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बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने अमेरिका की कड़ी आलोचना की, बांग्लादेश और अमेरिका के बीच बढ़ा विवाद, क्या भारत बांग्लादेश की मदद करेगा : रिपोर्ट


भारत के अमेरिका और बांग्लादेश दोनों के साथ राजनयिक संबंध काफ़ी बेहतर है.
जानकार मानते हैं कि भारत, बांग्लादेश और अमेरिका के बीच संबंधों को बेहतर बनाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकता है.
लेकिन बांग्लादेश और अमेरिका के बीच विवाद क्या हैं और क्योंं भारत बांग्लादेश की मदद करेगा?

इन सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ें ये लेख

यह घटना ठीक एक साल पहले की है. दिल्ली के जवाहर भवन में विदेश मंत्रालय की साप्ताहिक ब्रीफिंग में सवाल पूछा गया कि क्या बांग्लादेश ने रैपिड एक्शन बटालियन (रैब) पर लगी अमेरिकी पाबंदी को ख़त्म करने के लिए भारत से सहायता मांगी है? ढाका में बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने तो ऐसा ही दावा किया है.

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची को एक बेहतरीन सूझ-बूझ वाला अधिकारी माना जाता है.

हर सवाल का फौरी जवाब उनके होठों पर ही रहता है.

लेकिन इस सवाल के लिए वे भी तैयार नहीं थे. लगा कि समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या जवाब दें.

आख़िर में धीरे-धीरे उन्होंने जो जवाब दिया उसका मतलब यह था कि बांग्लादेश ने अगर ऐसा अनुरोध किया भी हो तो उसका ब्योरा या इस मामले में भारत क्या कर रहा है, यह सार्वजनिक रूप से बताना शायद उचित नहीं होगा.

भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर उसी दिन सरकारी दौरे पर ढाका पहुंचे थे.

वहां उन्होंने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से मुलाकात की थी.

इस दौरे का ज़िक्र करते हुए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, “देखा जाए, पहले ढाका में दोनों विदेश मंत्रियों की बैठक ख़त्म हो. उसके बाद अगर आपको बताने लायक कुछ हुआ तो ज़रूरी बताऊंगा.”

लेकिन उसके बाद इस मामले में मीडिया को कोई सूचना नहीं दी गई.

लेकिन भारत ने इस बात की न तो पुष्टि की और न ही खंडन.

दरअसल, इस समय अमेरिका और बांग्लादेश, दोनों के साथ भारत का राजनयिक संबंध काफ़ी बेहतर है.

राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि इसी वजह से ढाका और वाशिंगटन के बीच कोई उलझन पैदा होने की स्थिति में उसे दूर करने के लिए भारत की कोशिश अस्वाभाविक नहीं है. ऐसा लंबे समय से होता भी रहा है.

लेकिन इस मामले के बेहद संवेदनशील होने के कारण दोनों पक्ष इस पर सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी करने से बचते रहे हैं. हालांकि बीते साल बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मेमन की रैब पर टिप्पणी को अपवाद कहा जा सकता है.

इसके अलावा लंबे समय से यह भी देखने में आया है कि भारत के दक्षिण एशिया में सबसे असरदार ताक़त होने के कारण इस इलाके के एक और अहम देश बांग्लादेश के मामले में अपनी नीतियों को तय करने में अमेरिका भारत की राय को अहमियत देता रहा है.

हालांकि हाल के दिनों में यह बात भी देखने में आई कि कुछ मामलों में भारत की अनदेखी करते हुए अमेरिका सीधे बांग्लादेश के साथ ‘डील’ कर रहा है.

बावजूद इसके इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि ढाका और वाशिंगटन के आपसी संबंधों पर भारत की छाया का असर तो है ही.

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हाल में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में जिस तरह अमेरिका की कड़ी आलोचना की और हाल के दिनों में दोनों देशों के संबंधों में कई उलझनें सामने आई हैं, ऐसी स्थिति में भारत की भूमिका और ज़्यादा प्रासंगिक हो गई है.


साझा हित, समान चुनौतियां

भारत की पूर्व राजनयिक रीवा गांगुली दास तीन साल पहले ढाका में राजदूत की ज़िम्मेदारी निभा रही थी. लेकिन वे इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि किसी मुद्दे पर बांग्लादेश के साथ अमेरिका के मतभेद की स्थिति में भारत उसमें हस्तक्षेप करता है.

पूर्व उच्चायुक्त रीवा ने बीबीसी बांग्ला से कहा, “मैं तो कहूंगी कि बांग्लादेश एक स्वाधीन और सार्वभौम राष्ट्र है. भारत अगर उनके किसी मुद्दे पर किसी तीसरे देश पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की कोशिश करे तो यह बात वो (बांग्लादेश) क्यों पसंद करेंगे.”

रीवा गागुंली कहती हैं कि बांग्लादेश और अमेरिका, दोनों भारत के घनिष्ठ मित्र हैं. भारत के साथ इन दोनों के आपसी संबंधों में जिस तरह कई साझा हित शामिल हैं, उसी तरह कई साझा चुनौतियां भी हैं.

वे कहती हैं, “अब यह तो ग़लत नहीं है कि इनमें से किसी मुद्दे पर उठने वाले सवाल पर भारत अपने हित में उसका समाधान करना चाहेगा. वह चाहेगा कि उसके दोनों घनिष्ठ मित्रों के आपसी संबंध भी बेहतर रहें.”

वहीं हकीकत ये है कि हाल के दिनों में बांग्लादेश ने अपनी कुछ निजी समस्याओं के समाधान के प्रयास में भारत से सार्वजनिक तौर पर सहायता मांगी है.

मिसाल के तौर पर बांग्लादेश कई बार यह अनुरोध कर चुका है कि रोहिंग्या लोगों की वापसी का रास्ता सुगम बनाने के लिए भारत अपने ‘मित्र’ म्यांमार पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे. दोनों देशों के साझा घोषणापत्र में भी इस बात का ज़िक्र है.

रूस पर पाबंदी के कारण बांग्लादेश के रूपपुर परमाणु केंद्र के लिए उपकरणों के साथ आने वाला रूसी जहाज जब बांग्लादेश के बंदरगाह पर नहीं रुक सका था तो भारत ढाका की सहायता के लिए आगे आया था.

भारत ने मास्को के साथ दिल्ली के बेहतर संबंधों का भी इस्तेमाल किया था.

दिल्ली में विदेश नीति विशेषज्ञ और बीजेपी की राजनीति के समीक्षक शुभ्रकमल दत्ता मानते हैं कि अमेरिका के साथ भी यही बात लागू होती है.

उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, “दिल्ली और ढाका के संबंध ऐसे हैं कि शेख हसीना अगर नरेंद्र मोदी से कोई मुश्किल अनुरोध भी करती हैं तो उसकी अनदेखी करना संभव नहीं है. अभी कुछ ही दिन पहले जापान में हमने देखा कि नरेंद्र मोदी और जो बाइडन के निजी संबंध कितने मजबूत है.”

दत्ता कहते हैं, “इस संबंध को देख कर कोई संदेह नहीं है कि बाइडन और शेख हसीना में किसी मुद्दे पर मतभेद या दूरियां पैदा होने की स्थिति में नरेंद्र मोदी निजी तौर पर उस मामले में हस्तक्षेप कर ग़लतफहमी दूर करने में सक्षम हैं. और मेरा मानना है कि ऐसी स्थिति में वो ऐसा करेंगे भी.”

दत्त याद दिलाते हैं कि भारत ने इस मामले में भी काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी कि अमेरिका सवालों के घेरे में रहे बांग्लादेश में हुए 2014 और 2018 के आम चुनाव को स्वीकार करे.

रैब और राशिद से समस्या

बीबीसी बांग्ला ने बांग्लादेश और अमेरिका के संबंध में भारत की भूमिका पर कई पूर्व राजनयिकों से बात की है.

उनमें से कइयों ने ढाका में भारतीय राजदूत के तौर पर या दिल्ली में बांग्लादेश डेस्क पर भी काम किया है.

लेकिन इस मामले के बेहद संवेदनशील होने की वजह से कइयों ने नाम छापने से मना किया है. पर कइयों ने इस मामले में जो जानकारी दी है वह बेहद रोचक हैं.

ऐसे ही एक पूर्व राजनयिक का कहना था, “बांग्लादेश में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर अमेरिका जिस तरह सार्वजनिक रूप से विपक्षी दल पर तंज कसता है या विपक्षी नेताओं के साथ बैठकें करता है, वह भारत को पसंद नहीं है. अपेक्षाकृत छोटा देश होने के कारण ही शायद बांग्लादेश में यह सब करना संभव है.”

“भारत में भी अमेरिकी दूतावास अगर यहां के विपक्षी दलों के साथ ऐसा करता तो केंद्र में सत्तारूढ़ कोई भी पार्टी इसे पसंद नहीं करती. ऐसे में दिल्ली का मानना है कि इस मामले में अवामी लीग की नाराज़गी वाजिब ही है.”

वह बताते हैं कि भारत में हाल में अमेरिका के साथ बातचीत में कई बार इस मुद्दे को उठाया है.

भारत ने अमेरिका को कई बार बांग्लादेश के लोकतंत्र पर सवाल उठाने की बजाय जनादेश को स्वीकार करने की भी सलाह दी है.

एक अन्य पूर्व राजनयिक ने अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहा, “भारत की राय में बांग्लादेश और अमेरिका में जिन मुद्दों पर मतभेद हैं वह इतने गंभीर नहीं हैं कि उन पर समझौता नहीं किया जा सकता.”

उनका कहना था, “मैं दो समस्याओं के बारे में बात कर सकता हूं. पहला, रैब के अधिकारियों पर पाबंदी. बांग्लादेश सरकार का यह सवाल अब भारत के लिए भी सवाल है कि जिस एलीट फोर्स का गठन अमेरिका की सलाह पर ही किया गया था वह अब उसकी आंखों का कांटा कैसे बन गया?”

दूसरा सवाल, “राशिद चौधरी का अमेरिका में शरण लेना है. भारत इसे भी वैध सवाल ही मानता है कि बांग्लादेश के राष्ट्रपिता की हत्या के अभियुक्त होने के बावजूद वह किस आधार पर अमेरिका में रह रहा है और उसे बांग्लादेश को सौंपा क्यों नहीं जा रहा है? “

उन्होंने संकेत दिया कि भारत ने इन दोनों मुद्दों को कई बार विभिन्न स्तर पर अमेरिका के सामने उठाया है.

भारत में राजनीतिक समीक्षक याद दिलाते हैं कि बांग्लादेश के जन्म के समय अमेरिका ने पूरी ताकत से इसमे रोड़े अटकाए थे और इस इतिहास के महज पचास साल पुराना होने के कारण इसकी यादें लोगों के मन में धुंधली नहीं पड़ी हैं.

एक राजनयिक विश्लेषक कहते हैं, “ढाका और वाशिंगटन के संबंधों में कुछ कड़वाहट तो रहेगी ही, लेकिन अगर उसे दूर करने के लिए भारत को कुछ करना हो तो वह इससे पीछे नहीं हटेगा.”

दिल्ली स्थित राजनीतिक समीक्षक का कहना है कि बांग्लादेश ने हाल में अपनी जिस बहुप्रतीक्षित इंडो-पैसिफिक नीति की घोषणा की है, उसमें भी चीन की तरफ झुकने की बजाय एक संतुलित रुख अपनाने की बात कही गई है.

अमेरिका के साथ उसके संबंधों पर इसका भी सकारात्मक असर पड़ेगा.

इसमें भारत का हित क्या है?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली-ढाका-वाशिंगटन के इस राजनीतिक त्रिभुज में पारस्परिक हितों का गणित भी मजबूती से जुड़ा है.

यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर भारत का कोई फ़ायदा नहीं होने की स्थिति में वह बांग्लादेश और अमेरिका के आपसी संबंधों को सुगम बनाने का प्रयास ही नहीं करेगा.

हावर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता और एशिया सोसाइटी के फेलो अनु अनवर ने अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द डिप्लोमेट’ में चार महीने पहले काफी हद तक इसी मुद्दे पर एक लेख लिखा था.

उसमें उन्होंने दावा किया कि बांग्लादेश के मुद्दे पर चीन और अमेरिका में भू-राजनीतिक युद्ध जारी रहने के बावजूद इस लड़ाई में दरअसल भारत की ही जीत हो रही है. वह अपना संसाधन खर्च किए बिना ही बीजिंग और वाशिंगटन को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने में कामयाब रहा है.

उन्होंने अपने लेख में ऐसे मूल्यांकन की वजहों की विस्तार से व्याख्या की है.

उनकी दलील है, “बांग्लादेश का आम चुनाव क़रीब आने के साथ ही पश्चिमी ताक़तें मुक्त और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए बांग्लादेश पर लगातार दबाव बढ़ा रही हैं. लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद भारत इस रास्ते पर नहीं चल रहा है. उल्टे वह अवामी लीग सरकार को ऐसे बाहरी दबाव से बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहा है.”

अनु अनवर को मुताबिक, “भारत जानता है कि लोकतंत्र के मुद्दे पर बांग्लादेश पर गोपनीय रूप से दबाव डालने पर वहां उसके समर्थन की नींव हिल जाएगी. इसी वजह से उसने यह ‘काम’ अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों पर छोड़ दिया है. दूसरी ओर, वह ख़ुद ऐसे क़दम उठा रहा है जिससे शेख हसीना सरकार को मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़े.”

उस लेख में कहा गया है कि इससे दिल्ली पर ढाका की निर्भरता लगातार बढ़ रही है और भारत जानबूझकर ऐसा कर रहा है. वह जानता है कि बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के सत्ता में रहने तक उसे उम्मीद से ज़्यादा मिलेगा.

तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि भारत ठीक इन्हीं वजहों से बांग्लादेश और अमेरिका के आपसी संबंधों को सुगम बनाने की दिशा में और भी सक्रिय और प्रयासरत होगा.

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शुभज्योति घोष
पदनाम,बीबीसी बांग्ला, दिल्ली

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