साहित्य

मेरी_धर्मपत्नी_और_मैं…….By-मुकेश_शर्मा

Lekhak Mukesh Sharma
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#मेरी_धर्मपत्नी_और_मैं
#मुकेश_शर्मा

मेरी धर्मपत्नी अक्सर मुझे ताने देती है कि तुम आज तक मुझे कहीं घुमाने ले गये?मैं चुप रह जाता हूँ तो फिर कहती है कि आज तक तुमने इतनी फिल्में देखीं कभी मुझे भी पिक्चर हॉल का मुँह दिखाया।वास्तव में मेरे पास उसके किसी प्रश्न का उत्तर नहीं।तुमने कभी सोचा है औरत की खुशी क्या होती है?दुःख भी होता है और पीड़ा भी झलकती है।कुछ देर शांत रहकर उसके शांत होने की प्रतीक्षा करता हूँ।जब वह शांत होती है और उपस्थिति परिवारजन वह विषय नजरअंदाज करने लगते हैं तब मैं बोलता हूँ।तब इसलिए बोलता हूँ कि यदि तत्काल बोल गया तब उसकी मृदुल वाणी से एक ही वाक्य गूँजेगा,-“बस मेरा मुँह मत खुलवाओ।”और शायद संसार का हर बेचारा पति इस वाक्य का मतलब जानता है।इसलिए हर पति को इतनी प्रतीक्षा अवश्य करनी चाहिए कि आग से चिंगारी निकलने तक शांत रहना है।

बड़े आत्मीय भाव से उसे निहारते हुए मैं बोलता हूँ,-“अच्छा ठीक है,अब बताओं मैं कहीं घूमने गया हूँ और तुम्हें न ले गया हूँ।”वह चुप अब क्या बोले,-“फिर भी जाना चाहिए या नहीं।हमारा मन नहीं करता कहीं घूमने को?”एक बार फिर थोड़ा शांति का दान देकर गहरी साँस भरते हुए हौले से बोलता हूँ,-“अच्छा तुम बताओ कि तुम दो बार माता वैष्णों देवी के साथ नौ देवी दर्शन को गयीं या नहीं।”—तो ऐसे कौन नहीं जाता।तुम नहीं ले जाओगे तो मैं कहीं नहीं जाऊँ?—-मैंने कौन सा मना किया भाग्यवान लेकिन मुझे तो नहीं ले गयीं।बस यही बात चुभ गयी उनको और फिर क्रोध तो था लेकिन काटने वाला नहीं स्वयं को सिद्ध करने वाला,-“तुम नहीं जाते तो मैं क्या करूँ?मैंने तो तब भी कहा था।

बस इन्हीं कुछ बातों के साथ कभी मीठी यादें ताजा होती रहती हैं।लेकिन ये पारिवारिक बातें आपके लिए सामान्य होंगी एक लेखक के लिए नहीं।लेखक तो इससे आगे शोध करता है।यह वार्तालाप बताता है कि पत्नी समझती है कि यह समाज पुरुष-प्रधान समाज है।इसलिए भी वह चाहती है कि पति उसे घुमाने लेकर जाये।वह कहना नहीं चाहती क्योंकि स्त्री पर उँगली उठाने की परम्परा चाहे आपके परिवार में न हो लेकिन समाज में ये संदेश नहीं जाना चाहिए कि उसकी पत्नी खर्चीली है, पति को इशारों पर नचाती है।दरअसल पत्नी जब ऐसी बातें कहे तब पति को स्वयं सोच लेना चाहिए कि उसका मन कहीं जाने का हो रहा है।इसलिए अपने घर के माहौल को इतना सहज कर दो कि वह अपने भाव छिपा न सके और प्रकट कर दे।

ये सच है कि मैं उसके साथ कहीं नहीं जाता।कारण वह जब जाने का मन बनाती है तब समूह में जाने का मन बनाती है।समूह में स्त्रियाँ होती हैं और मैं स्त्रियों में असहज महसूस करता हूँ।एक बार सभी जान-पहचान के परिवार गोवर्धन यात्रा को गये।उनमें एक महिला संपन्न परिवार से थी जो कभी बाहर नहीं निकली।वहाँ बिना चप्पल के परिक्रमा देनी थी।वह एक कदम न चल सकी।ब-मुश्किल श्रीकृष्ण जी की परिक्रमा पूरी की।शेष सभी आगे निकल गये और मैं, धर्मपत्नी व वह महिला तीन एक साथ थे।आगे जाकर एक रिक्शा किया।वह दोनों उसमें बैठे और मैं वापिस मंदिर पर आकर,-“प्रभु मेरी इस अधूरी परिक्रमा को कैंसल कर दो।”कारण दो थे कि मुझे अकेले यात्रा में आनंद नहीं आता और उन दोनों के आग्रह के उपरांत भी मैं रिक्शा में स्वभावानुसार न बैठा।

मंदिर से गाड़ी में आकर बैठ गया।टाटा सूमो थी शायद जिसके सभी दरवाजे बंद कर लिए पर मच्छरों ने तो यात्रा पूरी करवानी थी सो जीना मुश्किल कर दिया।करीब एक घंटा बीत गया और यात्री गाड़ी पर आने लगे।उसके उपरांत महिलाओं के खोने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।ऐसे में सबसे स्वस्थ मैं ही था क्योंकि वे तो परिक्रमा में थक गये तो किसी के छाले पड़ गये।सुबह होने तक मेरी परिक्रमा मंदिर से गाड़ी तक और गाड़ी से मंदिर तक जारी रही।शायद भगवान श्रीकृष्ण को मेरी भक्ति पसंद आ गयी थी।जैसे वे एक और गीता-उपदेश देते हुए कहना चाहते हों कि,-“बेटा, परिक्रमा हमारी लगायी यह हमें स्वीकार है।यदि राधा की लगाते तो हमें अच्छा नहीं लगता।लेकिन तुमने उस परिक्रमा का फल अपने जानने वालों की राधा खोजकर पा लिया।