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मोदी और अर्दोआन में समानता का तर्क : कश्मीरी और कुर्द, रिपोर्ट!

सोवियत यूनियन दो करोड़ 24 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था. 1991 में जब सोवियत यूनियन का विघटन हुआ तो रूस महज़ एक करोड़ 70 लाख वर्ग किलोमीटर में सिमट गया.

उसी तरह उस्मानिया सल्तनत यानी ऑटोमन साम्राज्य का विस्तार मिस्र, ग्रीस, बुल्गारिया, रोमानिया, मेसिडोनिया, हंगरी, फ़लस्तीन, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, अरब के ज़्यादातर हिस्सों और उत्तरी अफ़्रीका के ज़्यादातर तटीय इलाक़ों तक फैला था.

उस्मानिया सल्तनत का अंत हुआ तो तुर्की सात लाख 83 हज़ार वर्ग किलोमीटर में सिमटकर रह गया था.

संभव है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के मन में सोवियत यूनियन के बिखरनेऔर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के मन में उस्मानिया सल्तनत के पतन का दुख अब भी ज़िंदा हो.

पुतिन के यूक्रेन पर हमले को शायद उसी दुखती रग जोड़ा जा सकता है. अर्दोआन की राजनीति में उस्मानिया सल्तनत की गौरव गाथा का इस्तेमाल झलकता है.

रेचेप तैय्यप अर्दोआन साल 2003 में 15 मार्च को तुर्की के प्रधानमंत्री बने थे और व्लादिमीर पुतिन साल 2000 में रूस के राष्ट्रपति बने थे.

पुतिन के बारे में कहा जाता है कि वह अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं करते हैं और अर्दोआन की भी यही छवि है. अर्दोआन के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह चुनाव होने से पहले ही चुनाव जीत लेना पसंद करते हैं.


अर्दोआन और मोदी

कई लोग अर्दोआन की तुलना भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी करते हैं. अर्दोआन 1994 में इस्तांबुल के मेयर से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पद तक पहुँचे थे. नरेंद्र मोदी सात अक्तूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री बने और 2014 में भारत के प्रधानमंत्री.

अर्दोआन और मोदी दोनों की राजनीति में अतीत गौरव और धार्मिक राष्ट्रवाद केंद्र में रहते हैं. दोनों नेताओं के बारे में कहा जाता है कि ये लोकप्रिय राजनीति करते हैं. नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी और मातृ संगठन आरएसएस में भी अखंड भारत की बात होती है.

पिछले महीने ही 14 दिसंबर को तुर्की की एक अदालत ने अर्दोआन के सबसे मज़बूत प्रतिद्वंद्वी और इस्तांबुल के मेयर एक्रेम इमामोग्लु को दो साल सात महीने की क़ैद की सज़ा सुनाई थी.

52 साल के इमामोग्लु तुर्की में तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे और अर्दोआन के लिए उन्हें ख़तरे के तौर पर देखा जा रहा था.

मार्च 2024 में रूस में राष्ट्रपति का चुनाव है और इसी साल जून में तुर्की में राष्ट्रपति का चुनाव है. इस रिपोर्ट में बात करते हैं तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन की और मोदी से उनकी राजनीतिक समानता की.

अर्दोआन 2014 में तुर्की के पहले एग्ज़ीक्यूटिव राष्ट्रपति बने थे. कहा जाता है कि अपने कार्यकाल में अर्दोआन आधुनिक तुर्की की पश्चिम परस्त नीति को पूरी तरह से बदल दिया और इसे बहुआयामी बनाया था.

अर्दोआन ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से क़रीबी बढ़ाई लेकिन सीरिया पर वो रूस से टकराए भी. अर्दोआन ने सीरिया में अपने सैनिकों को भेजा था और पुतिन को यह पसंद नहीं आया था.

लीबिया में भी तुर्की ने सैन्य सलाहकारों को भेजा था. इसके अलावा अज़रबैजान और आर्मीनिया के संघर्ष में अर्दोआन ने खुलकर अज़रबैजान का समर्थन किया.

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अर्दोआन और मोदी

अर्दोआन इस्तांबुल के मेयर से तुर्की के प्रधानमंत्री बने और मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री से पीएम बने
अर्दोआन 2003 में तुर्की के प्रधानमंत्री बने और मोदी 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री
कहा जाता है कि अर्दोआन की पार्टी एकेपी और मोदी की बीजेपी में किसी और की नहीं चलती है
अर्दोआन और मोदी दोनों को धार्मिक राष्ट्रवादी नेता माना जाता है
मोदी पीएम बनने के बाद कभी तुर्की नहीं गए जबकि अर्दोआन 2017 में भारत आए थे
कश्मीर पर अर्दोआन की टिप्पणी मोदी सरकार को असहज करती रही है

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रूस और तुर्की की दोस्ती
साल 2015 में 24 नवंबर को तुर्की ने सीरियाई सीमा पर रूस के एक लड़ाकू विमान को मार गिराया था. तब तुर्की ने कहा था कि रूसी विमान ने उसके हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किया था.

तुर्की के पूर्व प्रधानमंत्री अहमत दावुतोग्लु ने निक्केई एशिया से अर्दोआन की विदेश नीति के बारे में कहा था, ”राष्ट्रपति ने पड़ोसियों से कोई समस्या नहीं वाली नीति को छोड़ दिया और सभी पड़ोसियों से समस्या ही समस्या वाली नीति को अपना लिया.”

वॉशिंगटन इंस्टिट्यूट में टर्किश रिसर्च प्रोग्राम के निदेशक सोनेर कगाप्तय ने अर्दोआन पर ‘अ सुल्तान इन ऑटोमन’ नाम से एक किताब लिखी है.

इस किताब में उन्होंने लिखा है, ”अर्दोआन ने सत्ता में रहने के दौरान ख़ुद को उम्मीद से ज़्यादा मज़बूत किया. इराक़, सीरिया और लीबिया में प्रभावी सैन्य अभियान को अंजाम दिया और तुर्की की राजनीतिक ताक़त का अहसास करवाया. जहाँ तुर्की राजनयिक ताक़त बनने में नाकाम रहा वहाँ उसकी सैन्य ताक़त ने भरपाई कर दी.”

अर्दोआन ने पड़ोसियों से कोई समस्या नहीं वाली नीति को छोड़ सभी पड़ोसियों से समस्या ही समस्या वाली नीति को अपना लिया है
अहमत दावुतोग्लु
तुर्की के पूर्व प्रधानमंत्री

कहा जाता है कि अर्दोआन के सर्किल में रहने वाले ‘तुर्की जगत’ की बात करते हैं जो रूस के याकुतिआ से चीन के शिन्जियांग तक फैला हुआ है.

अर्दोआन के आने के बाद तुर्की और अमेरिका के रिश्ते लगातार पटरी से उतरते रहे. ऐसा तब है जब तुर्की नेटो का सदस्य है. नेटो के सदस्य देश एक-दूसरे की रक्षा की प्रतिबद्ध हैं.

2017 में तुर्की ने रूस से एस-400 एंटी-एयरक्राफ़्ट मिसाइल सिस्टम ख़रीदा था. नेटो और अमेरिका ने इसे ख़रीदने को लेकर चेतावनी दी थी लेकिन अर्दोआन नहीं माने थे.

सीरिया में अमेरिका कुर्द बलों का समर्थन कर रहा था जबकि तुर्की कुर्दों को आतंकवादी बताता है. तुर्की का कहना था कि सीरिया के कुर्द बल कुर्दिश अलगाववादियों से जुड़े हैं.

रूस से दोस्ती या मजबूरी?

कहा जाता है कि अर्दोआन जब भी पश्चिम से नाराज़ होते हैं तो रूस की ओर रुख़ करते हैं. 2021 के सितंबर में अर्दोआन न्यूयॉर्क में यूएन की आम सभा को संबोधित करने गए थे. अर्दोआन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलना चाहते थे लेकिन मुलाक़ात नहीं हो पाई थी. अर्दोआन इससे नाराज़ हो गए थे और वह रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मिलने चले गए थे.

निक्केई एशिया से अमेरिका के एक पूर्व सैन्य अधिकारी रिच ऑटज़ेन ने अर्दोआन की विदेशी नीति के बारे में कहा था, ”तुर्की के पास चौतरफ़ा बैलेंसिंग मैकनिज़्म है. अर्दोआन यूरोप से पश्चिम तक संतुलन चाहते हैं. इस्लामिक दुनिया से लेकर साउथ तक और पूरब में यूरेशिया के अलावा उत्तर में रूस तक अपना संबंध चाहते हैं. जब भी वह किसी एक तरफ़ ख़तरा महसूस करते हैं, दूसरी तरफ़ मुड़ जाते हैं.”

कई लोग मानते हैं कि तुर्की रूस और अमेरिका के गेम में कई बार ख़ुद ही फँस जाता है. कहा जाता है कि तुर्की इस तरह का गेम लंबे समय से खेलता रहा है. कई बार तुर्की को गेम में रूस से समझौता करना पड़ता है.

2016 में तुर्की में जब तख़्तापलट नाकाम रहा तो अर्दोआन इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि इसके पीछे अमेरिका में रह रहे स्व-निर्वासित इस्लामिक स्कॉलर फ़तुल्लाह गुलेन हैं.

तुर्की अमेरिका से गुलेन के प्रत्यर्पण की मांग लंबे समय से करता रहा है. अमेरिका ने तुर्की की मांग कभी नहीं मानी. इस मामले में अर्दोआन का शक़ अमेरिका पर बढ़ता गया.

कहा जाता है कि रूस ने इस स्थिति को मौक़े की तरह लिया और इसका पर्याप्त दोहन किया.

‘अ सुल्तान इन ऑटोमन’ में सोनेर कगाप्तय ने लिखा है, ”पुतिन इस बात को बख़ूबी जानते थे कि गुलेन अमेरिका में रहते हैं. तुर्की में कई लोग इस बात को तत्काल मानने के लिए तैयार हो गए थे कि तख्तापलट की कोशिश के पीछे अमेरिका का हाथ था.”

“तख्तापलट की कोशिश वाली उथल-पुथल में 250 से ज़्यादा लोगों की जान गई थी. इसमें अर्दोआन के कुछ क़रीबी भी थे. तब पुतिन दुनिया के पहले नेता थे, जब उन्होंने अर्दोआन से संपर्क किया था. पुतिन ने विचलित अर्दोआन को अपने गृहनगर सेंट पीटर्सबर्ग बुलाया था.”

”अर्दोआन के पास तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कोई फ़ोन नहीं आया था. जब चार दिन बाद वॉशिगंटन से अर्दोआन के पास फ़ोन आया तो लाइन पर तत्कालीन विदेश मंत्री जॉन केरी थे. तख्तापलट की कोशिश के तीन हफ़्ते बाद अर्दोआन सेंट पीटर्सबर्ग पहुँचे थे और पुतिन से मुलाक़ात की थी.”

कहा जाता है कि इसी बैठक में पुतिन ने अर्दोआन को एस-400 ख़रीदने के लिए सहमत कराया था. 2017 में एस-400 की ख़रीदारी की आधिकारिक घोषणा हुई थी. एस-400 मिसाइल की पहचान नेटो के प्लेन्स को मार गिराने के रूप में है.

तुर्की के एस-400 ख़रीदने की प्रतिक्रिया में अमेरिका ने एफ-35 फाइटर प्लेन देने से मना कर दिया था.

सोनेर कगाप्तय ने लिखा है, ”पुतिन से दोस्ती के बाद अर्दोआन के लिए अलग होना आसान नहीं था. दोनों देशों के संबंधों में शक्ति का असंतुलन स्पष्ट रूप से दिखा. अगर तुर्की एस-400 से पीछे हटता तो पुतिन ट्रेड और टूरिज़म को रोक देते जो तुर्की की अर्थव्यवस्था के लिए राजस्व पैदा करने का ये अहम ज़रिया है. पुतिन अर्दोआन की वैश्विक स्तर पर मज़बूत छवि को भी गंभीर नुक़सान पहुँचा सकते हैं.

“वैश्विक स्तर पर अर्दोआन की मज़बूत छवि से उन्हें अपने घर में ख़ूब फ़ायदा मिला है. पुतिन सीरिया, लीबिया और दक्षिणी कॉकसस में टर्किश बलों पर हमला करवाने की क्षमता रखते हैं.”

अर्दोआन के नेतृत्व में तुर्की को क्या मिला?
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ोर वेस्ट एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर एके मोहपात्रा को लगता है कि अर्दोआन के शासनकाल में तुर्की कमज़ोर हुआ है और वैश्विक स्तर पर उनकी शख़्सियत भी अस्थिर नेता की बनी है.

मोहपात्रा कहते हैं, “तुर्की की पहचान एक आधुनिक और सेक्युलर मुल्क की थी और इस पहचान को अर्दोआन ने मिट्टी में मिला दिया. तुर्की की अर्थव्यवस्था की हालत देखिए अर्दोआन ने क्या कर दिया है. महंगाई दर 2022 में 137 फ़ीसदी बढ़ी है. सीरिया से लेकर लीबिया तक कहीं भी सैन्य अभियान सफल नहीं रहा है. न इन पर अमेरिका भरोसा करता है और न ही रूस.

“चीन से भी वीगर मुस्लिमों को लेकर भिड़ते रहते हैं. नेटो में तुर्की है लेकिन इज़्ज़त धेले भर नहीं है. यूरोपियन यूनियन का सदस्य बनने की कोशिश करते रहे लेकिन किसी ने भाव नहीं दिया. गल्फ़ के इस्लामिक देशों में भी तुर्की की इज़्ज़त अर्दोआन के कारण बर्बाद हुई है.”

मोहपात्रा कहते हैं, “अर्दोआन अमेरिका जाकर भी बाइडन से नहीं मिल पाते हैं क्योंकि बाइडन ने भाव नहीं दिया. पुतिन से मिलने जाते हैं तो वहाँ भी इंतज़ार करना पड़ता है. पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के मामले में सऊदी के शाही परिवार को निशाने पर लेते हैं और फिर ख़ुद ही सऊदी अरब जाते हैं. तुर्की का दोस्त रूस तो कभी नहीं हो सकता है. तुर्की से रूस की दुश्मनी ऑटोमन के ज़माने से ही है.’

मोहपात्रा कहते हैं कि खाड़ी के इस्लामिक देशों में भी तुर्की की छवि ठीक नहीं है.

उन्होंने बताया, “यूरोप इन्हें अपना हिस्सा मानता नहीं है. पाकिस्तान के पास कुछ नहीं है तो इनको ख़ूब भाव देता है. अर्दोआन इस्लामिक राष्ट्रवाद के रथ पर सवार होकर भले चुनाव जीत जा रहे हैं लेकिन तुर्की का इससे भला नहीं हुआ है. मैं अर्दोआन की एक उपलब्धि मानता हूँ कि उन्होंने तुर्की से सेना के प्रभुत्व को कमज़ोर किया है. हालाँकि इससे वहाँ का लोकतंत्र मज़बूत होना चाहिए था लेकिन मज़बूत सिविल ऑटोक्रेसी हुई है.”

तुर्की की स्वतंत्र विदेश नीति
लेकिन कई विश्लेषकों का मानना है कि अर्दोआन को सियासी और अंतरराष्ट्रीय मुश्किलों से निकलना आता है. पिछले दो दशकों में अर्दोआन ने कई मुश्किल परिस्थितियों का सामना किया है और सबसे मज़बूत बनकर निकले हैं.

वो चाहे जियोपॉलिटिकल संकट हो या 2016 का तख़्तापलट या फिर टर्किश स्प्रिंग. अर्दोआन ने सबको ठीक से हैंडल किया. अर्दोआन ने अपनी पार्टी की पहचान इस रूप में बनाई कि तुर्की में इस्लामिक मूल्यों को वही वापस ला सकती है.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ोर वेस्ट एशियन स्टडीज़ के ही एक और प्रोफ़ेसर आफ़ताब कमाल पाशा मानते हैं कि अर्दोआन ने तुर्की को राजनयिक और रणनीतिक स्वायत्तता दिलाई.

प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”2003 के पहले तुर्की में सेना का दबदबा रहता था. अतातुर्क भी फ़ौज से ही आए थे. तुर्की की अर्थव्यवस्था में भी फ़ौज का ही ज़्यादा दखल था. तख़्तालट भी तुर्की में होता रहता था. अर्दोआन ने इसे ख़त्म किया. अर्दोआन के आने के बाद से तुर्की में निजी कारोबारी उभरे. तुर्की की सरकार में सेना का दखल ख़त्म हुआ. इस लिहाज से देखें तो अर्दोआन ने तुर्की की राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर रख दिया. मुझे लगता है कि यह अर्दोआन की उपलब्धि है.”

प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”अतातुर्क ने 1923 में जब रिपब्लिक ऑफ टर्की बनाया तो इस्लामिक मूल्यों को कुचला गया था. तुर्की को पश्चिम परस्त बना दिया गया था. अर्दोआन ने इसे बदल दिया. उन्होंने इस्लामिक प्रतीकों को फिर से स्थापित किया और पश्चिम के पिछलग्गू बनने से इनकार कर दिया. यह अपने आप में बड़ी बात थी. तुर्की अब स्वतंत्र होकर और अपने हितों का ख़्याल रखते हुए विदेश नीति बनाता है. यह कोई छोटी बात नहीं है.”

एके पाशा से पूछा कि अर्दोआन को बाइडन मिलने के लिए वक़्त नहीं देते हैं और पुतिन उन्हें इंतज़ार करवाते हैं, क्या यह अपमान नहीं है?

प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए वीज़ा नहीं दिया था. जहाँ तक पुतिन के इंतज़ार की बात है तो अभी अर्दोआन ने भी ईरान में पुतिन को इंतज़ार करवाया था. जहाँ तक महंगाई की बात है तो यह केवल तुर्की की बात नहीं है. पूरा यूरोप महंगाई से त्रस्त है.’

मोदी और अर्दोआन में समानता
न्यूयॉर्क टाइम्स के इंटरनेशनल ओपिनियन एडिटर रहे बशारत पीर कश्मीर से हैं.

उन्होंने तुर्की में अर्दोआन और भारत में नरेंद्र मोदी की राजनीति की तुलना करते हुए 2017 ‘अ क्वेशचन ऑफ ऑर्डर: इंडिया, टर्की, एंड द रिटर्न ऑफ स्ट्रॉन्गमैन’ नाम से एक किताब लिखी थी.

पीर ने अपनी किताब में बताया है कि तुर्की और भारत बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र रहे हैं और वहाँ दक्षिणपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी अर्दोआन और मोदी कैसे कामयाब रहे.

अपनी किताब पर वॉशिंगटन पोस्ट को दिए इंटरव्यू में बशारत पीर ने कहा है, ”तुर्की और भारत दोनों साम्राज्यों के पतन के बाद नेशन-स्टेट के रूप में उभरे थे. दोनों देशों में नस्ली रूप से विविध समाज हैं. दोनों देशों के राष्ट्रपिता पश्चिम की आधुनिकता की ओर उन्मुख थे और बड़े स्तरों पर समाज सुधार किया था. मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने तुर्की को फ़्रांस की धर्मनिरपेक्षता की ओर ले जाने की कोशिश की थी.”

”वहीं भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अलग तरह की धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाया, जो धर्म के ख़िलाफ़ नहीं थी लेकिन इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि स्टेट धर्म के मामले में बराबरी की दूरी बनाकर रखेगा. तुर्की में मुस्तफ़ा कमाल पाशा और भारत में नेहरू का आइडिया दशकों तक प्रभुत्व में रहा लेकिन दोनों देशों में ऐसे समूह मौजूद थे, जिन्होंने पाशा और नेहरू के धर्म को देखने के तरीक़ों का विरोध किया. तुर्की में इस्लामिस्ट विरोध में खड़े हुए और भारत में हिन्दू राष्ट्रवादी.”

बशारत पीर कहते हैं, ”अर्दोआन अभी ज़्यादा दबंग दिख रहे हैं लेकिन अपने शासन के पहले दशक में अलग थे. यूरोपियन यूनियन में शामिल होने की उनकी कोशिश की सबने तारीफ़ की थी. तुर्की के जनजीवन को कई मामलों में उदार बनाया था और वहाँ की अर्थव्यवस्था को भी बहुमुखी बनाया था.

“अर्दोआन ने शुरुआत बेहतरीन की थी. मोदी की शुरुआत एक बिगाड़ से हुई. राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा फ़रवरी 2002 के बाद शुरू हुई. उनके मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा हुई. मोदी पर आरोप है कि उन्होंने हिंसा रोकने के बजाय होने दिया.”

कश्मीरी और कुर्द
वॉशिंगटन पोस्ट की ओर से ईशान थरूर ने बशारत पीर से सवाल पूछा- लेकिन कहा जाता है कि मोदी उस विरासत को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं. अर्दोआन की तरह उन्हें श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने काम किया है और अर्थव्यवस्था को मज़बूत किया है.

इसके जवाब में बशारत पीर ने कहा, ”ऐसा कुछ लोगों के लिए है लेकिन सबके लिए नहीं है. जब वह चुनावी कैंपेन कर रहे थे तो उन्होंने सफलता से अपनी छवि ऐसी बनाई थी कि उनमें चीज़ों को ठीक करने की क्षमता है. भारत की अर्थव्यवस्था मोदी के शासन में कोई बूम पर नहीं है. उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया है. दुखद है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं, नागरिक स्वतंत्रता में कटौती हुई है और बीफ़ खाने के शक में लिंचिंग हुई है.”

बशारत पीर ने अपनी किताब में भी लिखा है, ”अर्दोआन के इस्लामिक राष्ट्रवाद और मोदी के हिन्दू राष्ट्रवाद में उन लोगों के लिए बहुत कम जगह है जो उनकी आस्था से नहीं जुड़े हैं. दोनों की राजनीति में असहमति के लिए बहुत कम जगह है. दोनों की राजनीति कट्टर राष्ट्रवाद से प्रेरित है और दोनों युद्ध की बात करते हैं. दोनों अपने-अपने समर्थकों को कथित दुश्मनों के ख़िलाफ़ भड़काते हैं. दोनों बाग़ी आबादी के ख़िलाफ़ हिंसा का समर्थन करते हैं. अर्दोआन कुर्दों के ख़िलाफ़ हैं और मोदी कश्मीरियों के.”

बशारत पीर लिखते हैं कि मोदी और अर्दोआन दोनों अपने देश की स्थापित राजनीतिक व्यवस्था से निकले हैं और दोनों अपनी सामान्य पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हैं.

तुलना का तर्क
विदेशी मामलों में बीजेपी का पक्ष रखने वाले एक नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि वह कुर्दों की तुलना कश्मीरियों से करने को अतार्किक मानते हैं.

उन्होंने कहा, ”हम स्ट्रॉन्ग नेता की राजनीति की तुलना भले कर सकते हैं. लेकिन ये कहना है कि मोदी कश्मीरियों के ख़िलाफ़ हैं, पूरी तरह से हास्यास्पद है. क्या कश्मीरी भारतीय नहीं हैं? मतलब मोदी भारतीयों के ख़िलाफ़ हैं?”

“कुर्द अपनी पहचान को लेकर संघर्ष कर रहे हैं. तुर्की, इराक़ से लेकर सीरिया तक में अपने वजूद के लिए जूझ रहे हैं. उनसे हम कश्मीरियों की तुलना कैसे कर सकते हैं. जहाँ तक स्ट्रॉन्ग लीडर की बात है तो यह तुर्की और भारत तक सीमित नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में यह ट्रेंड लोकप्रिय हो रहा है. चीन, रूस, ईरान और सऊदी अरब में भी ऐसा ही है.”

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने मध्य-पूर्व और यूरोप के कई देशों का दौरा किया लेकिन कभी तुर्की नहीं गए. 2019 में मोदी तुर्की जाने वाले थे लेकिन कश्मीर पर अर्दोआन के बयान के कारण यह दौरा टल गया था.

2019 में अर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने की अलोचना की थी.

वहीं अर्दोआन का आख़िरी भारत दौरा साल 2017 में 30 अप्रैल को हुआ था. इस दौरे में भी कश्मीर पर उनकी एक टिप्पणी को लेकर विवाद हुआ था.

अर्दोआन ने भारत दौरे से पहले कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान में मध्यस्थता की वकालत की थी. भारत कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा मानता है और अर्दोआन की यह पेशकश भारत के आधिकारिक रुख़ से अलग थी. 2017 से पहले अर्दोआन 2008 में भारत प्रधानमंत्री के तौर पर आए थे.

अर्दोआन के बारे में कहा जाता है कि वह इस्लामिक दुनिया के नेता बनना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि उस्मानिया सल्तनत की विरासत तुर्की के साथ है, इसलिए मुस्लिम देशों के नेता बनने का स्वाभाविक हक़ उसी के पास है.

2003 में पहली बार तुर्की के प्रधानमंत्री बनने के बाद अर्दोआन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए इंटरव्यू में कहा था, ”मैं कुछ भी होने से पहले एक मुसलमान हूँ. एक मुसलमान के तौर पर मैं अपने मज़हब का पालन करता हूं. अल्लाह के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी है. उसी के कारण मैं हूँ. मैं कोशिश करता हूँ कि उस ज़िम्मेदारी को पूरा कर सकूँ.”

2003 में अर्दोआन तुर्की के प्रधानमंत्री बने और इसी साल तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉज डब्ल्यू बुश ने इराक़ पर हमले का आदेश दिया था.

तुर्की में अमेरिका का इराक़ पर हमला काफ़ी अलोकप्रिय था और अर्दोआन के लिए भी यह काफ़ी महंगा साबित हुआ था.

अमेरिका ने तुर्की से इराक़ पर हमले में उसकी ज़मीन के इस्तेमाल का अनुरोध किया था. अर्दोआन इसका समर्थन भी कर रहे थे. सद्दाम हुसैन से अर्दोआन की नहीं बनती थी.

तब तुर्की की संसद में अर्दोआन की पार्टी के दो तिहाई सांसद थे लेकिन अमेरिकी अनुरोध पास नहीं करवा पाए थे. यह अर्दोआन के प्रधानमंत्री बनने का पहला साल था जब इराक़ के ख़िलाफ़ अमेरिका की जंग में मदद करना चाहते थे.

अब 20वें साल में अर्दोआन बिल्कुल बदल चुके हैं और यूक्रेन पर रूसी हमले में नेटो के सदस्य होने के बावजूद अमेरिका और यूरोप के साथ नहीं खड़े हैं.

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रजनीश कुमार
बीबीसी संवाददाता