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राजशाही व्यवस्था का अंत होने और राष्ट्रीय सरकार के गठित होने के बाद फ्रांस!

अमेरिका में जो वैचारिक सोच में वृद्धि हो रही थी वह अंततः 18वीं शताब्दी में अमेरिका में 13 मूल उपनिवेशों में इस बात का कारण बनी कि एकता व एकजुटता के साथ अपनी स्वतंत्रता की दिशा में आधारभूत क़दम उठायें।

अमेरिका में जो वैचारिक सोच में वृद्धि हो रही थी वह अंततः 18वीं शताब्दी में अमेरिका में 13 मूल उपनिवेशों में इस बात का कारण बनी कि एकता व एकजुटता के साथ अपनी स्वतंत्रता की दिशा में आधारभूत क़दम उठायें। 4 जुलाई वर्ष 1776 को अमेरिका के बोस्टन राज्य की कांग्रेस ने 13 उपनिवेशों की ओर से और ब्रिटेन के विरुद्ध आंदोलन में सर्वसम्मत्ति से “स्वाधीनता घोषणापत्र” शीर्षक के अंतर्गत एक प्रस्ताव पारित किया। इस घोषणापत्र के अनुसार समस्त उपनिवेशों ने ब्रिटेन से संबंध तोड़ लेने का निर्णय किया और इस माध्यम से मानवीय प्रतिष्ठा और प्रजातंत्र के प्रति अपनी हार्दिक इच्छा को बयान किया।

यह घोषणापत्र जो जारी किया गया केवल मनुष्यों के अलग न होने वाले अधिकारों एक भाग का सूचक था। उसमें समानता, बराबरी, जीवन के अधिकार और भलाई खोजने के अधिकार व सिद्धांत पर बल दिया गया था और इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मानवता इसकी पात्र है। अलबत्ता इन अधिकारों की पूर्ति के लिए साम्राज्यवाद से रिहाई आवश्यक है। यह घोषणापत्र आरंभ में अमेरिका के 12 राज्यों और उसके बाद अमेरिका के दूसरे राज्यों में संविधान में प्रेरणा का स्रोत बना।

फ्रांस ऐसा देश है जहां 18वीं शताब्दी में तीन गुटों के मध्य वर्गभेद था। पहले और दूसरे नंबर पर अल्पसंख्यक थे जिनके अधिकार में फ्रांस का आधा क्षेत्रफल था और समस्त महल, वैभवशाली इमारतें, शक्ति और दूसरी बहुत सारी संभावनाएं उनके अधिकार में थीं और अधिकांश लोग ग़रीब थे जिनमें मज़दूर, किसान और ग्रामीण आदि शामिल थे। पहले तथा दूसरे वर्ग के लोग इन लोगों का शोषण करते थे। इस प्रकार की अनुचित स्थिति में फ्रांस के तानाशाह और धनाढ़य वर्ग के विरुद्ध क्रांति की भूमि प्रशस्त हो गयी। इस क्रांति के आज़ादी, बराबरी और बंधुत्व तीन नारे थे। फ्रांस में वर्गभेद पर आधारित जो व्यवस्था थी उससे मुक्ति पाना शांतिपूर्ण व सामान्य मार्गों से संभव नहीं था। इस मध्य न्यायपालिका के कुछ वकील, चिकित्सक, बैंक कर्मी और लेखक दर्शनशास्त्री आस्थाओं व विचारों से प्रभावित होकर जागरूक हो गये थे और उन्होंने आंदोलन व क्रांति को तानाशाही एवं वर्गभेद पर आधारित व्यवस्था से मुकाबले का एकमात्र मार्ग घोषित किया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सामान्य वर्ग की सोच में वृद्धि और परिवर्तन एक ओर तथा दूसरी ओर धनाढ़य व शक्तिशाली वर्ग की ओर से तीसरे वर्ग पर कर का बोझ लादना फ्रांस में क्रांति की भूमिका का कारण बना।

इस प्रकार की विषम व संकटमयी परिस्थिति में लूई सोलहवें ने 1614 से 1789 तक बंद पड़ी भेदभाव पर आधारित संसद को गठित करने का आदेश दिया। यह संसद तीन गुटों के प्रतिनिधियों की सम्मिलिती से गठित हुई। तीसरे और निचले वर्ग के प्रतिनिधि सोच- विचार के नये वातावरण में संसद के हाल में एक विशेष स्थान पर एकत्रित हुए थे और खुले विचारों से प्रभावित होने के कारण इस विषय में वार्ता कर रहे थे कि सुविधा को कुछ लोगों तक सीमित नहीं होना चाहिये बल्कि सुविधा को सार्वजनिक होना चाहिये। कुछ चरणों को तय करने के बाद 17 जून 1789 को तीसरे वर्ग के प्रतिनिधियों ने 90 वोटों के मुकाबले में पूर्ण बहुमत के साथ 490 वोटों से राष्ट्रीय संसद के गठन की घोषणा की और उसके दो दिन बाद यानी 19 जून को चर्चा भी उनसे जुड़ गये। 23 जून को 16वें लूई ने राष्ट्रीय संसद को भंग करने का आदेश दिया परंतु उसे संसद के प्रतिनिधियों और कुछ चर्चा के विरोध का सामना करना पड़ा। उन लोगों ने घोषणा की कि यथावत वे अपना कार्य जारी रखेंगे और उनका कहना था कि प्रतिनिधियों को कानूनी सुरक्षा प्राप्त है।

इस क्रांतिकारी परिस्थिति के साथ फ्रांस के नरेश ने 27 जून को विवश होकर स्वीकार कर लिया कि तीनों वर्गों की संगोष्ठियां एक दूसरे से जुड़ जायें। अंततः उसी वर्ष 9 जुलाई को राष्ट्रीय संसद ने संस्थापकों की संसद के नाम से अपने अस्तित्व की घोषणा की। 4 अगस्त को इस संसद ने इस घोषणा के साथ राजशाही व्यवस्था का अंत कर दिया कि वह राजशाही से मज़बूत व शक्तिशाली है। संसद के संस्थापकों पर मानवाधिकार और फ्रांसीसी नागरिकों के अधिकारों के प्रस्ताव को सुव्यवस्थित और उसे पारित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी और 4 और 11 अगस्त वर्ष 1789 की बैठकों में एक विशेष आयोग को मानवाधिकार की योजना तैयार करने का दायित्व सौंपा गया।

इस योजना को एबीसीएस (ABBE SIEYES) द्वारा तैयार किया गया और विशेष आयोग द्वारा पुष्टि व सहमति के बाद 26 अगस्त 1789 को संसद के संस्थापकों ने मानवाधिकार की विषयवस्तु के रूप में उसे पारित कर दिया।

मानवाधिकार और फ्रांसीसी नागरिकों के घोषणापत्र को कुछ वर्षों के बाद इस देश के संविधान की प्रस्तावना के रूप में स्वीकार कर लिया गया यह एक इतिहासिक दस्तावेज़ है जिसमें लोगों के अधिकारों, कानून के मुकाबले में सबके समान होने, आस्था, कलम और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल दिया गया है। इस दस्तावेज़ के अनुसार कानून पर ध्यान दिये बिना आरोप लगाना, गिरफ्तार करना और दूसरों को जेल में बंद करना मना है। इसी प्रकार मानवाधिकार और फ्रांसीसी नागरिकों के अधिकारों के घोषणापत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार कर लगाया जाये, सार्वजनिक ख़र्चों को किस प्रकार पूरा किया जाये, सरकार का गठन कैसे किया जाये और स्वामित्व आदि विषयों के अधिकार की घोषणापत्र में चर्चा की गयी है।

राजशाही व्यवस्था का अंत होने और राष्ट्रीय सरकार के गठित होने के बाद फ्रांस का पहला संविधान 3 दिसंबर 1791 को राष्ट्रीय संसद में पारित हुआ और इस संविधान की प्रस्तावना में लोगों के स्वाभाविक व प्राकृतिक अधिकारों पर ध्यान दिया गया। उसके बाद फ्रांस के संविधान में सबसे पहले मानवाधिकार का उल्लेख किया गया है। 24 जून 1793 के संविधान में 1 से लेकर 35 तक के अनुच्छेद मानवाधिकार के घोषणापत्र से विशेष हैं और 1789 के घोषणापत्र में जिन अधिकारों की बात की गयी है उनकी अधिक विस्तार के साथ व्याख्या की गयी है।

20वीं शताब्दी के मध्य तक जो मानवाधिकार के घोषणापत्र पारित हुए हैं अधिकांश देशों के संविधान उसी परिप्रेक्ष्य में संकलित किये गये हैं। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने वर्ष 1948 को पारित कर दिया जिसे फ्रांस के मानवाधिकार को दृष्टि में रखकर बनाया गया है।

इन सबके बावजूद कम से कम द्वितीय विश्व युद्ध से पहले तक मानवाधिकार के मामले पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। इसका कारण यह था कि मानवाधिकार को एक सरकार की अपने नागरिकों के साथ शैली समझा जाता था और उसे पूरी तरह देश का आंतरिक मामला समझा जाता था और कोई भी देश दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के कारण उसके बारे में बहस नहीं करता था।

20वीं शताब्दी विशेषकर प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और मानवाधिकार से संबंधित राजनीतिक बहस से अंतरराष्ट्रीय स्तर और देशों के आंतरिक मामलों की सतह पर मानवाधिकार के भविष्य पर बहुत प्रभाव पड़े हैं। इस शताब्दी में यूरोप में यह वैचारिक बहस छिड गयी थी और विभिन्न मत सामने आ गये थे जिनमें HUMANISM और SOcialism मुख्य थे और दोनों के समर्थक एक दूसरे के आमने- सामने आ गये थे और साथ ही अत्याचार की प्राचीन मानसिकता के साथ मार्क्सिज़्म, फाशिज़्म और नाज़िस्म व्यवस्था पर आधारित सरकारों का गठन हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी द्वारा संगठित ढंग से लाखों आम नागरिकों की हत्या से यह सार्वजनिक धारणा उत्पन्न हो गयी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति स्थापित करने के लिए बुनियादी शर्त मौलिक अधिकारों के प्रभावी समर्थन के बिना संभव नहीं है। इस सार्वजनिक धारणा का उल्लेख अमेरिका और उसके घटक देशों के घोषणापत्रों में बारमबार किया गया है।

अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रोज़वेल्ट ने जनवरी वर्ष 1941 को इस देश की कांग्रेस में एक भाषण दिया जिसमें चार प्रकार की आज़ादी की बात की था। उसी वर्ष के अगस्त महीने में रोज़वेल्ट और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अटलांटिक घोषणापत्र को संयुक्त घोषणापत्र के रूप में संकलित किया जिसमें राजनीति के सिद्धांतों को बयान किया गया था और शांति स्थापित होने के बाद उसे लागू किया जाना था ताकि दुनिया के लोग निर्भीक होकर जीवन व्यतीत कर सकें।

26 जून वर्ष 1945 को राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र पर सैन फ्रांसिस्को नगर में हस्ताक्षर हुए और उसी वर्ष 24 अक्तूबर को उसे लागू कर दिया गया। इस घोषणापत्र के अनुसार राष्ट्रसंघ के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की बुनियाद रखी गयी और इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति व सुरक्षा स्थापित करने के लिए युद्ध और अतिक्रमण से रोकना था। इसी प्रकार इसका उद्देश्य मित्रतापूर्ण संबंधों को विस्तृत करना, मानवाधिकारों और आज़ादी का सम्मानक कहनाया और राष्ट्रसंघ की महासभा का पहला अधिवेशन 51 सदस्यों के साथ 10 जनवरी वर्ष 1946 को लंदन में हुआ। उसके बाद मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय घोषणापत्र को 10 दिसंबर वर्ष 1948 को राष्ट्रसंघ की 56 सरकारों ने पारित कर दिया और इस प्रस्ताव के पक्ष में 48 वोट पड़े जबकि राष्ट्रसंघ के 8 सदस्य देशों ने वोटिंग में भाग नहीं लिया।

इस बात के दृष्टिगत कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र का पालन अनिवार्य नहीं था, संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने इसे 16 दिसंबर वर्ष 1966 को सांधी के रूप में पारित किया। इस सांधी के दो स्वरूप थे एक का संबंध अंतरराष्ट्रीय नागरिक व राजनीतिक अधिकारों से था जबकि दूसरे का संबंध अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और संस्कृति से था।