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फ़िलिस्तीन में जारी जंग का अस्ली ज़िम्मेदार अमरीका है : अमरीकी मैगज़ीन फ़ारेन पालीसी का लेख!

अमरीकी मैगज़ीन फ़ारेन पालीसी ने अपने लेख में अमरीकी सरकार पर गंभीर आरोप लगाया है कि इस समय फ़िलिस्तीन में जारी जंग का अस्ली कारण अमरीका है।

स्टीफ़न वाल्ट ने अपने लेख में लिखा कि इस समय इस्राईली भी और फ़िलिस्तीनी भी अपने मरने वालों का ग़म मना रहे हैं और लापता लोगों के बारे में सूचना का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहे हैं। इस समय हर कोई एसे व्यक्ति की तलाश में है जिसे क़ुसूरवार ठहराकर उसकी निंदा की जाए। इस्राईल और उनके समर्थक हमास को हर चीज़ का ज़िम्मेदार ठहराना चाहते हैं, मगर फ़िलिस्तीन मुद्दे से सहानुभूति रखने वालों की यह सोच है कि जो हुआ है वो दशकों से इस्राईल की तरफ़ जारी ग़ैर क़ानूनी क़ब्ज़े और फ़िलिस्तीनियों पर उसके लगातार हमलों का स्वाभाविक नतीजा है।

अब अगर हम यह ढूंढने लगें कि किस पक्ष का दोष ज़्यादा है तो निश्चित तौर पर दूसरे बहुत से बड़े अहम कारणों और कारकों से हमारा ध्यान हट जाएगा जो फ़िलस्तीन संकट से बहुत क़रीबा का संबंध तो नहीं रखते लेकिन हमारे दिमाग़ से इन कारकों का हटना दुरुस्त भी नहीं है यहां तक कि वर्तमान संकटमय हालात में भी। क्योंकि एसा होने की स्थिति में उसके दुष्परिणाम ज़्यादा समय तक जारी रहेंगे।

पांच घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने हालात को इतना बिगाड़ दिया और नतीजे में वो दृष्य सामने आए जिन्होंने पिछले दो सप्ताह के दौरान सबको हिलाकर रख दिया है।

शुरुआत वर्ष 1991 में फ़ार्स खाड़ी में होने वाली पहली जंग से होती है और उसके बाद मैड्रिड कान्फ़्रेंस के जो नतीजे सामने आए उनका रोल बहुत अहम है। इस मौक़े पर अमरीका मध्यपूर्व के मामलों में सबसे बड़ी और प्रभावशाली ताक़त के रूप में उभरा और उसने क्षेत्रीय व्यवस्था बनाने की कोशिश कर दी जो उसके हितों की रक्षा करे।

मैड्रिट सम्मेलन को कुछ ख़ास नतीजे तो सामने नहीं आए, बस शांति समझौता हो गया लेकिन इससे अमरीका को क्षेत्रीय व्यवस्था या एलायंस तैयार करने का मौक़ा मिल गया साथ ही एक अभिषाप का बीज भी बो दिया गया जिसके आगे चलकर बड़े विनाषकारी असर देखे गए।

सम्मेलन में ईरान को शामिल नहीं किया गया। ईरान ने पूरे इलाक़े में अपना अलग एलायंस बनाया उसने हमास और जेहादे इस्लामी सहित फ़िलिस्तीनी संगठनों से संपर्क बढ़ाया। इस तरह ईरान ने अमरीका और उसके घटकों के सामने अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन कर दिया कि उसे अपने हितों की रक्षा अपने तरीक़े से करनी आती है।

दूसरी घटना 11 सितम्बर 2001 के हमले थे और उसके बाद इराक़ के ख़िलाफ़ अमरीका का हमला था। इस घटना का फ़िलिस्तीन इस्राईल विवाद से सीधा संपर्क नहीं था अगर था तो बस इस हद तक कि इराक़ की सद्दाम सरकार ने फ़िलिस्तीन का कई तरीक़ों से समर्थन किया था।

इसके नतीजे में इराक़ अमरीका के लिए हक़ीक़त में भयानक दलदल बन गया और ईरान की ताक़त बहुत तेज़ी से बढ़ी। इलाक़े में शक्ति का संतुलन बदला तो सऊदी अरब और दूसरे देश चिंता में पड़ गए। ईरान को संयुक्त ख़तरे के रूप में पेश किया जाने लगा और क्षेत्रीय एलायंस नए सिरे से बनने लगे। इसमें कुछ अरब देशों के इस्राईल से रिश्तों की प्रवृत्ति भी बदली।

जब सब कुछ हाथ से निकल चुका था तो ट्रम्प सरकार ने एक ग़लती यह कर दी कि 2015 की ईरान परमाणु डील से निकल गए और अधिकतम दबाव की नीति अपना ली।

इस मूर्खतापूर्ण फ़ैसले के बहुत बुरे नतीजे निकले। ईरान का परमाणु कार्यक्रम विस्तृत हुआ और फ़ार्स खाड़ी में तेल टैंकरों पर हमलों की घटनाएं हुईं और समस्या बढ़ती गई।

चौथी घटना यह समझौते थे जो अब्राहम एकार्ड के नाम से किए गए। इन समझौतों से मगर कुछ भी हासिल नहीं हुआ क्योंकि जिन देशों ने इस्राईल से यह समझौता किया वो पहले भी इस्राईल की दुश्मन नहीं थे या न ही इस्राईल को परेशान करने की उनमें क्षमता थी। आलोचकों ने उसी समय कहा कि जब तक 70 लाख फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों के भविष्य का फ़ैसला नहीं हो जाता उस समय तक इस प्रकार के समझौते कामयाब हो ही नहीं सकते।

पांचवी चीज़ कोई एक घटना नहीं बल्कि अमरीका की नाकामियों की प्रक्रिया है। वो शांति प्रोसेस को कभी भी सफलता से अंत तक नहीं पहुंचा सका है। ओस्लो समझौते से लेकर बाद के समझौतों तक अमरीका ने निगरानी की ज़िम्मेदारी संभाली मगर उसकी कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला।

यह अमरीका का दुर्भाग्य है कि इन पांच घटनाओं और इलाक़े पर उनके प्रभावों से विरोध और रेज़िस्टें के स्टैंड को बल मिला।

इस्राईल को उस समय तक शांति मिल ही नहीं सकती जब तक फ़िलिस्तीनियों को शांति और न्याय न मिल जाए। जब हम वाशिंग्टन को खुली छूट दे देंगे तो इसी तरह की दुर्दशा का सामना करना पड़ेगा। अमरीकी नेताओं ने बार बार अपने अमल से साबित किया है कि उनके सूझबूझ और सब्जेक्टिविटी की बहुत सख़्त ज़रूरत है और यह उनके पास नहीं है।