साहित्य

बस यही सुनते सुनते बचपन बीत रहा था….By-Ravindra Kant Tyagi

Ravindra Kant Tyagi
=============
·
———– टाइमिंग ———
मैं, मेरा दोस्त नायडू और ऑल्विन कई महीने से नासा में रोबोट से सम्बंधित एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे. पिछले तेरह घंटे से तो किसी ने चाय तक नहीं पी थी.

नायडू ने अंगड़ाई लेते हुए कहा “चलो यार, कैंटीन में चलकर चाय पीते हैं.”

कैंटीन के पारदर्शी शीशे से बाहर बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी. गर्मागर्म कॉफी देखकर सबको भूख का अहसास होने लगा. सबसे पहले नायडू ने कहा “कुछ खाना चाहिए.”

“बटर टोस्ट इस बैटर ऑफ्शन” ऑल्विन ने जोड़ दिया.

बटर टोस्ट हा हा. बटर टोस्ट से तो मेरे बचपन की बड़ी अनुपम यादें जुडी हुई हैं. कॉफी से उठती भाप को देखते देखते मैं बचपन की यादों में खो गया.
पिताजी एक ‘साहब’ के यहाँ ड्राइवर की नौकरी करते थे. किसके यहाँ? कौन थे वो? आजतक नहीं पता क्यों कि हमारे लिए वो साहब थे बस. साहब ने सैलरी नहीं दी है अभी, साहब ने ईनाम दिया है, साहब ने आज सुबह छह बजे बुलाया है ….. बस यही सुनते सुनते बचपन बीत रहा था.

पिताजी अपनी शिक्षा के समय मेधावी छात्र थे किन्तु घर की परिस्थितियों ने उन्हें आगे पढ़ने नहीं दिया था. हर पिता की तरह कड़ी मेहनत करके अपने पुत्र को उस मुकाम तक पहुँचाना चाहते थे, जहाँ वे नहीं पहुँच पाए. इसी लिए उन्होंने पांचवीं पास करने के बाद मेरा एडमीशन अपने साहब की सिफारिश पर एक महंगे कॉन्वेंट स्कूल में करवा दिया था.

लंच में जब सब बच्चों के टिफिन खुलते तो बड़ी मनमोहक सुगंधों से डाइनिंग रूम भर जाता. अनेक प्रकार के ऐसे भोजन जिनका नाम तक मैंने कभी सुना नहीं था. पास्ता, मैक्रोनी, बर्गर, पित्ज़ा, और न जाने क्या क्या.

कुछ ही दिन में स्कूल का एक लड़का मेरा पक्का दोस्त बन गया था. हम साथ खेलते, साथ पढ़ते और साथ खाना खाते थे. एक दिन उसने मुझे अपने लंचबॉक्स में से निकलकर डबल रोटी का टुकड़ा दिया मगर वो साधारण डबलरोटी नहीं थी. उसे गुलाबी सेंक कर दोनों तरफ मीठा मक्खन लगाया गया था. कमाल का स्वाद था. दोस्त ने बताया कि इसे बटर टोस्ट कहते हैं.

शाम तक बटर टोस्ट का कुरकुरा मधुर स्वाद मेरे मुँह में घुलता रहा. भुलाये से नहीं भूल रहा था. घर जाते ही माँ से कहा “माँ, बटर टोस्ट खाना है.”
माँ घर के पुराने कपड़ों की मरम्मत में व्यस्त थी. उचटती सी निगाह से मेरी तरफ देखा और सुईं धागे पर निगाह जमाते हुए बोली “पालक कि सब्जी बनाई है. जा रसोई में जाकर खा ले.”

मगर बटर टोस्ट. मुझे ये भी डर था कि कहीं ये नाम मैं भूल न जाऊं. बार बार मन ही मन याद कर रहा था. बटर टोस्ट – बटर टोस्ट.
अब मैंने निश्चय किया कि बटर टोस्ट तो खाना है. माँ न सही, पिताजी लेकर देंगे. बड़े स्कूल की इतनी महंगी फीस जमा कर सकते हैं तो क्या बटर टोस्ट नहीं खिला सकते. शाम का बेताबी से इंतजार था मुझी.

आज पिताजी कुछ देर से आये थे. दूर से पैदल चलकर आने के कारण उनकी खाकी कमीज पसीने से भीगी हुई थी. चहरे पर दिन घर की थकान और कुछ तनाव सा परिलक्षित हो रहा था. उन्होंने जूते उतारे और एक कौन में रख दिए. फिर कमीज उतारकर खूंटी पर टांग दी और दीवार का सहारा लेकर बैठ गए. मैं बस मौके और मूड का इंतज़ार कर रहा था. माँ ने उन्हें एक ग्लास पानी लाकर दिया. उन्होंने पानी पीकर एक ठंडी स्वास ली. मुझे लगा कि इस से बेहतर मौका कोई और नहीं हो सकता. मैं पिताजी के निकट गया और धीरे से कहा.

“पिताजी बटर टोस्ट खाना है”.

“क्या! …. क्या खाना है?

“बटर टोस्ट खाना है.”
मैं उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा ही था कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा. पिताजी ने चिल्लाकर माँ को सम्बोधित करते हुए कहा “सुना, साहबजादे को बड़े स्कूल में जाते ही पर निकल आये हैं. साहब को बटर टोस्ट खाना है. इस से पूछे, इसका बाप कोई खानदानी रईस है या मिल मालिक. कल कहेगा कि नया सूट चाहिए. फिर कहेगा कि कार में स्कूल जाना है.

पढाई वढ़ाई करते हैं नवाब साहब या दिन भर चटखारे ही लेते रहते हैं.”
गाल पर जमे हुए आंसू के निशान लेकर ही मैं सो गया था.

सुबह स्कूल के लिए मैं जल्दी उठ जाता था. पिताजी अक्सर मेरे स्कूल जाने के बाद ही उठते थे. उन्हें नौ बजे जाना होता था. मगर आज पिताजी का बिस्तर खाली था.

मैं जल्दी जल्दी तैयार होकर अपना बस्ता लगा रहा था. “माँ, लंच बॉक्स तो ले आओ” मैंने चिल्लाकर कहा.

तभी पिताजी ने बहार से प्रवेश किया. उनके हाथ में एक गत्ते का डिब्बा था जिसमे बटर टोस्ट भरे हुए थे. मैं भागकर पिताजी से लिपट गया.
आज इतने बरस बाद मुझे लगता है कि शायद मेरी टाइमिंग ठीक नहीं थी.

“कहाँ खो गए हो चेतन” नायडू ने कहा ” देखो तुम्हारे बटर टोस्ट ठन्डे हो रहे हैं”.
बरबस ही मेरी हंसी फुट पडी. दोनों दोस्त मुझे आश्चर्य से देख रहे थे.
रवीन्द्र कान्त त्यागी