साहित्य

यह वही ‘भाड़’ है जहाँ गुस्साया हुआ आदमी जाने को बोलता है और जिसे ‘अकेला चना’ कभी नहीं फोड़ सकता!

Sanjay Khare
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यह वही ‘भाड़’ है जहाँ गुस्साया हुआ आदमी जाने को बोलता है और जिसे ‘अकेला चना’ कभी नहीं फोड़ सकता।
इसे देखकर कुछ याद आया?कुछ लोगों को बचपन में शायद यह ‘भाड़’ देखने का सौभाग्य मिला हो,जो अब लगभग लुप्तप्राय है।
इस ‘भाड़’ में एक तरफ मुँह (Inlet) होता था। जिधर से ईंधन के रूप में लकड़ी और सूखा चारा आदि झोंका जाता था। उसकी दूसरी तरफ,अलग-अलग ऊँचाई और दूरी पर छेद बनाये जाते थे। इन छेदों में छोटी-छोटी मटकी लगाई जाती थी जिनमें बालू भरी रहती थी। हर मटकी की बालू अलग-अलग तापमान पर गर्म होती थी। जो दाना जिस तापमान पर भूना जाना होता था,उसे उसी तापमान वाली बालू निकालकर भूना जाता था। फिर चाहे चना,मटर हो,मक्का हो,धान हो,चावल हो,या ज्वार,बाजरा।
ताप नियंत्रण के इतने सुनियोजित अविष्कार से पता चलता है कि हमारे जीवन में वैज्ञानिकता भी परम्परा के माध्यम से दाख़िल हुई।
जिसे आज हम ‘पॉप कार्न’ बोलते हैं,भाड़ के जमाने में इसे ‘चबैना’ या ‘फुटैना’ बोला जाता था।
सोचिए एक जमाने में कितना ‘हेल्दी स्नैक’ खाते थे हम!
Sanjay Khare

Ravindra Kant Tyagi
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इमरजेंसी को लेकर लिखा गया मेरे उपन्यास “पतन” का एक दृश्य जो लगभग मेरे आँखों देखी घटनाओं पर आधारित है।—–
जेल के अलग अलग प्रकार की मानसिकता, विचारधारा और परिस्थितयों के राजनैतिक कैदी भी स्वयं में एक जिज्ञासा का विषय थे. उन अलग अलग व्यक्तित्व और आर्थिक, सामाजिक स्थिति के लोगों पर एक उपन्यास लिखा जा सकता था. सब की अलग कहानी.
एक बुजुर्ग से व्यक्ति शहर की पतली सी गली में एक सिलाई मशीन रखकर कपड़े सीने का काम करते थे और उसी से अपनी पांच लोगों की गृहस्थी का लालन पालन करते थे. उनका गुनाह सिर्फ ये था कि एक बार वे जनसंघ के पर्चे पर सभासद का चुनाव लड़े और हार गए थे. कई बार जेल में रोने लगते और विलाप करते हुए कहते “भैया बरस गुजर गया. अब तो लगता है कि अर्थी जेल से ही उठेगी”.
जेल में दो जुड़वां भाई कीर्तिराम और मूर्तिराम थे. इमरजेंसी लगने से कुछ ही समय पहले कीर्तिराम की बेटी का रिश्ता तय हुआ था और चंद महीनो के बाद शादी होने वाली थी. आपातकाल के बहाने दोनों को उठाकर जेल में बंद कर दिया गया. जेल जाने से न केवल बेटी का रिश्ता टूट गया बल्कि घर में रोटियों के भी लाले पड़ गए. पूरा परिवार जब भी जेल में मिलाई करने आता है सब फुट फुट कर रोने लगते. बच्चे अपनी माँ से पूछते थे कि आखिर पापा ने क्या अपराध किया है कि वे जेल में हैं. स्कूल के साथी हमे कैदी की औलाद कहकर चिड़ाते हैं. पता नहीं क्या होगा. कभी जेल से बाहर आ भी पाएंगे या नहीं.
पवन चड्ढा जी के पिता हस्पताल में थे. जब सुना कि बेटे को जेल हो गयी है तो एक सप्ताह के भीतर ही दम तोड़ दिया. पवन जी को मुखाग्नि देने के लिए भी जेल से मुक्ति नहीं मिली.
जब भी जेल में भारत के ‘स्वस्थ’ लोकतंत्र में विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे लोगों से मिलकर लौटता था तो मन बड़ा खराब सा हो जाता. आखिर सरकार को ये अधिकार किस ने दिया कि निर्दोष लोगों को मात्र इसलिए गिरफ्तार कर ले कि वो सत्तारूढ़ दल की विपक्षी पार्टियों में राजनीती करते थे.
एक दिन घर के बाहर बरामदे में धूप सेंक रहा था कि एक आदमी लंगड़ाते हुए सामने से गुजरा. मैंने उसे पहचानते हुए आवाज दी “अरे मंगल. तुझे क्या हो गया भाई. जब मेरे घर में मरम्मत का काम किया था तो बिलकुल स्वस्थ था”.
मंगल लंगड़ाता और लड़खड़ाता सा मेरे पास आया और जमीन पर बैठ गया. उसने आँखों में आंसू भरकर बताया “ऊ का है साहिब, मुहल्ले में नसबंदी वारे आये रहे. हमउ को पकरकर ले गए. बुढ़ा गए हैं साहिब. मेहरारू को गुजरे तो बारह बरस हो गए. बहुत मिन्नत किये. रोये पीटे, गिड़गिड़ाए मगर कउनो सुनने को तैयार नहीं. टैंट में लिटाये और उपरेसन कर डाले. अब तो मौत के दिन गिन रहे हैं साहिब. न मजूरी होत है और न ही चलने फिरने के काबिल रहे”.
“अरे, डॉक्टर को नहीं दिखाया मंगल” मैंने सहानुभूति से कहा.
“सरकारी हस्पताल में दिखाए रहे बाबू. ऊ कहिन, इंफेक्सन हुई गवा है. अब दुसरे जनम मा इलाज हुई”.
मंगल उठकर धीरे धीरे चला गया. मैं देर तक उस सख्त जान मेहनतकश इंसान का अंधी सत्ता के हाथों इस तरह मृत्यु की और धकेल दिया जाना देख रहा था.
शाह कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार इमरजेंसी काल में लगभग 8300000 लोगों की जबरन या दबाव देकर नसबंदी की गई थी। ये संख्या एक करोड़ तक भी हो सकती है. लगभग 125000 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया था और हजारों लोगों का शारीरिक उत्पीड़न किया गया. रिपोर्ट के अनुसार भारी बरसात और ठंड के मौसम में लगभग 7000000 लोगों के घर व्यवस्था के नाम पर तोड़ डाले गए और उन्हे बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के खुले आसमान के नीचे मरने को छोड़ दिया गया था.