साहित्य

मुँह बोले पापा…..लेखक-संजय नायक ‘शिल्प’ की ”कहानी” पढ़िये!

संजय नायक ‘शिल्प’
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मुँहबोले पापा…..
मैंने कॉलेज प्रोफेसर की रिटायमेंट के बाद समाज सेवा की और मुख कर लिया था। वैसे भी मेरा विषय मनोविज्ञान रहा था, तो मैंने विमंदितों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का सोच लिया था।

मैंने मनोविज्ञान की पढ़ाई भी इसलिए की थी कि मेरी दादी अपने आखिरी समय में खुद अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी। मैं परिवार का सबसे छोटा पोता था, तो दादी का विशेष लाडला था। दादी की पेंशन में जो पैसे वो लूगड़ी (राजस्थान में पहनी जानी वाली ओढ़नी) के कोने पर बांध कर रखती थी, उन पर सिर्फ और सिर्फ मेरा विशेषाधिकार हुआ करता था। मैं जब मन उनकी लूगड़ी में सेंध लगा देता था। वो हमेशा मुझे अपनी छाती से चिमटाकर सुलाती थी।
उनके पागलपन में पड़ने वाले दौरे उन्हें खूंखार बना देते थे। उनके उस दौरों के कारण माँ ने मुझे दादी के पास जाने से रोक दिया था और मैं दादी की चीत्कारें सुनकर सहम जाता था। मैं दादी को बहुत प्यार करता था, पर उनसे डर भी लगने लगा था। एक दिन डॉक्टर आया , मैंने उनसे पूछा कि पागल क्यों हो जाते हैं…मैं भी डॉक्टर बनूंगा, पागलों को ठीक करूँगा। डॉक्टर ने मुझे समझाया की पागल होने के इलाज करने से बेहतर है पागल होने से बचना। आज के समय में आदमी इतनी उलझनों में फँस गया है कि पढ़ाई में मनोविज्ञान को इतना महत्व दिया जाना चाहिए कि आदमी पागलपन की हद तक जाने से बच सके। इसलिए तुम मनोविज्ञान के शिक्षक बनो और लोगों को मानसिक पीड़ाओं से जूझने की सोच प्रदान करो।

एक दिन दादी की दर्दनाक मौत हो गई और मैं एक गहरे दुख में डूब गया। फिर मैंने मनोविज्ञान की पढ़ाई की और प्रोफेसर बन गया। मेरे विवाह के तीन वर्ष बाद ही मैंने अपने दो और अजीजों को मरते देखा। मेरी पत्नी प्रसव के समय बच्चे के पेट में ही मर जाने और उसके जहर के फैल जाने से मैंने पत्नी और बेटे दोनों को खो दिया था। उसके बाद मैंने ताउम्र अकेले जीने का फैसला कर लिया था… क्योंकि जो भी मेरे अजीज थे वो सब भगवान ने अपने पास बुला लिए थे।

मैंने जब उस पागलखाने में जाना शुरू किया तो मेरे पास एक केस फ़ाइल आई…नाम था सुरूचि उम्र 36 साल। फोटो पर नज़र डालते ही वो चेहरा आँखों के आगे घूम गया । बी.ए. के अंतिम वर्ष में उसने मेरी कॉलेज में एडमिशन लिया था। कुछ ही समय में पता चला कि ये लड़की होनहार है और जीवन में ज़रूर कुछ अच्छा करेगी।

जल्द ही वो सब की चहेती बन गई । वो हमेशा मुझसे कहती , सर आप की शक्ल बिल्कुल मेरे पापा से मिलती है। कई बार बहुत खुश होती तो कहती, सर मेरे सर पर हाथ फिरा दीजिये, ऐसा लगेगा पापा मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। मेरे मन में सोया पड़ा ममत्व उसने जगा दिया और में स्नेहिल हाथ उसके सर पर फिरा देता था। ऐसा करते हुये मेरी आँखें भर आतीं। मेरा अजन्मा बच्चा और मेरी पत्नी याद हो आते थे। अगर मेरा बच्चा होता तो ज़रूर उसके जितना ही बड़ा होता।

फाइनल एग्जाम के बाद वो फिर मुझसे अपने सर पर हाथ फिराने आई और बोली सर मेरा रिश्ता तय हो गया है पर मैं शादी नहीं करूँगी। पहले कुछ बनूँगी फिर शादी… और मेरी इस बात पर ससुराल वाले राजी हो गए हैं। आप मेरी शादी में ज़रूर आना।

उसने झुककर मेरे पाँव छूना चाहे, पर मैंने ये कहकर मना कर दिया कि, “बेटियाँ पाँव नहीं छुआ करती।”

“पर अपने पापा के गले तो लग सकती हैं न…” कहकर वो मेरे गले से लग गई। मेरी आँखें भीग आईं और मेरा हाथ उसके सर पर अनंत सुख और खुशी के लिए आशीर्वाद मुद्रा में चला गया।

उसके जाने के बाद मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता था, पर मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर ने बहुत जल्दी अपने आपको सम्भाल लिया। मैं बहुत सालों तक उसकी शादी के कार्ड का इंतजार करता रहा और बाद में ये सोचकर भूल गया था कि शायद उसे याद न रहा होगा। समय अपने हिसाब से बीत रहा था।

मैंने उसकी केस स्टडी पढ़ी, वो एक सरकारी महकमे में ऑफिस के दूसरे ओहदे पर नियुक्त हुई थी। उसके बॉस से उसकी नहीं बनती थी, क्योंकि वो जानती थी उसका बॉस भ्रटाचारी और रिश्वतखोर है। वो हमेशा हर फ़ाइल में अपनी ईमानदारी के चलते बॉस को मनमानी नहीं करने देती थी। बॉस उससे खासा नाराज़ था। उसने ट्रिक फोटोग्राफी के द्वारा उसकी गलत फोटो निकलवाकर उसके पति को अज्ञात नाम से भिजवा दी।

उसके पति ने उस पर विश्वास जताने और खोजबीन करने की बजाय पत्नी पर गलत आरोप लगाते हुए उसकी बदचलनी को मुद्दा बनाकर कोर्ट में तलाक की अर्जी लगा दी। इससे वो टूट गई, गुमसुस रहने लगी…पर ऑफिस जाना नहीं छोड़ा। एक दिन बॉस ने उसकी ड्रॉर में पैसे रखवाकर उसपर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया और उसे डिपार्टमेंटल जाँच का सामना करना पड़ा।

बॉस के चमचों ने उसके खिलाफ गवाही दी, वो जाँच अधिकारियों के सामने सच्चाई साबित करने के लिए बहुत गिड़गिड़ाई, और जोर जोर से चिल्लाने लगी ” कोई तो विश्वास करो, मैं बेकुसूर हूँ, मैं झूठी नहीं हूं मैं हर जगह बेकुसूर हूँ, कोई तो विश्वास करो…” वो इतने जोर से और पागलपन से चिल्ला रही थी कि उसको दौरा पड़ गया और उसके बाद वो पिछले दो साल से इस पागलखाने में है। जो भी उसके पास जाता है, वो यही चिल्लाती है,”मैं बेकुसूर हूँ, मैं झूठी नहीं हूँ।” और कहकर वायलेंट हो जाती है।

मैंने उस फ़ाइल को पढ़ने के बाद सुरूचि से मिलने की इच्छा जताई, मैं जैसे ही उसके बैरक नुमा कमरे में दाखिल हुआ, वो जोर से चिल्लाई”मैं बेकुसूर हूँ, मैं झूठी नहीं हूँ।”

“हां सुरूचि! तुम बेकुसूर हो, तुम्हारे पापा ये जानते हैं।” मैंने बड़े स्नेहिल शब्दों में उसे कहा। उसने नज़र भर के मुझे देखा।

“तुम जानते हो न मैं बेकसूर हूँ, मैं झूठी नहीं हूँ।”

“हाँ मैं जानता हूँ, तुम बेकुसूर हो।”

ये सुनते ही वो फूट फूटकर रोने लगी और फिर वायलेंट हो गई, उसकी आँखों के नीचे पड़ी झाईयों, उसके हड्डिनुमा शरीर और उसका रोना देखकर मेरी आँखें बरबस ही बरस पड़ीं।

मैं वहाँ से बाहर आ गया, मैंने उसके कमरे में एक स्पीकर लगवा दिया था, जिसमें हर बीस मिनट बाद दो लाइन बज उठती थी, तुम बेकुसूर हो, तुम झूठी नहीं हो। अब उसमें धीरे धीरे केवल एक सुधार आया, अब वो वायलेंट नहीं होती थी। मैं धीरे धीरे उसके मानसिक स्तर से जुड़ रहा था, वो मुझे एक डॉक्टर के रूप में पहचानने लगी थी।

वो कई बार पूछती, तुम कौन हो, तो मैं कह देता, मैं तुम्हारा पापा हूँ। फिर वो कुछ देर मुझे गौर से देखती और फिर रोने लगती, मैंने उसके सर पर धीरे धीरे स्नेहिल हाथ फिराना शुरू कर दिया था।

वो पूछती , “तुम्हें किसने बताया मैं बेकुसूर हूँ, झूठी नहीं हूँ।” तो मैं कह देता मैं तुम्हारा पापा हूँ, इसलिए जानता हूँ, तुम बेकुसूर हो झूठी नहीं हो। वो मेरे पास बैठने से घबराती नहीं थी।

मैं बहुत बार अपने हाथ से खाना खिलाता और बहुत बार उसके बालों में कंघी करके उसकी चोटी गूँथ दिया करता था। मैं दादी की और पत्नी की चोटी भी गूँथा करता था। वो बाल बनवाते वक़्त एकदम छोटे बच्चों की तरह व्यवहार करती थी, और बाल खिंचते ही चिल्ला देती थी। कई बार उसके मुँह से निकल जाता था, “पापा दर्द हो रहा है। 

उसके ये शब्द सुनते ही मैं सेंटी हो जाता था, फिर बहुत प्यार से उसके बाल बनाता था।

उसमें धीरे धीरे सुधार लग रहा था, मैं खुश था….मुझे लग रहा था कि मुझे मेरी बेटी मिल गई है…और इसके ठीक होने के बाद मैं इसके लिए इसकी बेकुसुरी के लिए पूरा जोर लगा दूँगा। उसके कमरे में बजने वाली आवाज को मैंने अब एक घण्टे में एक बार बजने का बोल दिया था।

वो हर किसी से पूछती थी “मैं बेकुसूर हूँ न।” सब कहते हाँ तुम बेकुसूर हो।
एक रोज़ तबियत खराब होने के कारण मैं पागलखाने नहीं जा सका था। उन दिनों एक नई नर्स वहाँ आई थी, जो उखड़ी उखड़ी रहती थी। शायद उसे अपने ट्रांसफर पर नई जगह रास नहीं आई थी और वो अपने घर से दूर भी आ गई थी। उस दिन उसकी ड्यूटी सुरूचि को संभालने में लगी थी।

सुरूचि बार बार उससे पूछ रही थी, “मैं बेकुसूर हूँ न।

पहले तो नर्स हाँ हूँ करती रही। जब उसे बहुत गुस्सा आ गया तो उसने जोर से चिल्लाते हुये कहा,”तुम नहीं हो बेकुसूर, तुम दोषी हो,झूठी हो तुम, अब दिमाग मत खाओ।

उसका ऐसे कहते ही सुरूचि जोर जोर से चिल्लाने लगी , और वायलेंट हो गई। उसे इंजेक्शन देकर सुला दिया गया। शाम को दूसरी नर्स की ड्यूटी चेंज हुई तो वो रूटीन विजिट के लिए सुरूचि के बैरक में गई तो जोर से चिल्लाने लगी। सब दौड़कर वहाँ पहुंचें तो देखा कि सुरूचि ने कमरे के पर्दे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी।

मैं सुनते ही पागलखाने की और दौड़ा। सुरूचि को स्ट्रेचर पर लिटाया हुआ था। मैं रोये जा रहा था और लगातार उसके सर पर हाथ फिरा रहा था। बार बार यही कह रहा था, “मेरी बेटी बेकुसूर है, मेरी बेटी झूठी नहीं है, मेरी बेटी बेकुसूर है।

शायद यहीं कहीं उसकी आत्मा ये सुन रही थी और अपने मुंहबोले पापा की बात पर यकीन कर रही होगी…क्योंकि पूरी दुनिया ने तो उसे कुसूरवार ठहराया हुआ था। एक उसका पापा ही था जो जानता था वो कभी कुसूरवार नहीं हो सकती।आज मेरी जिंदगी का चौथा चहेता मुझे अकेला छोड़कर चला गया था।

संजय नायक”शिल्प”
दिनाँक :-07-11-2023