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भारत में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के युवा कैडर के अधिकारी बड़ी तादाद में नौकरी छोड़ रहे हैं, इसके पीछे की वजह जानिये!

 

केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के युवा कैडर के अधिकारी नौकरी छोड़ रहे हैं। इसके पीछे कई वजह बताई जा रही हैं। बलों के शीर्ष नेतृत्व के दरबार में इन अधिकारियों की ठीक तरह से सुनवाई न होना, एक बड़ी वजह है। दूसरा कारण, युवा कैडर अफसरों का पदोन्नति के मोर्चे पर बुरी तरह पिछड़ना है। गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 242वीं रिपोर्ट में कहा है कि गत पांच वर्ष में सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी, एसएसबी, सीआईएसएफ और असम राइफल्स में 50155 कर्मियों ने नौकरी को अलविदा कह दिया है। पिछले सप्ताह आईटीबीपी के सहायक कमांडेंट सुमित शर्मा ने राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र भेज दिया है। इसमें उन्होंने कई ऐसे कारणों का उल्लेख किया है, जिसके चलते उन्हें बल को अलविदा कहने जैसा कठोर कदम उठाना पड़ा है। गत वर्ष सीआरपीएफ के सहायक कमांडेंट सर्वेश त्रिपाठी ने भी त्यागपत्र दे दिया था। देश के सबसे बड़े केंद्रीय अर्धसैनिक बल में भी पांच वर्ष के दौरान लगभग डेढ़ सौ युवा कैडर अफसर नौकरी छोड़ चुके हैं।

निजी और पारिवारिक जीवन के साथ करना पड़ा समझौता

आईटीबीपी के सहायक कमांडेंट (एग्जी) सुमित शर्मा ने सात जुलाई को राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र भेज दिया है। उन्होंने अपने त्यागपत्र के सब्जेक्ट में लिखा है कि वे ‘कार्य जीवन संघर्ष’ के चलते सेवा से त्यागपत्र दे रहे हैं। हालांकि सहायक कमांडेंट ने आगे विस्तार से उन कारणों का उल्लेख भी किया है, जिनकी वजह से उन्होंने सेवा छोड़ने का फैसला किया है। सेवा के दौरान उनके चारों तरफ जो परिस्थितियां रहीं, उनके चलते सुमित को अपनी निजी और पारिवारिक जीवन के साथ समझौता करना पड़ा। सुमित ने लिखा, मेरे त्यागपत्र की प्रारंभिक वजह, मां बाप की देखरेख ठीक से नहीं करना रहा है। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि वे अपने कार्य उत्तरदायित्व और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच संतुलन नहीं बैठा पा रहे थे।

तय समय बाद भी नहीं मिल सकी पदोन्नति

सुमित ने अपने त्यागपत्र में निजी जीवन के बारे में भी लिखा है। आईटीबीपी में कार्य की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अपनी पत्नी के साथ न्याय कर पाते। वैवाहिक संबंधों में तनाव आने लगा। ड्यूटी की प्रकृति के चलते इतना ज्यादा तनाव रहा कि वे फैमिली प्लानिंग तक नहीं कर पा रहे थे। निजी जीवन के प्रति मेरे संगठन का अवहेलना पूर्ण रवैया रहा, जिसके चलते एक स्वस्थ वर्क लाइफ संतुलन नहीं बन सका। तय समय बाद भी पदोन्नति नहीं मिल सकी। पदोन्नति के मोर्चे पर पिछड़ना, इस बात से मेरे उत्साह और लग्न को गहरी ठेस लगी। इन परिस्थितियों में मेरे लिए करियर ग्रोथ और विकास, इस ओर सोचना बेमानी सा हो गया। ईएचए और एचए टेन्योर पूरा करने के बाद भी मुझे शांत इलाके में तैनाती नहीं दी गई। ये हालात तब बने, जब मैं इसके लिए सभी शर्तें पूरी करता था। ट्रांसफर पॉलिसी के औचक बदलाव ने मुझे निराश किया।

‘युगल पोस्टिंग’ का आधार भी नहीं माना गया

बतौर सुमित, नियमित ट्रांसफर जो तय नियमों के मुताबिक था, वो भी मुझे नहीं दिया गया। आईटीबीपी के अंदर ट्रांसफर पॉलिसी का पारदर्शी न होना, इसने भी मुझे त्यागपत्र के लिए मजबूर किया। करुणामय आधार पर तबादले की अर्जी भी स्वीकार नहीं की गई। यहां तक कि केंद्र सरकार की सेवाओं में ‘युगल पोस्टिंग’ का आधार, यह नियम भी नहीं माना गया। इसके चलते सहायक कमांडेंट पूरी तरह से टूट गए। इसके बाद जब इन मुद्दों को लेकर बल के डीजी से बात करने के लिए समय मांगा गया तो टालमटोल कर दिया गया। बतौर सुमित, इन सब परिस्थितियों में मेरे लिए बल को अलविदा कहने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैंने महसूस किया कि मैं अपनी मानसिक शांति और सामाजिक जीवन की कीमत पर नौकरी नहीं कर सकूंगा। सात जुलाई को भेजे अपने त्यागपत्र में सुमित ने लिखा, यही फैसला, मेरे जीवन के हित में है। बता दें कि एक सहायक कमांडेंट की ट्रेनिंग के दौरान वेतन भत्तों को मिलाकर लगभग पचास लाख रुपये खर्च हो जाते हैं।

आईटीबीपी को लेकर संसद में भी उठा है मुद्दा

केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में सीधी भर्ती के जरिए ‘सहायक कमांडेंट’ बनने वाले युवा अधिकारी आखिर नौकरी क्यों छोड़ रहे हैं, गत फरवरी में संसद की कार्यवाही के दौरान लोकसभा सांसद रवनीत सिंह ने यह मुद्दा उठाया था। सिंह ने पूछा था, क्या सरकार को जानकारी है कि हाल के वर्षों में सीमा प्रहरी बल, ‘आईटीबीपी’ में विशेषकर सहायक कमांडेंट ‘एसी’ के स्तर पर बड़ी संख्या में सैनिकों ने नौकरी छोड़ी है। इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा, आईटीबीपी में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या अधिक नहीं है। पिछले दस वर्षों के दौरान नौकरी छोड़ने की औसत दर आमतौर पर एक समान रही है। यह देखा गया है कि अधिकारी बेहतर करियर के अवसरों का लाभ उठाने के लिए अथवा कुछ बाध्य करने वाली घरेलू परिस्थितियों के कारण त्यागपत्र देते हैं। बीएसएफ के पूर्व एडीजी एसके सूद बताते हैं कि केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में कैडर अफसरों के पर्सनल मैनेजमेंट इश्यू को गंभीरता से देखने की जरूरत है। जवानों की समस्याओं पर भी ठीक इसी तरह ध्यान दिया जाए। दरअसल, फोर्स में बाहर से जो लीडर होते हैं, उनका बल के साथ सही से कनेक्ट नहीं हो पाता। नतीजा, कैडर अफसरों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता।

यहां तो ‘पहचान’ के लिए लड़ना पड़ रहा है

गत वर्ष सीआरपीएफ को अलविदा बोल चुके सहायक कमांडेंट सर्वेश त्रिपाठी बताते हैं, सीआरपीएफ व दूसरे बलों में सीधे नियुक्त राजपत्रित अधिकारियों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बात केवल पदोन्नति या दूसरे आर्थिक फायदों की नहीं है। यहां तो ‘पहचान’ के लिए लड़ना पड़ रहा है। सीएपीएफ में मेडिकल कैडर, मिनिस्ट्रियल और यहां तक की वेटनरी डॉक्टर को भी समय पर पदोन्नति मिल जाती है, मगर एग्जीक्यूटिव कैडर के साथ हर मामले में भेदभाव होता है। सीआरपीएफ के एमटेक, बीटेक, आईआईटी व दूसरी डिग्री हासिल किए अधिकारियों को पदोन्नति से वंचित रखा जा रहा है। पॉलिसी के मोर्चे पर सरकार के निर्णय ठीक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने संगठित सेवा ‘ओजीएएस’ देने का आदेश दिया। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह घोषणा करने के लिए बाकायदा प्रेसवार्ता की थी। केंद्रीय कैबिनेट ने नोटिफाई किया, लेकिन आज तक लागू नहीं किया गया। जब ये नहीं हुआ तो नए सर्विस रूल्स भी नहीं बने। ऐसे में एग्जीक्यूटिव कैडर को पदोन्नति कैसे मिल सकती है।

करियर में तरक्की की स्थिति बहुत खराब

बतौर सर्वेश, हर पेशे का एक नाम होता है। संबंधित कैडर अधिकारी उससे पहचाने जाते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि सीआरपीएफ के युवा अधिकारियों को इसके लिए भी अदालत जाना पड़ा। चूंकि ये क्लास वन अधिकारी हैं, इसलिए अपनी सेवा का एक नाम चाहते हैं। आखिर ये किस सेवा में हैं, यह पता होना चाहिए। जैसे अखिल भारतीय सेवा में रेवेन्यू सर्विस, इंजीनियरिंग सर्विस या रेलवे की कई सेवाएं, सीआरपीएफ का भी एक ऐसा ही नाम चाहते थे। इसके लिए दिल्ली हाई कोर्ट में जाना पड़ा। केस अभी तक चल रहा है। आरपीएफ और सीआरपीएफ का एक जैसा ही केस था। आरपीएफ को आईआरपीएफएस नाम दे दिया गया। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीआरपीएफ को नाम नहीं दिया। पुरानी पेंशन व्यवस्था भी अब खत्म हो चुकी है। करियर में तरक्की की स्थिति बहुत खराब है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी संगठित सेवा का दर्जा न मिलना और न ही एनएफएफयू को सही तरीके से लागू करना, इन सभी में सरकार की मनमानी रही है। सीनियर्स द्वारा गैर जरूरी दबाव डाला जाता है। बल में साथ काम कर रहे मेडिकल कैडर और मंत्रालयिक शाखा के अधिकारियों को तुलनात्मक रूप से तेज प्रमोशन मिल रहा है। हर छोटे देय भत्ते जैसे एचआरए, टीए आदि के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है।