साहित्य

माँ फिर फुर्र से उड़ गई और फिर ….

Tajinder Singh
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सेलेक्टिव पीड़ा….
बुलबुल का एक नन्हा बच्चा अपनी पहली उड़ान में किसी तरह गिरते पड़ते हुए हमारे कमरे में आ पहुंचा। परेशान और सहमा हुआ वो एक कोने में बैठ गया और काफी देर तक वहीं बैठा रहा। लेकिन इस बीच वो बीच बीच एक ऐसी आवाज में चहक रहा था जैसे मां को पुकार रहा हो।

कुछ देर बाद मां पंख फड़फड़ाती हुई कमरे में आ पहुंची। और आकर बच्चे के पास बैठ अपनी चोंच से उसे सहलाने लगी। मुझे ऐसा लगा जैसे मां बच्चे को फिर से उड़ान भरने के लिए हौसला दे रही हो। और बच्चा हौसला जुटा न पा रहा हो।

आखिर माँ कमरे में इधर उधर फुदक कर बच्चे को लाइव डेमोंस्ट्रेशन देने लगी। लेकिन बच्चे ने मां का अनुसरण करने की कोई कोशिश नही की। इस बीच बढ़ती गर्मी के बावजूद हम कमरे का पंखा बंद कर सारा नजारा ले रहे थे। आखिर गर्मी ज्यादा लगी तो हम कमरे से बाहर निकल आये।

मैंने पत्नी से कह कर थोड़ा पानी और उबले चावल कमरे में रखवा दिए। लेकिन बच्चे ने इनमें कोई रुचि नही दिखाई। शायद बच्चा इस खाने से परिचित ही नही था। अब काफी देर से बच्चे की मां भी गायब थी। और बच्चे ने फिर कातर स्वर में पुकारना शुरू कर दिया था। छोटे बच्चे की ये आवाज काफी दूर तक जा रही थी।

आखिर बहुत देर बाद उसकी माँ कमरे की खिड़की पर फिर नजर आयी। इस बार उसके मुंह मे एक कीड़ा था। माँ के करीब आते ही बच्चे ने अपना मुंह खोल दिया। एक पल को कीड़ा बच्चे के मुंह मे था और दूसरे ही पल उसके पेट के अंदर। बच्चा अब दुबारा मुंह खोल चिल्ला रहा था।
बच्चा शायद बहुत भूखा था। और लगातार मुंह खोल चिल्लाए जा रहा था। माँ फिर फुर्र से उड़ गई और काफी देर बाद एक दूसरा कीड़ा मुंह मे दबाए आ पहुंची। ये देख हमने काफी राहत महसूस की कि चलो अब बच्चा भूखा नही रहेगा। खाकर शायद उड़ने की हिम्मत आ जाये।

कीड़ों का लंच देने के बाद मां ने फिर उसे उड़ने की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। मां कमरे में ही इधर से उधर फुदक रही थी। आखिर उसके देखा देखी बच्चे ने भी छोटी छोटी छलांगे लगानी शुरू कर दी। हालांकि ठीक से उड़ वो अभी भी नही पा रहा था। आखिर शाम तक मां की मेहनत और कीड़ों के भोजन ने रंग दिखाया। अब बच्चा छोटी छोटी उड़ान भर रहा था।

ये सब देख हमे बड़ी राहत महसूस हो रही थी। आखिर काफी देर अभ्यास करने के बाद बच्चे ने एक उड़ान भरी और बाहर की खिड़की पर जा बैठा। बाहर बैठी उसकी मां उसका हौसला बढ़ा रही थी। बच्चे ने एक बार और पंख फड़फड़ाये और बाहर की तरफ उड़ान भर दी। अब वाली उसकी उड़ान थोड़ी लम्बी होनी थी। क्योंकि बाहर नजदीक कोई सहारा नही था।

अचानक बाहर बच्चे की माँ के चहचहाने का स्वर बदल गया। जैसे बदहवास होकर कोई पुकार रहा हो। साथ ही पंख फड़फड़ाने की आवाज भी बढ़ गयी। मां अब तेजी से इधर से उधर फुदक रही थी।

बाहर निकल कर देखा तो बच्चा शायद लम्बी उड़ान नही भर पाया और जमीन पर ताक लगाए बैठी बिल्ली के मुंह मे दबा जिंदगी के लिए छटपटा रहा था। दो चार क्षणों में ही बच्चे का छटपटाना बंद हो गया। बच्चा अब शांत हो चुका था। लेकिन उसकी मां अशांत हो अभी भी बिल्ली के चारो तरफ मंडरा रही थी। उसने उम्मीद अभी छोड़ी नही थी। अपनी तरफ से मां बिल्ली को भगाने की भरपूर कोशिश कर रही थी।

सुबह से बच्चे और उसकी माँ के प्रयासों को देखते देखते इनसे एक जुड़ाव सा हो गया था। हम सब चाह रहे थे कि बच्चा उड़ना सीख जाए। मां की मेहनत रंग ले आये। लेकिन बच्चे का ये अंजाम और मां की छटपटाहट देख मन खराब हो गया।

रात का खाना खाते वक्त मैं थोड़ा उदास सा था। मेरे मन मे ढेरों प्रश्न घूम रहे थे।
आखिर इस छोटी सी जिंदगी के क्या मायने?
जीवन का अगर यही अंजाम होना है तो जीवन देना ही क्यों?
क्या सच मे इस छोटी सी घटना को भी किसी ने पहले से ही लिख रखा था?
क्या बुलबुल के बच्चे का दूसरा अंजाम भी सम्भव था?
क्या इसके लिए भी किसी अदृश्य शक्ति का शुक्राना करने की आवश्यकता है?
खैर…इन सारे प्रश्नों के बीच सबसे बड़ा प्रश्न था कि…
मैं बुलबुल के बच्चे के लिए तो उदास था। लेकिन उन कीड़ों के लिए मुझे कोई तकलीफ नही हुई जिन्हें उसकी मां पकड़ पकड़ कर ला रही थी। देखा जाय तो जीवन तो दोनों में ही था।
आखिर मेरी पीड़ा सेलेक्टिव क्यों???
हम सेलेक्टिव क्यों होते हैं???
ईद उल अजहा की सभी को मुबारकबाद….🐐