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फूलमती और रामरती की डोर!

Shambhunath Shukla
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फूलमती और रामरती की डोर!
इतिहास सिर्फ़ राजाओं, महाराजाओं, नवाबों और बादशाहों का ही नहीं होता। इतिहास को समझने के लिए एक रास्ता समाज से हो कर जाता है, जिसमें फूलवती होगी, रामरती होगी या जुम्मन मियाँ और रजिया भी। इस इतिहास के लिए आपको गली-कूचों में जाना होगा। उनकी डोर को पकड़ कर उनके अतीत में जाना होगा और तब निष्कर्ष निकालने होंगे। लेकिन हड़बड़ी में हम इतिहास की इस खोज को ख़ारिज कर देते हैं। अगर इतिहास को इस सूत्र से न समझा गया, तो हम एक उस काल्पनिक इतिहास में जाएँगे, जिसमें या तो धर्म और जाति के आधार नफ़रत है अथवा तत्कालीन लेखकों द्वारा अपने आकाओं की चापलूसी। अमृतलाल नागर ने ‘ग़दर के फूल’ में उन्नाव के बैसवाड़े से लेकर फ़ैज़ाबाद तक गान-गांव में रह रहे तमाम फूलमतियों का ज़िक्र किया है। उसे पढ़ कर हम एक सच्चे इतिहास में पहुँचते हैं।

आज भी राजगोपाल सिंह वर्मा जैसे इतिहास लेखक फूलमती और रामरती की ही डोर को पकड़ रहे हैं। अपनी ताज़ा पुस्तक “चिनहट” में उन्होंने इन पात्रों को पकड़ा है। वर्ष 1857 में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध की बागडोर नवाब वाज़िदअली शाह से अपने हाथों में ली तो अवध के इस क्षेत्र के कई राजाओं, नवाबों और अमीरों में ग़ुस्सा तो फूटा ही, आम जनता में भी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा भरा। मेरठ में बग़ावत का बिगुल बज चुका था और वहाबी मौलवी अहमद शाह (डंका शाह) फ़ैज़ाबाद के रास्ते लखनऊ की तरफ़ था।

चूँकि वाज़िदअली शाह को हटाये जाने से किसी भी अमीर की भौहें नहीं चढ़ीं, इसलिए अंग्रेज बेख़ौफ़ थे। किंतु यहीं चतुर अंग्रेज धोखा खा गए। लखनऊ और बाराबंकी के बीच में इस्माइल गंज सुलगने लगा था। 28 मई 1857 को एक छोटे-से गुप्तचर ने लखनऊ के चीफ़ कमिश्नर लॉरेंस को जब चिनहट की सूचना दी तो वह भौंचक्का रह गया। अंग्रेज जब तक चेतते 30 जून को चिनहट में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध शुरू हो गया। बहुत से लोग मारे गए और अंग्रेजों की संपत्ति का नुक़सान हुआ। ख़ैर बाद में 1857 के पूरे विद्रोह को दबा दिया गया, किंतु फिर ग्रेट ब्रिटेन के साम्राज्य को दख़ल देना पड़ा और हिंदुस्तान का निज़ाम ईस्ट इंडिया कम्पनी से साम्राज्य ने अपने हाथों में ले लिया। यह ही अपने आप में विद्रोह की भारी सफलता थी।
राजगोपाल सिंह वर्मा की यह पुस्तक अवध के विद्रोह के कारणों और तब की सामाजिक स्थिति से परिचित कराती है। सेतु प्रकाशन से छपी इस पुस्तक का मूल्य है 325 रुपए और पेज़ हैं 232, कुल मिला कर यह किताब पढ़नी चाहिए।

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