ़ा पत्थर भी मोम हो जाता है और सूखी झाड़ी में भी कोंपलें फूटने लगती हैं I यूँ तो हमारी यह नायिका ज़रा भी चकर-पकर नहीं करती और दीवानों-मस्तानों को ज़रा भी घास नहीं डालती, लेकिन जब कोई रूमानी फिल्म या सीरियल या वेब सिरीज़ देखती है तो उसके ऊपर इश्क़-ओ-रूमान का तेज़ दौरा पड़ जाया करता है !
एक दिन ऐसी ही कोई फिल्म या सीरियल देखकर या कोई सांघातिक रूमानी उपन्यास पढ़कर रूमानियत में एकदम बावली हुई वह मेरे पास आयी I बोली,”दीदी, मैं तो ऐसे लडके को अपना जीवन-साथी बनाऊँगी जिसकी आँखों में दुनिया भर की कविता हो, इन्द्रधनुष के सारे रंग हों, सागर की गहराई हो, वादियों का विस्तार हो…”
मैंने कहा,”बच्ची, लेकिन वह भी तो प्रेम-विभोर होकर तुम्हारी आँखों में झाँकेगा ! फिर उसे वहाँ तो सिर्फ़ किसी बनिए की खाता-बही और पटवारी की खसरा-खतौनी दिखाई देगी, भिन्डी-परवल-टिंडे-पुदीना वगैरा नज़र आयेंगे, एक वीरान धूल भरा निचाट मैदान और सूखी झाड़ियाँ दिखेंगी ! फिर अगर सच में वह ऐसा नौजवान होगा जिसकी आँखों में दुनिया भर की कविता हो, तब तो वह डिप्रेशन में चला जायेगा, पागल हो जाएगा, छत से कूदकर या पंखे से लटककर आत्महत्या कर लेगा या फिर भागकर कहीं दूर घने जंगल में किसी गुफा में छुप जाएगा !”
मैंने तो यह बात बस यूँ ही एक सहज उपजे विचार के रूप में कह दी थी, लेकिन इसे सुनते ही हमारे मोहल्ले की सबसे लायक़ कन्या एकदम आपे से बाहर हो गयी ! भड़ककर खड़ी हो गयी और बोली,”दीदी, क्या पैदा होते ही आपकी माँ ने आपको नीम का तेल पिला दिया था ? क्या आपके भीतर एकदम गले-गले तक ज़हर ही भरा हुआ है जो वक़्त-बेवक़्त निकलता रहता है ! आपसे कोई अपने दिल की बात करे तो ऐसा कुछ बोल देंगी कि तुरत बुखार चढ़ जाता है, कई दिनों तक हँसने-बोलने को भी जी नहीं होता !” फिर वह पैर पटकते हुए जोर से दरवाज़ा बंद करते हुए चली गयी !
तबसे हफ़्ते का समय बीत गया, सुशील कन्या फिर मेरे पास नहीं आयी ! अपनी छत से देखती है तो मुँह बिचकाकर नज़र फेर लेती है !
मैं तो समझ ही नहीं पायी कि मैंने गलत क्या कहा ! सचमुच लगता है, सच्चाई और भलाई का ज़माना ही नहीं रहाI फिर सोचती हूँ कि संस्कृत के किसी अनुभव-सिद्ध आचार्य ने आखिर कुछ सोचकर ही तो यह नसीहत दी होगी,”सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियं … …”