साहित्य

प्रतीक और परम्पराओं के सहारे…By-Tajinder Singh

Tajinder Singh
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प्रतीक और परम्पराओं के सहारे…
मेरा घर जिस जगह है वो प्राइवेट इलाका है। मेरे घर से एक किलोमीटर की दूरी से टाटा कंपनी का इलाका शुरू हो जाता है। यहां है चौड़े चौड़े रोड, चारो तरफ लगे वृक्ष। वृक्षों का एक जंगल है यहां। आप हर चौथे घर मे आम का वृक्ष पाएंगे। हरियाली से भरपूर इलाका है ये।

लेकिन मेरा इलाका प्राइवेट होने के कारण न रोड उतने चौड़े हैं न ही लोगों ने हरियाली के लिए जगह छोड़ी है। कंक्रीट का जंगल है ये। गर्मी के दिनों में शाम को इस एक किलोमीटर के रास्ते से गुजरो तो ऐसा लगता है जैसे आप किसी गर्म सुरंग से गुजर रहे हों। लेकिन टाटा कम्पनी का इलाका शुरू होते ही आपको तापमान में 3 से 4 डिग्री की कमी तत्काल महसूस होगी।

वृक्षो का महत्व केवल वर्षा या ऑक्सीजन के लिए ही नही बल्कि ये गर्मी को अवशोषित करने का काम भी बखूबी करते हैं। लेकिन वृक्षों के इतने महत्व के बाद भी निर्दयतापूर्वक रोज उनकी हत्या हो रही है।

एक थे सुंदर लाल बहुगुणा जिन्होंने उत्तराखंड में पेड़ो को बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया। जिसकी बदौलत कितने जंगल कटने से बच गए। ऐसे ही झारखंड के घाटशिला में एक स्त्री है जमुना टुडु। इन्हें लेडी टार्जन भी कहा जाता है। इनका जिक्र यहां इस लिए जरूरी है कि इन्होंने अपने इलाके में घटते और कटते जंगलों को बचाने के लिए इलाके की स्त्रियों को लेकर एक मुहिम शुरू की। ये स्त्रियां बकायदा समूह बना कर अपने इलाके के जंगलों की रक्षा करती हैं। इसके लिए जंगल माफियों से उन्हें धमकियां भी मिलती हैं। लेकिन संगठित होकर इन्होंने उनका मुकाबला किया।
ऐसी ही एक और स्त्री हैं…सिरका मुर्मू। जिनके प्रयासों से 200 एकड़ जमीन पर आज जंगल लहलहा रहा है।

जंगलों का महत्व समझने वाले आदिवासियों में ये मुहिम जोर पकड़ रही है। मेरे ख्याल में आदिवासी ही हैं जो जंगलों के महत्व को समझते हैं और उन्हें बचाने की चेष्टा भी करते हैं।


उड़ीसा के नियामगिरी का उदाहरण हमारे सामने है। वहां जब वेदांता कम्पनी माइनिंग के लिए आई तो उन्होंने सबसे पहले आदिवासियों को उनके देवता का एक विशाल मंदिर बनाने का वादा किया। जैसा कि अक्सर लोग धर्म को आगे कर लोगों को ठगते हैं। इस पर आदिवासियों ने कहा कि उनके देवता तो ये पहाड़ और वृक्ष हैं। उनका देवता खुले में किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर ज्यादा प्रसन्न होगा। बनिस्पत किसी चमकते दमकते मंदिर के। अंततः वेदांता कम्पनी को विरोध के चलते पीछे हटना पड़ा।

आज 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के दिन वृक्षों जंगलों की बात तो होनी ही चाहिए। लेकिन इससे अलग एक खास बात का जिक्र भी यहां करना चाहूंगा। कुछ दिन पहले वट सावित्री पूजा थी। मैंने देखा कि ढेरो स्त्रियां पूजा की थाली लिए, तैयार होकर वट वृक्ष की पूजा कर रही है। किसी ने मुझे बताया कि ये उत्तर भारत के करवा चौथ के समान ही है। जिसमे सुहाग की रक्षा के लिए वृक्ष की पूजा की जाती है।

पिछले वर्ष मैंने देखा कि जिस वट वृक्ष की स्त्रियां पूजा कर रही थीं। धागा बांध रही थीं। वो वृक्ष अगले वर्ष सड़क चौड़ीकरण में खुद ही शहीद हो गया। खैर इससे पूजा करने वाली स्त्रियों को कोई फर्क नही पड़ा। अगले वर्ष उन्होंने पूजा के लिए दूसरा वृक्ष चुन लिया। दरअसल चिंता वृक्ष की तो थी ही नही। चिंता तो सुहाग की थी।

ऐसी ही एक पूजा है। छठ पूजा। इसमें किसी जल स्त्रोत के पास सूर्य देव की पूजा की जाती है। छठ से पहले सरकार नदी तालाबो घाटों की सफाई वगैरह करवाती हैं। लेकिन पूजा के बाद अगले एक साल के लिए फिर हम अपने जल स्त्रोतों को भूल जाते हैं। मुझे याद है बचपन मे मेरे शहर की दो नदियों के किनारों पर दूर दूर तक बालू हुआ करता था। जिस पर ककड़ी, खीरा, तरबूज जैसे मौसमी चीजे लगाई जाती थी। लेकिन आज बालू कहीं भी नजर नही आता। नदी के घाटों तक को एनक्रोच कर घर बना लिए गए हैं। शायद कमोबेश यही स्थिति हरेक जल स्त्रोत की हैं

जंगल, नदी पहाड़, प्रकृति से जुड़ा हमारा धर्म और हम आखिर कहां आ गए। ईमानदारी से कहूं तो यही बाते मुझे व्यथित करती हैं। हम कब तक सच्चाइयों से मुंह छुपाते रहेंगे? हम कब तक गंगा आरती करते हुए गंगा को और बदहाल करते रहेंगे? हम कब तक प्रतीकों और परम्पराओं में उलझे रहेंगे। जबकि हकीकत ये है कि प्रति दिन पांच लाख हेक्टेयर भूमि का जंगल समाप्त हो रहा है। प्रति वर्ष 1 प्रतिशत जंगल भूमि घटती जा रही है। हमारे जल स्त्रोत समाप्त हो रहे हैं या दूषित होते जा रहे हैं। क्या हम वृक्षों को पूजने और धागा बांधने की जगह एक नया वृक्ष लगा कर इस त्योहार को मनाने की नई परंपरा नही शुरू कर सकते? क्या केवल जल स्त्रोतों को पूजने और उन्हें मां समान मानने से ही समस्या सुलझ जाएगी?

केवल यही नही, हम सब के बहुत से त्योहार समय के साथ बदलाव मांगते हैं। लेकिन परम्परावादी इतना दिमाग लगाने की जहमत नही उठाते। एक बंधी बंधाई लीक पर चलना उनके लिए गर्व की बात है।

काश हमारा देवता भी किसी विशाल धर्म स्थल के बजाय किसी जंगल के खुले वृक्ष तले रहता तो शायद प्रकृति भी बची रहती और हम भी। जिस रफ्तार से लोग घरों में ऐसी लगवा रहे हैं। शायद आने वाले दिनों में हम अपनी पृथ्वी को एक गर्म भट्टी में तब्दील कर देंगे। और इस भट्टी में इंसान के साथ उसके सारे प्रतीक और परम्पराएं भी जल कर खाक हो जाएंगी।