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फ्रीडम ऑफ़ स्पीच दिन ब दिन छीनी जा रही है…. सरकार…. ऐसा माहौल आप क्यों बना रहे हैं?

Shyam Meera Singh
@ShyamMeeraSingh
हम सब आपस में इस बात पर सहमत हैं कि सभी को इस देश को लीड करने का हक़ है। लेकिन मुद्दा नेता पढ़े लिखे होने या अनपढ़ होने का है ही नहीं।
मुद्दा इस बात का है कि क्या एक सामान्य सा ओपिनियन रखने पर ही एक टीचर को नौकरी से निकाल देना चाहिए? हम कैसी परंपरा बना रहे हैं?

हम फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच के साथ हैं। हम इस देश में लोकतांत्रिक परंपराओं को और अधिक स्थायित्व करने के साथ हैं। हम नहीं चाहते कि हम ऐसा भारत बनाएँ जहां अध्यापकों, पत्रकारों, डॉक्टरों को सामान्य बात रखने भर पर ही निकाल दिया जाए। हम इस देश के संविधान के साथ हैं। एक अध्यापक ने अपना ओपिनियन रखा। जबकि उसका पूरा एक प्रसंग था। पर उससे सहमति/असहमति दोनों ही परिस्थितियों में उसे नौकरी से निकाल देना नितांत अपराध है। इस देश के लोकतंत्र को कुचलने जैसा है। बीते दिनों से छोटी छोटी बातों पर गरीब कर्मचारियों की नौकरियाँ छीनी जा रही हैं। हम ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देने के ख़िलाफ़ हैं। ये स्पष्ट है। ये जो बहस बीच में लाई गई कि अपढ़ नेताओं को भी चुने जाने का अधिकार हैं ये एकदम अनावश्यक थी। सबके सब सहमत हैं कि हाँ अपढ़, डिग्रीधारी, ग़ैर डिग्रीधारी, अमीर, गरीब सबको चुने जाने का अधिकार है। इससे सब पहले भी सहमत थे। आगे भी रहेंगे। लेकिन इस बहस ने बीच में जन्म लेकर सरकार की लाइन का काम किया। सरकार से सवाल पूछे जा रहे थे कि ऐसा माहौल आप क्यों बना रहे हैं कि प्राइवेट कंपनियाँ सेल्फ सेंसर्ड हो गईं हैं। गरीब कर्मचारियों को निकाला जा रहा है। फ्रीडम ऑफ़ स्पीच दिन ब दिन छीनी जा रही है। जनता के उस आक्रोश के बीच में इस बहस ने सरकार की ढाल का काम किया है। उसे बचाया है। मुद्दे से भटकाया है। ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम इस बात को समझ नहीं रहे।

मैं एकबार फिर दोहरा रहा हूँ हम फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के साथ हैं। लोकतांत्रिक परंपराओं को जीवित रखने के साथ हैं। हम करण सांगवान के साथ हैं। ये बात करण संगवान की नहीं है। ये हम सबकी साझा लोकतांत्रिक विरासत का मुद्दा है। जिसे हर दिन एक एक कुतरन काटा जा रहा है।

जय संविधान, जय भीम, जय भारत

डिस्क्लेमर : लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने निजी विचार और जानकारियां हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है, लेख सोशल मीडिया से प्राप्त हैं