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मराठा आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र में बवाल, कई विधायकों के आवास और सरकारी भवनों पर तोड़फोड़ और आगज़नी: मराठा आरक्षण का क्या है मुद्दा, जानिये!

मराठा आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र में एक बार बवाल मचा गया है। मनोज जरांगे के नेतृत्व में 24 अक्तूबर से आंदोलन चल रहा है। उधर कई स्थानों पर आंदोलन हिंसक भी हो चुका है। प्रदर्शनकारियों द्वारा कई विधायकों के आवास और सरकारी भवनों पर तोड़फोड़ और आगजनी किए जाने की घटनाएं सामने आई हैं। राज्य के कई जिलों में इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

इस बीच, आरक्षण की मांग के समर्थन में भाजपा के एक विधायक और शिवसेना के एक सांसद ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इन तमाम घटनाक्रमों के बीच कहा जा रहा है कि यह मामला अभी शांत नहीं होने वाला है।

आइये जानते हैं कि मराठा आरक्षण का मुद्दा फिर क्यों उठा?
यूं तो महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग दशकों पुरानी है लेकिन इस साल अगस्त में यह मुद्दा दोबारा चर्चा में आया। दरअसल, मराठा नेता मनोज जरांगे के नेतृत्व में लोगों ने 29 अगस्त से जालना जिले में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू की थी। इसके साथ ही जरांगे ने मराठा समुदाय के लिए कुनबी जाति प्रमाण पत्र की मांग उठाई।

आंदोलन की अगुवाई करने वाले मनोज जरांगे पाटिल मूलत: बीड जिले के रहने वाले हैं। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचाने जाने वाले जरांगे शिवबा नामक संगठन के संस्थापक हैं।

लाठीचार्ज के बाद बिगड़ी स्थिति
29 अगस्त को शुरू हुआ आंदोलन जालना में पुलिस लाठीचार्ज के बाद हिंसक हो गया। 1 सितंबर को जिले के सराटी गांव में हिंसक भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया और आंसू गैस के गोले छोड़े थे। इसके साथ ही पुलिस ने घटना को लेकर कई लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए।

पुलिस की कार्रवाई के चलते राज्य की एकनाथ शिंदे सरकार भी बैकफुट पर आ गई। खुद राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने प्रदर्शनकारियों से माफी मांगी और कहा कि सरकार को पुलिस द्वारा बल प्रयोग पर खेद है।

इधर हिंसा के बाद भी आंदोलनकारी अपनी मांग पर अड़े रहे। इस बीच शिंदे सरकार के प्रतिनिधियों ने आंदोलन के अगुआ जरांगे के साथ कई दौर की बात की। वार्ताओं के बाद 7 सितंबर को महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की कि मराठवाड़ा क्षेत्र के सभी मराठों को निजाम-कालीन कुनबी जाति के प्रमाणपत्र दिए जाएंगे। 1960 से पहले मराठा समाज को कुनबी समाज का प्रमाणपत्र दिया जाता था लेकिन संयुक्त महाराष्ट्र का गठन होने के बाद यह प्रमाण पत्र मिलना बंद हो गया।

40 दिन की समय सीमा में भी नहीं बनी बात
जरांगे द्वारा सरकार के समझौते को ठुकराए जाने के बाद आगे के कदमों पर चर्चा के लिए 11 सितंबर को सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसके साथ ही सरकार ने मराठा समुदाय के सदस्यों को जाति प्रमाण पत्र देने की मांग को लेकर न्यायाधीश संदीप शिंदे (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय पैनल का गठन कर दिया। 14 सितंबर को मराठा कार्यकर्ता मनोज जरांगे ने भूख हड़ताल वापस ले ली। सीएम शिंदे ने खुद धरना स्थल वाले अंतरवाली सरती गांव पहुंचकर जूस पिलाया। मनोज ने सरकार को मराठाओं को आरक्षण देने के लिए 40 दिन की समय सीमा दे दी।

मराठा आरक्षण लागू करने के लिए दी गई समय सीमा 24 अक्तूबर (गुरुवार) को खत्म हो गई। लिहाजा अगले ही दिन से जरांगे ने जालना के अपने पैतृक अंतरवाली सराती गांव में दूसरी बार भूख हड़ताल शुरू कर दी। जरांगे ने आरोप लगाया कि सरकार को 40 दिन का समय दिया गया था लेकिन उसने आरक्षण के लिए कुछ नहीं किया।

फिर तोड़फोड़ और आगजनी
एक बार फिर मराठा समुदाय ने ओबीसी श्रेणी के तहत सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण की मांग को लेकर राज्य के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शन शुरू कर दिया। कुछ स्थानों पर आंदोलनकारियों ने कुछ नेताओं के आवास में तोड़फोड़ और आगजनी की। हिंसा की घटनाओं के बाद महाराष्ट्र के धाराशिव जिले में कर्फ्यू भी लगाया गया है।

इस बीच मंगलवार को महाराष्ट्र कैबिनेट की बैठक हुई। इस दौरान मराठा समुदाय को आरक्षण देने पर जस्टिस संदीप शिंदे समिति की अंतरिम रिपोर्ट को कैबिनेट ने स्वीकार कर लिया। बैठक में निर्णय लिया गया कि मराठों को कुनबी जाति प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया शुरू होगी। साथ ही, यह भी निर्णय लिया गया कि पिछड़ा वर्ग आयोग मराठा समुदाय की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का आकलन करने के लिए नए आंकड़े इकट्ठा करेगा।

उधर सीएम शिंदे ने जरांगे को फोन पर आश्वासन दिया है कि राज्य सरकार मराठा आरक्षण मुद्दे को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुधारात्मक याचिका दायर करने के लिए तैयार है।

मराठा आरक्षण का मुद्दा क्या है?
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग बहुत पुरानी है। साल 1997 में मराठा संघ और मराठा सेवा संघ ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लिए पहला बड़ा मराठा आंदोलन किया। प्रदर्शनकारियों ने अक्सर कहा है कि मराठा उच्च जाति के नहीं बल्कि मूल रूप से कुनबी यानी कृषि समुदाय से जुड़े थे।

मौजूदा स्थिति की बात करें तो मराठा समुदाय महाराष्ट्र की आबादी का लगभग 31 प्रतिशत है। यह एक प्रमुख जाति समूह है लेकिन फिर भी समरूप यानी एक समान नहीं है। इसमें पूर्व सामंती अभिजात वर्ग और शासकों के साथ-साथ सबसे ज्यादा वंचित किसान शामिल हैं। राज्य में अक्सर कृषि संकट, नौकरियों की कमी और सरकारों के अधूरे वादों का हवाला देते हुए समाज ने आंदोलन किये हैं।

2018 में महाराष्ट्र विधानमंडल से मराठा समुदाय के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 16% आरक्षण का प्रस्ताव वाला एक विधेयक पारित किया गया। विधेयक में मराठा समुदाय को सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग घोषित किया।

विधानमंडल में पारित होने के बाद मराठा आरक्षण का मामला अदालती हो गया। जून 2019 में बम्बई उच्च न्यायालय ने मराठा आरक्षण की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन सरकार से इसे राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश के अनुसार 16% से घटाकर 12 से 13% करने को कहा।

इस आरक्षण को बड़ा झटका तब लगा जब मई 2021 को जब सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को असंवैधानिक ठहराया और कानून को रद्द कर दिया। अदालत ने माना कि मराठा आरक्षण 50 फीसदी सीलिंग का उल्लंघन कर दिया गया था।

किस राज्य में 50% से ज्यादा आरक्षण?
देश की सर्वोच्च अदालत ने 1992 के इंदिरा साहिनी फैसले में शिक्षा और रोजगार में मिलने वाले जातिगत आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा तय की थी। हालांकि, जुलाई 2010 के एक अन्य फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को फीसदी की सीमा से अधिक आरक्षण देने की सशर्त अनुमति दे दी। ऐसे मामलों में अदालत ने शर्त यह रखी कि राज्य चाहें तो 50 फीसदी से अधिक जतिगत आरक्षण बढ़ा सकते हैं जिसे उचित ठहराने लिए उन्हें वैज्ञानिक आंकड़े प्रस्तुत करने होंगे।

ऐसे में कई राज्य तो ऐसे हैं जहां 1992 के फैसले से पहले ही 50 फीसदी से अधिक जातिगत आरक्षण लागू है। इनमें तमिलनाडु है जहां एक कार्यकारी आदेश के जरिए 1989 में 69% आरक्षण लागू कर दिया गया था। वहीं कुछ राज्यों में हाल के वर्षों में इस सीमा को बढ़ाया गया है जिन्हे अदालती चुनौती का सामना करना पड़ा है। हरियाणा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे कई राज्यों ने 50% आरक्षण की सीमा से अधिक वाले कानून पारित किए हैं और वे निर्णय भी न्यायालयों में चुनौती के अधीन हैं।

इसके अलावा केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10% आरक्षण देने के लिए 103वां संविधान संशोधन किया। इसके तहत अनुच्छेद 15 में एक नए खंड को शामिल किया गया। जब केंद्र के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिली, तो उसने दलील दी कि अनुच्छेद 15 में नया खंड जोड़ने से 50% की अधिकतम सीमा लागू करने का सवाल कभी नहीं उठ सकता है जो राज्य को ईडब्ल्यूएस की बेहतरी और विकास के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देता है।