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राजा दशरथ की कथा

वाया : आभासीय पत्रकार संगठन
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राजा दशरथ की कथा

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पुराणों और इतिहासकारों के अनुसार आदि रूप ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ।
मरीचि के पुत्र कश्यप हुये।
कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुये।
वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुये।
इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और
इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुये।
कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।
विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुये।
अनरण्य से पृथु और पृथु और
पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ।
त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार हुये।

धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुये और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुये – ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुये। भरत के पुत्र असित हुये और असित के पुत्र सगर हुये। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुये, इन्हीं भगीरथ ने अपनी तपोबल से गंगा को पृथ्वी पर लाया। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुये। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया।

महाराज रघु के बारें में कहा जाता है कि राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परंतु कमी है तो संतान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। एक बार एक तपस्वी राजा के अतिथि बन कर आये। उनके मन की कामना को भांप कर राजा अपनी रानी को उस तपस्वी के आश्रम में छोड़ आये। तपस्वी ने अपनी गलती मान कर बड़ा पश्चात्ताप किया और भक्तिपूर्वक रानी के चरण-स्पर्श कर राजमहल में भिजवा दिया। महाराजा रघु ने एक बार दान में दी हुई चीज़ को वापस लेने से इनकार कर दिया। इस पर रानी ने राजा से निवेदन किया कि इससे अच्छा यह है कि आप मेरा सिर काट लें। इस पर रघु ने सचमुच रानी का सिर काटने के लिए तलवार चला दी। किन्तु यह क्या! तलवार सिर से स्पर्श करते ही फूल बन कर बिखर गई। देवताओं ने उस राज दम्पति की निष्ठा और कर्त्तव्य परायणता पर प्रसन्न होकर उन पर फूलों की वृष्टि की। महाराजा रघु ने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी और जब धन न रहा तब कुबेर के पास गये। कुबेर ने आदरपूर्वक उनका स्वागत किया और उनकी इच्छा के अनुसार धन देकर विदा किया। रघु ने सारा धन याचकों में बाँट दिया। रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रन्थ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका खज़ाना भर दिया। रघु ने सारा खज़ाना ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परंतु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।

रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुये जो एक शाप के कारण राक्षस हो गये थे, इनका दूसरा नाम कल्माषपाद था। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुये। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुये। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुये। राजा अम्बरीष के घर में लक्ष्मी स्वयं इनके घर में इनकी पुत्री के रूप में अवतरित हुई। इनका नाम पड़ा-श्रीमती। श्रीमती बचपन से ही विष्णु को अपना पति मान कर इनकी आराधना करने लगी। अपने मोहक रूप और सौन्दर्य के लिए वह तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी। श्रीमती का जन्म एक विशेष उद्देश्य को लेकर हुआ था। देवर्षि नारद को एक बार यह गर्व हो गया कि मैं मोह-माया से परे हूँ और उन्होंने कामदेव को जीत लिया है जबकि यह सब भगवान शिव की कृपा का फल था। मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। एक बार नारद ने अपने इस गर्व की चर्चा पर्वत नामक एक ऋषि से भी की। एक बार घूमते-घूमते नारद और पर्वत दोनों ऋषि राजा अम्बरीष के यहाँ पधारे। राजा ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री श्रीमती को आशीर्वाद देने की प्रार्थना की। जब श्रीमती ने आशीर्वाद लेने के लिए दोनों ऋषियों को प्रणाम किया, तभी उन दोनों पर विष्णु की माया छा गई। वे दोनों श्रीमती का सौन्दर्य देख कर सारा ज्ञान भूल गये और उससे विवाह करने को दोनों आपस में लड़ने लगे। राजा अम्बरीष को ऋषियों के इस व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य और दुख हुआ। श्रीमती के अनुरोध पर अम्बरीष ने उसके विवाह के लिए स्वयंवर की घोषणा कर दी। स्वयंवर की घोषणा सुन कर दोनों ऋषि वहाँ से चले गये। स्वर्ग में वापस जाकर भी नारद श्रीमती को भूल न सके और उससे विवाह करने के लिए विष्णु से अपना सुन्दर रूप देने की प्रार्थना की। इधर पर्वत ईर्ष्यावश विष्णु से यह अनुरोध करने आया कि स्वयंवर में जाने के लिए वे नारद को बन्दर का मुख दे दें। विष्णु ने पर्वत की यह बात मान ली और उन्होंने नारद को प्रभु विष्णु उन्हें हरि (बंदर) का रूप प्रदान कर देते हैं। नारद उत्साहित होकर स्वयंवर में पहुंचते हैं। सभी राजा उन्हें देखकर हंसने लगते हैं। नारद को कुछ समझ में नही आता है। सारे राजा नारद का उपहास करते हैं। नारद दर्पण में स्वयं का बंदर रूप देखकर क्रोधित हो जाते हैं। वे प्रभु विष्णु को श्राप देते हैं कि आपको भी धरती पर आना पड़ेगा और आप भी महिला के लिए वन-वन घूमेंगे।
अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। पुराणों और इतिहासकारों के अनुसार, ययाति चन्द्रवंशी वंश के राजा नहुष के छः पुत्रों याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति में से एक थे। याति राज्य, अर्थ आदि से विरक्त रहते थे इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके करवा दिया। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ। देवयानी के साथ उनकी सखी शर्मिष्ठा भी ययाति के भवन में रहने लगे। ययाति ने शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी की वे देवयानी भिन्न किसी ओर नारी से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाएंगे। एकबार शर्मिष्ठा ने कामुक होकर ययाति को मैथुन प्रस्ताव दिया। शर्मिष्ठा की सौंदर्य से मोहित ययाति ने उसका सम्भोग किया। इस तरह देवयानी से छुपाकर शर्मिष्ठा एबं ययाति ने तीन वर्ष बीता दिए। उनके गर्भ से तीन पुत्रलाभ करने के बाद जब देवयानी को यह पता चला तो उसने शुक्र को सब बता दिया। शुक्र ने ययाति को वचनभंग के कारण शुक्रहीन बृद्ध होनेका श्राप दिया।

ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा के तीन और देवयानी के दो पुत्र हुए। ययाति ने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्रों को देकर उनका यौवन प्राप्त करना चाहा, पर पुरू को छोड़कर और कोई पुत्र इस पर सहमत नहीं हुआ। पुत्रों में पुरू सबसे छोटा था, पर पिता ने इसी को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं एक सहस्र वर्ष तक युवा रहकर शारीरिक सुख भोगते रहे। तदनंतर पुरू को बुलाकर ययाति ने कहा – ‘इतने दिनों तक सुख भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। तुम अपना यौवन लो, मैं अब वाणप्रस्थ आश्रम में रहकर तपस्या करूँगा।’ फिर घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे, परंतु थोड़े ही दिनों बाद इंद्र के शाप से स्वर्गभ्रष्ट हो गए। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र, अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें फिर स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अंत में मुक्ति प्राप्त हुई।

नाभाग के पुत्र का नाम अज था। दशरथ के पिता सूर्य राजवंश के 38वें राजा थे| वे सरयू नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित कौशल राज्य के राजा थे। सरयू नदी के उत्तरी किनारे स्थित कौशल राज्य का राजा सूर्य वंश का ही कोई दूसरा व्यक्ति था. अजा की पत्नी और दशरथ की माता इंदुमती वास्तव में एक अप्सरा थीं लेकिन किसी शापवश धरती पर साधारण स्त्री वेश में रहने को विवश थीं। इसी रूप में इंदुमती का विवाह अजा से हो गया और दशरथ पैदा हुए। एक दिन राजा अज इन्दुमती के साथ उद्यान में घूम रहे थे। तभी आकाश मार्ग से नारद जी जा रहे थे। अचानक उनकी वीणा से लिपटी देवलोक की पुष्पमाला हवा में उड़ती हुई वहाँ आई और इन्दुमती के कण्ठ में जा पड़ी। इससे इन्दुमती की उसी घड़ी मृत्यु हो गई ।वह अपने शाप से मुक्त हो इंद्रलोक चली गई | जा अज पत्नी की मृत्यु देख शोक में रोने लगे। तभी नारद वहाँ प्रकट हुए तथा राजा को उन्होंने इन्दुमती के पूर्व जन्म की कहानी सुनाई। एक बार तृणविन्दु ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने हरिणी नामक अप्सरा को भेजा था। इस पर ऋषि ने हरिणी को मानवी जन्म का शाप दे दिया। हरिणी के अनुरोध करने पर ऋषि ने शाप से छूटने का उपाय भी बता दिया। स्वर्ग की पुष्पमाला के उसके कण्ठ में पड़ते ही इन्दुमती को सुरबाला होने की याद हो आई। इसीलिए वह देवलोक वापस चली गई।

अजा इंदुमती से बहुत प्रेम करते थे और बहुत कोशिशों के बाद भी जब वे इंदुमती तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं समझ सके तो स्वेच्छा से अपने प्राण हर लिए. उनकी मौत के वक्त दशरथ मात्र 8 माह के थे. कौशल के राजगुरु वशिष्ठ के आदेश से गुरु मरुधन्वा ने दशरथ का पालन-पोषण किया और अजा के राज में सबसे बुद्धिमान मंत्री सुमंत्र ने दशरथ के प्रतीक रूप में राज्य का कार्यभार संभाला. 18 वर्ष की उम्र में दशरथ ने कौशल जिसकी राजधानी अयोध्या थी, का भार संभाल लिया और दक्षिणी कौशल के राजा बन गए. वे उत्तरी कौशल को भी इसी में मिलाना चाहते थे. उत्तरी कौशल के राजा की एक बेटी थी कौशल्या. दशरथ ने उत्तरी कौशल के राजा से उनकी बेटी कौशल्या से विवाह करने का प्रस्ताव रखा. उत्तरी कौशल के राजा ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस तरह दशरथ-कौशल्या के विवाह के साथ दशरथ कौशल नरेश बन गए.

अज के पुत्र दशरथ हुये । राजा दशरथ वेदों और पुराणों के मर्मज्ञ, धर्मप्राण, दयालु, रणकुशल, और प्रजा पालक थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्वर भक्त थी। दशरथ को अपना यह नाम इसलिए मिला था क्योंकि वह सभी दसों दिशाओं में रथ चला सकते थे। पारंपरिक रूप से, हमें केवल आठ दिशाओं का ज्ञान है: उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान्य, आग्नेय, वायव्य, नैऋत्य, लेकिन इन आठ दिशाओं के अतिरिक्त दशरथ ऊर्ध्वएवं अदस्थ दिशाओं में भी रथ चलाने में निपुण थे। उनके राज्य में किसी के भी मन में किसी के प्रति द्वेषभाव का सर्वथा अभाव था। इन्होंने देवताओ की ओर से कई बार असुरों के साथ युद्ध और युद्ध में असुरों को पराजित किया था। एक बार देवराज इंद्र सम्ब्रासुर नामक राक्षस से युद्ध कर रहे थे किन्तु वह राक्षस बहुत ही बलशाली उसका सामना देवतागण कर पाने में असमर्थ थे तब उन्होंने राजा दशरथ से मदद मांगी | इस युद्ध में उनके साथ रानी कैकेयी भी गई थी | उस रथ की सारथी स्वयं कैकेयी थीं। उसी समय किसी शत्रु ने युधास्त्र चला कर दशरथ को घायल कर दिया तथा वह मरणासन्न हो गये। यदि कैकेयी उनके रथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनका उपचार नहीं करतीं तो दशरथ की मृत्यु निश्चित थी।

दशरथ ने होश में आकर कैकेयी से कोई भी दो वर माँगने का आग्रह किया। उस समय रानी कैकेयी ने कहा कि आपके प्राण बचाना मेरा कर्तव्य है और अभी मुझे कुछ नहीं चाहिए | इन दोनों वरदानो की आवश्यकता भविष्य में जब कभी पड़ेगी तब मैं मांग लुंगी इस तरह राजा दशरथ ने रानी की ईमानदारी और बहादुरी को देख उन्हें दो वचन देने का प्रण किया जिसे रानी कैकेयीं ने बाद में मांगने को कह अपने पास उधार रूप में रख लिया|

रानी कैकेयी केकेय देश के राजा अश्वपति और शुभलक्षणा की कन्या थी | इनके पिता राजा अश्वपति घोड़ो के भगवान थे इसलिए इन्हें अश्वपति कहा जाता था| रानी कैकेयी का नाम उनके राज्य यानि कैकेया के नाम पर पड़ा, रानी कैकेयी सात भाईयों की इकलोती बहन थी| कैकेयी बचपन से ही माता के प्रेम के बिना ही रही क्योंकि उनके पिता ने उनकी माँ को अपने महल से बाहर कर दिया था जब उन्हें पता चला कि उसकी माँ का स्वभाव सुखी परिवार के अनुकूल नहीं है क्योंकि इनके पिता को वरदान मिला था कि वो पक्षियों की भाषा को समझ सकते थे| एक दिन राजा अश्वपति और उनकी रानी अपने महल के उधान में टहल रहे थे तभी राजा ने दो हंसों के जोड़ो को बात करते सुना कि उनका राजा अभी बहुत खुश है लेकिन जिस रानी के संग टहल रहा है वह उसके हित में नहीं है जिसे सुन राजा मुस्कुराने लगे |

अपने पति को अचानक मुस्कुराते हुए देख कर कैकेयी की माँ की जिज्ञासा बढ़ने लगी कि राजा अचानक क्यों मुस्कुराने लगे जबकि सच बात यह थी कि उन दोनों हंसो के वजह से उन्हें पता चल गया था कि उनकी पत्नी को उनके जीवन और राज की भलाई की कोई परवाह नहीं है तो उन्होंने अपनी पत्नी उनके हित में ना समझ कर उसे महल के बाहर कर दिया| जिसके बाद कैकेयीं ने अपनी माँ को दोबारा से कभी नहीं देखा और उनकी देखभाल उनकी दासी मंथरा ने की जिसे उन्होंने अपनी माँ की तरह ही समझ और सदा उनकी बातों का पालन भी| यही मंथरा कैकेयी के विवाह उपरांत उनके साथ अयोध्या भी गई और कैकेयी के पुत्र होने के बाद उसका वैमनस्य श्री राम से अधिक बढ़ गया वैसे वो सभी राजकुमारों से ज्यादा प्यार करती थी लेकिन श्री राम उसको जरा भी नहीं भाते थे|

रंगनाथ रामायण के तेलगु वर्जन में यह दर्शाया गया है कि बालकाण्ड में एक बार श्री राम अपने भाइयों के साथ छड़ी और गेंद के साथ खेल रहे थे, इसी दौरान मंथरा ने उनकी गेंद को दूर फेंक दिया | जिससे क्रोध में आकर श्री राम ने मंथरा के घुटने पर छड़ी से प्रहार किया, इस कारण मंथरा का घुटना चोटिल हो गया| कैकेयी को अपनी प्रिय दासी के साथ किया गया यह व्यवहार काफी बुरा लगा, जिसकी शिकायत उन्होंने महाराज दशरथ से कर दी| इसके बाद ही महाराज को अपने बच्चों की शिक्षा की चिंता हुई, इस बालकाण्ड की इस घटना को लेकर मंथरा ने श्री राम के प्रति वैर पाल लिया और वक्त आने पर उन्हें सबक सिखाने की ठान ली| कहते हैं कि श्रीराम के राज्याभिषेक के समय कैकेयी को भड़काने का काम मंथरा ने ‘बदला’ लेने की नीयत के कारण ही किया था | दूसरी बात यह है कि जब राजकुमार राम को राजा बनाने की योजना बन रही थी, ठीक उसी समय देवताओं में भारी चिंता उत्पन्न हो गयी| वह चिंतित इसलिए हुए, क्योंकि अगर राम राजा बन जाते तो सामान्य राजकाज और भोग-विलास में उनका जीवन कटता, चूंकि वह भगवान विष्णु के अवतार माने जाते थे, जिन्हें राक्षसों का नाश करने के लिए धरती पर अवतार लेना पड़ा था, इसलिए ‘बुराई का नाश’ करने का उद्देश्य ही खतरे में दिखाई पड़ने लगा था | इस समस्या से निजात पाने हेतु देवताओं की सलाह पर ज्ञान की देवी सरस्वती मंथरा की जिव्हा पर विराजमान हो गयीं और उससे वही कहलवाया जिससे श्री राम वन जा सकें|

पुराण व् इतिहास के अनुसार कहा जाता है कि महाराज दशरथ तो राम को अस्त्र-शास्त्रों शिक्षा से दूर ही रखना चाहते हैं क्योकि वह अपने उम्र के चौथेपण में पिता जो बने थे तो यह भी स्वाभाविक है कि उनका अपने पुत्रों के प्रति इतनी चिंता तो होनी ही चाहिए किन्तु महारानी कैकेयी इसे सूर्यवंशियों का शौर्य मानती हैं और उन्हें राम से बड़ी आशाएं होती है| अत: अब सोचने वाली बात यह थी कि वह क्या करें? पुत्रों को शिक्षा दिलाना बहुत ही जरुरी है लेकिन महाराज दशरथ उन्हें अपनी आँखों से दूर जाने नहीं देते हैं और सभी तरह की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा से भी दूर रखना चाहते हैं कि कहीं उन्हें चोट-चपेट न लग जाए| कैकेयी अयोध्या के भविष्य के लिए चिंतित हैं कि कौन रक्षा करेगा इसकी? एक दिन बातों ही बातों में वे महाराज दशरथ से राम को युद्ध की शिक्षा दिलाने का निवेदन करती हैं| वह कहती हैं कि राम में वीरता के सारे लक्षण हैं यदि उन्हें अभी से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा नहीं दी गयी तो उनकी वीरता का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा| इसलिए योग्य गुरु से उनकी शिक्षा की व्ययस्था की जानी चाहिए, लेकिन महाराज का मन इस निवेदन को स्वीकार नहीं करता है और उनके माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आती हैं उधर कैकेयी के निवेदन को इतनी आसानी से ठुकरा भी तो नहीं सकते | कुछ देर के लिए सोचने लगते है और संशय के कई चित्र उनकी आँखों के सामने घूमने लगते है क्या कहीं कुछ हो गया तो क्या? जो महारानी इतनी चिंतित है और इतने छोटे बच्चों को युद्ध की शिक्षा देने की आवश्यकता ही क्या है? वे कैकेयी को समझाते हैं, कि राम अभी बालक हैं उन्हें अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देने के लिए कहीं और भेजना ठीक नहीं है | परंपरा के अनुसार हमें उनको कुलगुरु वशिष्ठ के पास आरंभिक शिक्षा के लिए भेजना चाहिये, यदि आवश्यकता हुई तो उनकी आगे की शिक्षा के बाद में विचार किया जाएगा | उस समय कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती हैं क्योंकि उन्हें पता था कि महाराज पुत्र-मोह से ग्रसित हैं और उनका यह मोह पूरे आर्यावर्त को राक्षसों के हवाले कर देगा, पर वे हार मानने वाली नहीं हैं, कोई और उपाय सोचती हैं|
दूसरी ओर महाराज, राम सहित अन्य तीनो भाईयों को गुरु वशिष्ठ के पास भेजने कर प्रबंध करते हैं | इस तरह कैकेयी के प्रयास से चारों भाई वशिष्ठ आश्रम में शिक्षा लेते है और वहीं रह कर अपना अभ्यास भी करते है| वशिष्ठ जी दिन रात एक करके उन्हें शिक्षा देते हैं, इस प्रकार अल्पकाल में ही उनकी सारी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी की | अपनी चारो भाई अपनी आरंभिक शिक्षा कर आश्रम से राजमहल में आ जाते हैं| दशरथ, कौशल्या और सुमित्रा सहित सभी खुश होते हैं पर आसन्न संकटों को देखते हुए महारानी कैकेयी को लगता है कि गुरु वशिष्ठ की शिक्षा काफी नहीं है| और सोचती है कि उन्हें किसी ऐसे योग्य गुरु के पास भेजा जाना चाहिए जो राजकुमारों को आगे शिक्षा कि दे सकें | वह यह अच्छी तरह से जानती है कि यह कार्य महाराज दशरथ कभी नहीं करेंगे और राजकुमारों को कभी भी राज महल की सीमा से दूर नहीं जाने देंगे| इसलिए बहुत सोच विचार के बाद एक दिन कैकेयी, महाराज दशरथ को बिना बताये सिद्धाश्रम के लिए निकल पड़ती हैं|

सिद्धाश्रम महर्षि विश्वामित्र का साधना स्थल है| विश्वामित्र ही नहीं यहाँ सैकड़ों ऋषि महर्षि तप और साधना करते हैं (आज भी बिहार के बक्सर क्षेत्र में गंगा के किनारे सिद्धाश्रम का अवशेष देखने को मिलता है)| राजा से ऋषि होने के कारण विश्वमित्र युद्ध विद्या के महारथी होते हैं, और अपनी साधना के कई पड़ावों को पार करते हुए महर्षि ने गंगा के किनारे सिद्धाश्रम की स्थापना की थी जहाँ वे भारी यज्ञ करने जा रहते है| कैकेयी विश्वामित्र जैसे महर्षि से मिलकर अयोध्या की रक्षा की नई नीति पर विचार-विमर्श करने गई और राजकुमारों की शिक्षा के बारे में बात करने लिए उतावली हुई जा रही थी, इस बारे में अयोध्या को महारानी के इस निर्णय का पता नहीं चला और वे किसी को बताना भी नहीं चाहती, व् स्वयं वे भी नहीं जानती कि विश्वामित्र कहाँ तक उनका साथ देंगे| एक अनिश्चितता की स्थिति में कैकेयी का राजरथ वन मार्ग पर दौड़ता जा रहा है और एक लम्बे वन मार्ग को पार कर महारानी का रथ सिद्धाश्रम पहुंचता है जहाँ पर महर्षि के शिष्य भागते हुए महर्षि को महारानी के आने की सूचना देते हैं |

महर्षि के शिष्य बड़े आदर भाव से महारानी को बुलवाते हैं और धीरे-धीरे बातें शुरू होती है जैसे की कोई गंभीर राजनीतिक चर्चा हो| वे उस महान तपस्वी और युद्ध कौशल ऋषि से आर्यावर्त के भले के लिए राम को अपने पास बुलाने की बात करती हैं तथा महर्षि विश्वामित्र से महाराज दशरथ का पुत्र-मोह का सच भी बताती हैं कि वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनका राम उनकी दृष्टि से दूर हो पर उनका यह मोह भंग करना ही होगा | कैकेयी स्वयं विश्वामित्र को उपाय बताती हैं कि वे राम को अपने यज्ञ की रक्षा के लिए महाराज से मांगे जिससे उनका आगे की शिक्षा का क्रम शुरू यह बात महर्षि भी मानते हैं कि साधना और सिद्धि तभी सार्थक है जब अपनी भूमि सुरक्षित रहे | अत:. मातृभूमि के भविष्य को देखते हुए महर्षि विश्वामित्र कैकेयी की बात मान लेते हैं और कुछ दिनों में वे अयोध्या दरबार की ड्योढ़ी पर पहुंचते हैं और अपने यज्ञ की रक्षा के लिये राम को अपने साथ ले जाने की बात करते हैं लेकिन महाराज दशरथ उनकी बात मानने को तैयार नहीं होते और महर्षि जिद पर अड़ जाते है जिससे महाराज घोर धर्म संकट में पड़ जाते हैं| आखिर में महराज को महर्षि की बात मनानी पड़ती है और राम लक्ष्मण की आगे की शिक्षा का क्रम शुरू होता है| यह सब रानी कैकेयी की वजह से ही संभव हो पाया था|

इसी प्रकार एक बार राजा दशरथ भ्रमण करते हुए वन की ओर निकले वहां उनका समाना महाराज बाली से हो गया जिन्हें वरदान था कि जो भी उनसे युद्ध करेगा उसकी आधी शक्ति बाली को मिल जाती थी और इस वरदान की वजह से अक्सर वो जीत जाते थे और बड़े बड़े राजाओ को पराजित कर चुके थे जिसमे लंका का राजा रावण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है| बातों ही बातों में राजा दशरथ की किसी बात से नाराज हो बाली ने उन्हें युद्ध के लिए चुनौती दी. राजा दशरथ की तीनो रानियों में से कैकयी अश्त्र शस्त्र एवं रथ चलाने में पारंगत थी। युद्ध में बाली राजा दशरथ पर भारी पड़ने लगा राजा दशरथ के युद्ध हारने पर बाली ने उनके सामने एक शर्त रखी की या तो वे अपनी पत्नी कैकयी को वहां छोड़ जाए या रघुकुल की शान अपना मुकुट यहां पर छोड़ जाए। तब राजा दशरथ को अपना मुकुट वहां छोड़ रानी कैकेयी के साथ वापस अयोध्या लौटना पड़ा। रानी कैकयी को इस बात से बहुत दुखी हुई और इस अपमान को भुला ना सकी और उन्हें हर पल काटे की तरह चुभने लगी की उनके कारण राजा दशरथ को अपना मुकुट हारना पड़ा और बाली के पास छोड़ना पड़ा था| वह राज मुकुट की वापसी की चिंता में रहतीं थीं,
रानी कैकेयी के पिता का स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्होंने भरत से मिलने की इच्छा जाहिर कि तो कैकेयी के भाई युधाजीत ने राजा दशरथ से भरत को कैकेया आने के लिए कहा और भरत के संग शत्रुघ्न ने भी अपने नाना जी मिलने कैकेया चले गये | इसी बीच राजा दशरथ ने अपना उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया जिससे सारी प्रजा में खुशी का माहौल था लेकिन कैकेयी की दासी मंथरा को राम का राजभिषेक करना बिलकुल भी पसंद नहीं आया और इस बात की उसने रानी कैकेयी को जाकर अपनी ईर्ष्या जताई और रानी को श्री राम और कौशल्या माता के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया|

मंथरा ने रानी से कहा कि राजा दशरथ अपने वचन से मुकर रहे है उन्होंने तुम्हे दो वचन देने का वचन दिया था और अब यही समय है उन दोनों वचनों को मागने का एक वचन से भरत का राज सिहांसन और दुसरे वचन से राम को चौदह वर्ष का वनवास | रानी कैकेयी जो श्री राम से अथाह प्रेम करती थी ये बात सही नहीं लगी लेकिन राजा दशरथ का मुकुट बाली के पास होने को वो कभी भूल ना सकी तब उसने सोच कि यही समय है जब बाली से अपने पति के अपमान का बदल लिया जा सकता जैसा कि वो पहले से है श्री राम के सामर्थ्य से अवगत थी कि श्री राम के अलावा ये काम कोई ओर नहीं कर सकता अत: उसने श्री राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगना ही उचित समझा जिस मुकुट की बात को केवल दशरथ जी व कैकयी ही जानते थे।

यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कैकेयी ने अब राजा दशरथ से राम के लिए 14 वर्ष का वनवास माँगा तो इसके पीछे एक प्रशासनिक कारण था. रामायण की कहानी त्रेतायुग के समय की है. उस समय यह नियम था कि अगर कोई राजा 14 वर्ष के लिए अपना सिंहासन छोड़ देता है तो वह राजा बनने का अधिकार खो देता है. यह नियम वाल्मीकि रामायण के अयोध्याखंड में लिखित है. कैकेयी यह बात जानती थी अतः उसने ठीक 14 वर्ष का वनवास ही माँगा. यह अलग बात है कि बाद में भरत ने सिंहासन पर बैठने से मना कर दिया और वनवास समाप्त करने के बाद राम ही सिंहासन पर बैठे. इसी प्रकार अगर द्वापरयुग युग में यह नियम था कि अगर कोई राजा 13 साल के लिए

अपना राजकाज छोड़ देता है तो उसका शासन अधिकार खत्म हो जाता है. इसी नियम की वजह से दुर्योधन ने पांडवों के लिए 12 वर्ष वनवास और 1 वर्ष अज्ञातवास की बात रखी. अब आजकल की बात करते हैं यानि कि कलियुग की. क्या आप जानते हैं कि अगर आप अपनी सम्पति के लिए 12 साल की अवधि तक अधिकार का कोई क्लेम नहीं करते हैं तो वह प्रॉपर्टी आपके अधिकार से चली जाती है. यह बात संवैधानिक संशोधन में भी कही गयी है, जिसकी सत्यता की पुष्टि आप किसी भी क़ानूनी सलाहकार, वकील से कर सकते हैं.

इस बात पर विचार कर रानी कोप भवन में जाती है और राजा दशरथ उन्हें मानने का पूरा प्रयत्न करते है रानी कैकेयी ने उनसे भी उस समय मुकुट की बात को छुपा लिया और अपनी मंशा को किसी के सामने भी उजागर नहीं होने दिया| राजा दशरथ कैकेयीं की मांग को सुनकर अत्यंत दुखी होते है और रानी की बात मानने से मना कर देते है लेकिन कैकेयीं को नहीं समझ पाते और ना ही अपनी बात समझा पाते है क्योंकि इस समय वो अपना मान अपमान भूल कर केवल श्री राम के मोह में ही खोये हुए थे और किसी भी तरह से उनसे दूर होने को तैयार नहीं थे उधर रानी अपनी हट करें बैठी थी| रानी क्रोध में कहती है कि “रघुकुल रीति चली आई प्राण जाए पर वचन ना जाई और राजा को मनाने का पूरा प्रयत्न करती है| राजा दशरथ राम से वियोग सहन नहीं कर सके और अपनी देह त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हो गये | इस तरह रानी कैकेयी ने केवल अपने पति का मान वापस लाने के लिए संसार में बुरी स्त्री बनाना स्वीकार कर लिया लेकिन मुकुट का दुसरे के पास रहना उसे गवारा नहीं था|

इसके लिए समाज के साथ साथ अपने पुत्र के विरोध का भी सामना करना पड़ा और उसके कटु वचनों से बहुत आहत भी हुई और उसे अपनी गलती का अहसास भी हुआ और भरत ने उन्हें अपनी माता कहलाने से भी वंचित कर दिया| श्री राम को वनवास भेजने का उन्हें पछतावा था इसलिए उन्होंने श्री राम से माफ़ी भी मांगी और श्री राम को मुकुट की सच्चाई से भी अवगत कराया| यही कारण था कि श्री राम अंत तक कैकेयी से प्रेम करते रहे क्योंकि दशरथ और कैकेयी के अलावा वही थे जिन्हें मुकुट के सम्मान के बारे में पता था| कैकेयी ने रघुकुल की आन को वापस लाने के लिए श्री राम के वनवास का कलंक अपने ऊपर ले लिया और श्री राम को वन भिजवाया, उन्होंने श्री राम से कहा भी था कि बाली से मुकुट वापस लेकर आना।

श्री राम जी ने जब बाली को मारकर गिरा दिया, उसके बाद उनका बाली के साथ संवाद होने लगा | प्रभु ने अपना परिचय देकर बाली से अपने कुल के शान मुकुट के बारे में पूछा तब बाली ने बताया- रावण को मैंने बंदी बनाया लेकिन जब वह भागा तो साथ में छल से वह मुकुट भी लेकर भाग गया | बाली ने श्री राम को बताया कि आप मेरे पुत्र अंगद को अपनी सेवा में ले वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी आपका मुकुट लंकापति से वापस लेकर आएगा और जब अंगद को श्री राम जी ने दूत बनाकर रावण की सभा में भेजा तब वहां उन्होंने सभा में अपने पैर जमा दिए और उपस्थित वीरों को अपना पैर हिलाकर दिखाने की चुनौती दे दी जब रावण के महल के सभी योद्धा ने अपनी पूरी ताकत अंगद के पैर को हिलाने में लगाई परन्तु कोई भी योद्धा सफल नहीं हो पाया। जब रावण के सभा के सारे योद्धा अंगद के पैर को हिला न पाए तो स्वयं रावण अंगद के पास पहुचा और उसके पैर को हिलाने के लिए जैसे ही झुका उसके सर से वह मुकुट गिर गया। अंगद वह मुकुट लेकर वापस श्री राम के पास चले आये तब वह मुकुट अयोध्या भेजा गया जो बाद में श्री राम के मुकुट पर सजा |

कहा जाता है कि जिसके पास भी वो मुकुट रहा उसे सदा भारी का सामना करना पड़ा था| इसलिए श्री राम अपनी माताओ सबसे ज्यादा प्रेम कैकयी को करते थे क्योंकि उन्ही की वजह से राज सिहांसन अयोध्या में आया था जो उनकी सम्मान की निशानी था। बहरहाल रघुकुल की शान कहेजाने वाले मुकुट को वापस लाने का सारा श्रेय कैकेयी को ही जाता है क्योंकि अगर कैकेयी श्रीराम को वनवास नहीं भेजती तो रघुकुल का सौभाग्य वापस न लौटता |कैकेयी ने रघुकुल के हित के लिए ही इतना बड़ा कदम उठाया और सारे अपमान भी झेले शायद इसलिए श्रीराम माता कैकेयी से सर्वाधिक प्रेम करते थे|

इस हेतु अपने पति महाराज दशरथ की मृत्यु के साथ-साथ कैकेयी को अपने पुत्र भरत द्वारा भी अपमान झेलना पड़ा था. भरत ने दोनों कृत्यों के लिए अपनी माँ को ही दोषी माना और उनसे माता कहलाने का अधिकार तक छीन लिया. बाद में प्रायश्चित की आग में जलते हुए कैकेयी चित्रकूट तक गयी थीं और राम से वापस आने की विनती भी उन्होंने की. इस तरह हम देखते हैं कि कैकेयी के चरित्र में तमाम उतार चढ़ाव होने के बावजूद रामायण की कहानी उनकी उपस्थिति की वजह से ही महत्वपूर्ण मोड़ ले पाती है. अपने पुत्र-प्रेम और दासी के बहकावे में आकर बेशक उन्हें कलंक का भागी बनना पड़ा हो, किन्तु अयोध्या का सम्मान भी तो उसी कि वजह से लौटा था अगर वो श्री राम को वनवास नहीं भेजती तो श्री राम का अवतार लेना ही बेकार था क्योंकि वो वही एक छोटे से राज्य अयोध्या के राजा बन कर रहे जाते और अवतार लेना ही अपूर्ण हो जाता और वैसे भी बिन माँ की बच्ची के लिए एक दासी जिसने पूरी जिदंगी उसका पालन पोषण किया हो तो वो उसकी माँ थी. इसके अतिरिक्त उनका सौन्दर्य और उस पर भारी उनकी वीरता सदृश दूसरा उदाहरण रामायण में अन्यत्र नहीं! राजा दशरथ कैकेयी को वरदान नहीं दिए होते तो राम का वनवास नहीं होता। पृथ्वी से राक्षस राज्य का खात्मा नहीं होता। राम के चौदह वर्ष वनवास के उपरान्त आततायी रावण का संहार भी नहीं होता। कैकेयी के जिद से ही संत महात्माओं की रक्षा हो सकी। समाज भले ही कैकेयी को राम के वनवास काल दोषी माने। परन्तु रामायण में कैकेयी चरित्र की बराबर चर्चा होती रहेगी। कैकेयी अयोध्या के महाराज दशरथ की पत्नी कैकेयी के चरित्र की कल्पना आधी कवी बाल्मीकि की कथागत शिल्प योजना की कुशलता का प्रमाण है जो हर कसौटी पर खरी उतरती नजर आती है |

एक दिन शिकार करते समय नदीं में भयंकर शिकार का पीछा करते हुए तालाब में उसके पानी पीने के समान आवाज़ सुनकर दशरथ ने शब्द-भेदी बाण चलाया था, कहा जाता है कि उस समय के सभी राजाओ में शब्द भेदी बाण चलाने में राजा दशरथ परांगत माने जाते थे उसी बाण से श्रवणकुमार नामक एक नवयुवक, जो अपने अंधे माता पिता को लेकर तीर्थयात्रा पर निकला था और उस समय नदी से माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए जल पात्र में भर रहा था, की दर्दनाक मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के बाद अन्धे माता-पिता ने भी तड़प कर मरते हुए राजा दशरथ को शाप दिया कि- “तुम भी हमारी ही तरह पुत्र के शोक में मरोगे।”

श्रवण कुमार के माता पिता अंधे थे, उनको आखों से कुछ दिखाई नहीं देता था| श्रवण की माँ ने बहुत कष्ट झेलकर अपने बेटे को पालन पोषण किया| अंधे पिता किसी तरह मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार के लिए भोजन जुटा पाते थे|बालक श्रवण कुमार अपने माता पिता के कष्टों को भली भांति समझते थे| थोड़े बड़े हुए तो श्रवण कुमार अपने माता पिता के कामों में हाथ बंटाने लगे|श्रवण कुमार जब बड़े हुए तो पूरे तन-मन से माता पिता की सेवा करते थे| सुबह उठकर माता पिता को भजन कीर्तन सुनाते, फिर चूल्हा जलाकर खाना पकाते|वण कुमार की माँ उनसे कहतीं कि बेटा मैं स्वयं खाना बना लूंगी लेकिन श्रवण कुमार को डर था कहीं खाना बनाने में अंधी माँ के हाथ ना जल जायें इसलिए वह स्वयं ही खाना बनाते थे|माता पिता को भोजन कराने के बाद ही वह बाहर मजदूरी करने जाते थे| दिनभर बाहर मेहनत करने के बाद जब श्रवण कुमार शाम को वापस आते तो सोने से पहले माता पिता के पाँव दबाते|श्रवण के माता पिता ईश्वर का धन्यवाद देते थे और कहते थे कि हमारे कुछ अच्छे कर्मों की वजह से ही हमें श्रवण जैसा पुत्र मिला। भगवान ऐसी संतान सभी को दे|सब कुछ सुखद चल रहा था| माता पिता को चिंता हुई कि श्रवण का विवाह कर देनी चाहिए| उचित अवसर निकालकर श्रवण का विवाह भी कर दिया गया|दुर्भाग्यवश, श्रवण की पत्नी का व्यवहार माता पिता के प्रति बिल्कुल अच्छा नहीं था| वह श्रवण के माता पिता का ध्यान नहीं रखती थी और ना ही उनके खाने पीने का सही से ध्यान देती थी|श्रवण ने पत्नी से इसकी शिकायत की तो भी पत्नी ने श्रवण की बात नहीं मानी और जब श्रवण ने उसका विरोध किया तो वह घर छोड़कर अपने पिता के घर चली गयी|श्रवण अपने माता पिता को कभी कुछ दुःख नहीं होने देते थे| एक दिन श्रवण के माता पिता ने उनसे कहा – बेटा तुम्हारे जैसे पुत्र को पाकर हम तो धन्य हो गए हैं| अब एक और हमारी इच्छा है कि हम तीर्थ यात्रा करना चाहते हैं| अब उसी से हमारे हृदय को शांति मिलेगी|माता पिता की इच्छा सुनकर श्रवण कुमार ने उन्हें तीर्थ यात्रा कराने का निश्चय कर लिया| उन दिनों रेल, बस और ट्रेन नहीं हुआ करती थीं तब श्रवण कुमार ने दो बड़ी टोकरियां लीं और उन दोनों टोकरियों को एक डंडे के दोनों ओर टांग लिया|इस तरह श्रवण कुमार ने एक टोकरी में अपनी माता और दूसरी टोकरी में पिता को बैठाया और डंडा अपने कंधे लादकर अपने माता पिता को तीर्थ यात्रा कराने निकल पड़े|अपनी स्वयं की परवाह किये बिना, कठिन और लम्बी यात्रा के बाद श्रवण कुमार ने अपने माता पिता को तीर्थ यात्रा कराई| श्रवण कुमार उन्हें कई तीर्थों पर लेकर गए और वहां का सम्पूर्ण नजारा अपने माता पिता को बोलकर सुनाते तो एक तरह से माता पिता श्रवण की आखों से समस्त तीर्थो के दर्शन कर रहे थे|यात्रा के दौरान, एक बार श्रवण के माता पिता को प्यास लगी और उन्होंने श्रवण से पानी लाने को कहा| कलश लेकर श्रवण पानी लेने निकल पड़े, पास ही एक तालाब दिखा जिसमें शीतल जल था|राजा दशरथ वहीँ जंगल में शिकार खेलने आये थे| राजा दशरथ शब्दभेदी बाण चलाने में निपुण थे| शब्दभेदी अर्थात केवल शब्द सुनकर ही निशाना लगा दिया करते थे|श्रवण कुमार ने जैसे ही कलश पानी में डुबोया तो उसकी आवाज सुनकर दशरथ को लगा कि कोई जानवर पानी पीने आया होगा| यही सोचकर उन्होंने बाण चलाया और वह बाण श्रवण कुमार को जा लगा|जब दशरथ वहां पहुंचे तो उन्हें अपनी इस बड़ी भूल का अहसास हुआ, श्रवण कुमार ने दशरथ से विनती की कि पास में ही उनके प्यासे माता पिता पानी का इन्तजार कर रहे हैं, कृपया उन्हें पानी जरूर पिला देना और वहीँ श्रवण कुमार की मृत्यु हो गयी|राजा दशरथ अपनी इस गलती से बेहद व्याकुल हो उठे और वो पानी लेकर उनके माता पिता के पास गये| राजा की आहट पाकर माता पिता ने पूछा कि तुम कौन हो ? तुम तो श्रवण कुमार नहीं हो ? हमारा पुत्र कहाँ है ?राजा दशरथ ने जब पूरी बात बताई तो माता पिता दुःखी होकर रोने लगे और रोते रोते ही उन्होंने प्राण त्याग दिए| मरने से पहले श्रवण के माता पिता ने दशरथ को श्राप दिया कि जिस तरह हम अपने पुत्र के वियोग में तड़प तड़प कर प्राण त्याग रहे हैं| एकदिन तू भी इसी तरह अपने पुत्र के वियोग में तड़पकर प्राण त्याग देगा|

कहते है कि राजा दशरथ जब युवावस्था में थे जव उनके लिये प्रथम विवाह का प्रस्ताव कैकय देश की राजकुमारी कैकयी का आया जो एक बहुत ही सुन्दर, सुशील और अतिरिक्त गुणवान युवती थी उसका सौन्दर्य अप्सराओं को लजाने वाला था वह हर तरह से दशरथ के योग्य कन्या थी लेकिन जब राजपुरोहितों ने कैकयी की कुन्डली का दशरथ की कुन्डली से मिलान किया तो उनके माथे पर चिंता की लकीरें पङ गयीं और उन्होने कहा कि महाराज इस कन्या से आपने विवाह कर लिया तो ये आपका समूल नाश कर देगी ऐसा योग बनता है ऐसा योग कुंडली में दिखाई दे रहा है अतः आप ये विवाह प्रस्ताव ठुकरा दीजिये और उन्होंने वापिस कर भी दिया था| इस बात को कैकय देश की तमाम जनता ने अपनी निजी बेइज्जती के रूप में लिया क्योंकि कैकयी किसी द्रष्टि से अस्वीकार करने योग्य नहीं थी उस समय रावण जो एक बलशाली राजा हुआ करता था बहुत खुश हुआ और उसने टुकराने की वजह से चैन की सांस ली | क्योकि एक बार नारद ऋषि लंका के राजा रावण से मिलने गए उस समय रावण ने गर्व से अपने सामर्थ्य का वर्णन किया; परंतु नारदजीने उसे सावधान किया था कि सूर्यवंश के राजा दशरथ एवं रानी कौसल्या के पुत्र श्रीरामचंद्र के हाथों तुम्हारी मृत्यु है । इस भविष्य की सत्यता की जांच करने के लिए रावण बह्मदेव से मिला और ब्रह्मदेव ने कहा कि यह सत्य है तथा यह भी बताया कि कुछ दिनों में कोशल देश की राजधानी में राजा दशरथ का विवाह कौसल्या के साथ होनेवाला है ।

कुछ दिनों के बाद दशरथ के लिये कौशल्या (अधिकतर श्री राम से जुड़े ग्रंथों में उनकी माता कौशल्या को अधिक चित्रित नहीं किया गया है कहा जाता है कि कौशल्या दक्षिण दक्षिण कोसलराज और सुबाला की पुत्री थी जिसका दूसरा नाम अपराजिता भी माना जाता है | कौशल्या को मातृत्व की जीवन्त प्रतिमा है और दया, माया, ममता की मन्दाकिनी तथा तप, त्याग, एवं बलिदान की पुराणों में एक अकथ कथा कहा गया है। गुणभद्रकृत ‘उत्तर-पुराण’ में कौशल्या की माता का नाम सुबाला तथा पुष्पदत्त के ‘पउम चरिउ’ में कौशल्या का दूसरा नाम अपराजिता दिया गया है। रामकथा में अवतार के प्रभाव के फलस्वरूप पुराणों में कश्यप और अदिति के दशरथ और कौशल्या के रूप में अवतार लेने का वर्णन हुआ है। परिस्थितिवश कौशल्या जीवनभर दु:खी रहती हैं। अपने वास्तविक अधिकार से वंचित होकर उनका जीवन करुण और दयनीय हो जाता है। अत: उन्हें क्षीणकाया, खिन्नमना, उपवासपरायणा, क्षमाशीला, त्यागशीला, सौम्य, विनीत, गंभीर प्रशांत, विशालहृदया तथा पति-सेवा-परायणा आदर्श महिला के रूप में चित्रित किया गया है। अपने निरपराध पुत्र के वनवास पर वे अपने इन गुणों का और भी अधिक विकास करती हुई देखी जाती हैं। इस अवसर पर अनेक कवियों ने उनके मातृ-हृदय की भूरि-भूरि सराहना की है। इस अन्याय का समाचार सुनकर वाल्मीकि की कौशल्या का संयम और धैर्य टूट जाता है और सांकेतिक शब्दावली का प्रयोग करके वे राम को पिता से विद्रोह करने के लिए प्रेरित करना चाहती हैं। अध्यात्म-रामायण में उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट तथा राम को वन जाने से रोकते हुए चित्रित करके उनके मन की द्विविधा का वर्णन किया गया है तथा उनके हृदय में प्रेम-भावना और बृद्धि का परस्पर संघर्ष दिखाया गया है परन्तु तुलसीदास ने इस प्रसंग के वर्णन में कौशल्या के चरित्र को बहुत ऊँचा उठा दिया है। उन्होंने बड़ी कुशलता से कौशल्या का अन्तर्द्वन्द्व चित्रित करते हुए कर्तव्य-कर्म और विवेक-बुद्धि की विजय का जो चित्रण किया है, वह अकेला ही तुलसीदास की महत्ता को प्रमाणित करने में सक्षम है। इस प्रसंग के अतिरिक्त अन्यत्र भी तुलसी ने कौशल्या के चरित्र की महनीयता चित्रित की है। भरत को राजमुकुट धारण करने का उपदेश तथा वनयात्रा में भरत-शत्रुघ्न से रथ पर चढ़ने का तर्कपूर्ण अनुरोध उनके हृदय की विशालता, बिना किसी भेदभाव के चारों पुत्रों के प्रति उनके मातृ-हृदय का सहज वात्सल्य तथा सभी अयोध्यावासियों के प्रति हार्दिक ममत्व का प्रमाण देता है। मानस में कौशल्या के चरित्र में उच्च बुद्धिमत्ता का भी चित्रण हुआ है। जब वे चित्रकूट में सीता की माता को विषम परिस्थिति में धैर्य धारण करने को कहती हैं, उनके कथन में एक दार्शनिक दृष्टि के साथ-साथ गहरी आत्मानुभूति के दर्शन होते हैं परन्तु मानस से भिन्न ‘गीतावली’ में तुलसी दास कृष्ण-काव्य की यशोदा की भाँति कौशल्या को एक स्नेहमयी माता के वात्सल्य-वियोग की करुणामूर्ति के रूप में चित्रित करते हैं। मानस में कौशल्या का चरित्र जितना गम्भीर और धैर्यनिष्ठ है, गीतावली में उतना ही संवेद्य और तरल बन जाता है। जब राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ चले जाते हैं, कौशल्या उनके लिए अत्यंत चिन्ताकुल होती हैं। उनकी व्यथा क्रमश: राम-वन-गमन, चित्रकूट से लौटने तथा वनवासी की अवधि समाप्ति के पूर्व के अवसरों पर करुण से करुणतर चित्रित की गयी हैं। आधुनिक युग में कौशल्या के चरित्र का मातृ-पक्ष मानस से कहीं अधिक विस्तारपूर्वक बलदेवप्रसाद मिश्र के ‘कोशल-किशोर’ में उभरा है, किन्तु वह राम की युवा अवस्था तक की घटनाओं तक ही सीमित रह गया है। मैथिली शरण गुप्त के ‘साकेत’ में भी कौशल्या का पुत्र-प्रेम स्वाभाविक रूप में चित्रित किया गया है, किन्तु चरित्र-चित्रण की सम्पूर्णता तथा प्रभाव-समाष्टि उसमें नहीं मिलती। उनकी तुलना में साकेतकार ने कैकेयी पर अधिक ध्यान दिया है परन्तु कौशल्या के चरित्र में आदिकवि से प्रारम्भ होकर तुलसीदास के द्वारा जिस आदर्श की परिणति हुई है, वही वस्तुत: लोकमत में प्रतिष्ठित होकर रह गया है।

आरम्भ से ही कौशल्या जी धार्मिक थीं। वे निरन्तर भगवान की पूजा करती थीं, अनेक व्रत रखती थीं और नित्य ब्राह्मणों को दान देती थीं। महाराज दशरथ ने अनेक विवाह किये। सबसे छोटी महारानी कैकेयी ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया। महर्षि वशिष्ठ के आदेश से श्रृंगी ऋषि (पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋष्यशृंग विभण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशि को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था अतः उनका यह नाम पड़ा।) आमन्त्रित हुए। पुत्रेष्टि यज्ञ में प्रकट होकर अग्निदेव ने चरू प्रदान किया। चरू का आधा भाग कौशल्या जी को प्राप्त हुआ। पातिव्रत्य, धर्म, साधुसेवा, भगवदाराधना सब एक साथ सफल हुई। भगवान राम ने माता कौशल्या की गोद को विश्व के लिये वन्दनीय बना दिया। भगवान की विश्वमोहिनी मूर्ति के दर्शन से उनके सारे कष्ट परमानन्द में बदल गये। ‘मेरा राम आज युवराज होगा’ माता कौशल्या का हृदय यह सोचकर प्रसन्नता से उछल रहा था। उन्होंने पूरी रात भगवान की आराधना में व्यतीत की। प्रात: ब्रह्म महूर्त में उठकर वे भगवानु की पूजा में लग गयीं। पूजा के बाद उन्होंने पुष्पांजलि अर्पित कर भगवान को प्रणाम किया। इसी समय रघुनाथ ने आकर माता के चरणों में मस्तक झुकाया। कौशल्या जी ने श्री राम को उठाकर हृदय से लगाया और कहा- ‘बेटा! कुछ कलेऊ तो कर लो। अभिषेक में अभी बहुत विलम्ब होगा।’ ‘मेरा अभिषेक तो हो गया माँ! पिताजी ने मुझे चौदह वर्ष के लिये वन का राज्य दिया है।’ श्रीराम ने कहा। ‘राम! तुम परिहास तो नहीं कर रहे हो। महाराज तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं। किस अपराध से उन्होंने तुम्हें वन दिया है? मैं तुम्हें आदेश देती हूँ कि तुम वन नहीं जाओंगे, क्योंकि माता पिता से दस गुना बड़ी है; परन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकेयी की भी इच्छा सम्मिलित है तो वन का राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के राज्य से भी बढ़कर है।’ माता कौशल्या ने हृदय पर पत्थर रखकर राघवेन्द्र को वन जाने का आदेश दिया। उनके दु:ख का कोई पार नहीं था। ‘कौसल्ये! मैं तुम्हारा अपराधी हूँ, अपने पति को क्षमा कर दो।’ महाराज दशरथ ने करुण स्वर में कहा। ‘मेरे देव मुझे क्षमा करें।’ पति के दीन वचन सुनकर कौशल्या जी उनके चरणों में गिर पड़ीं। ‘स्वामी दीनतापूर्वक जिस स्त्री से प्रार्थना करता है, उस स्त्री के धर्म का नाश होता है। पति ही स्त्री के लिये लोक और परलोक का एकमात्र स्वामी है।’ इस तरह कौशल्या जी ने महाराज को अनेक प्रकार से सान्त्वना दी। श्रीराम के वियोग में महाराज दशरथ ने शरीर त्याग दिया। माता कौशल्या सती होना चाहती थीं, किन्तु श्री भरत के स्नेह ने उन्हें रोक दिया। चौदह वर्ष का समय एक-एक पल युग की भाँति बीत गया, श्रीराम आये। आज भी वह माँ के लिये शिशु ही तो थे।

माता कौशल्या कभी भी राम तथा भरत में भेद नहीं समझती और अपने पति व राम से स्नेह रखती है, पर राम के वन-गमन पर मौन रहकर अपने कर्तव्य का निर्वहन भी करती है । वह पति की मृत्यु के उपरान्त वह सती होने का प्रस्ताव भी रखती है, उसमें शील है, उदात्तता है, मातृत्व की व्यंजना है तो नारी सुलभ संवेदना भी है। कुछ पुराणों में कश्यप और अदिति के दशरथ और कौशल्या के रूप में अवतार भी माना गया | पुराणों में कहा गया है कि प्राचीन काल में मनु और शतरूपा ने वृद्धावस्था आने पर घोर तपस्या की। दोनों एक पैर पर खड़े रहकर ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और वर माँगने को कहा। दोनों ने कहा- “प्रभु! आपके दर्शन पाकर हमारा जीवन धन्य हो गया। अब हमें कुछ नहीं चाहिए।” इन शब्दों को कहते-कहते दोनों की आँखों से प्रेमधारा प्रवाहित होने लगी। भगवान बोले- “तुम्हारी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ वत्स! इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं, जो मैं तुम्हें न दे सकूँ।” भगवान ने कहा- “तुम निस्संकोच होकर अपने मन की बात कहो।” भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर मनु ने बड़े संकोच से अपने मन की बात कही- “प्रभु! हम दोनों की इच्छा है कि किसी जन्म में आप हमारे पुत्र रूप में जन्म लें।” ‘ऐसा ही होगा वत्स!’ भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा- भगवान विष्णु ने कहा कि त्रेतायुग में मेरा सातवां अवतार राम के रूप में होगा। “त्रेता युग में तुम अयोध्या के राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और तुम्हारी पत्नी शतरूपा तुम्हारी पटरानी कौशल्या होगी। तब मैं दुष्ट रावण का संहार करने माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूँगा।” मनु और शतरूपा ने प्रभु की वन्दना की। भगवान विष्णु उन्हें आशीष देकर अंतर्धान हो गए। । अपने इसी वरदान को पूरा करने के लिए भगवान राम दशरथ और कौशल्या के पुत्र के रूप में जन्म लिए। राजा दशरथ ही कृष्ण अवतार के समय वासुदेव और कौशल्या देवकी बने थे। कैकेय ने राम से कहा था कि तुम मेरे मैं तुम्हें अगले जन्म में पुत्र रूप में प्राप्त करूं, इसलिए कैकेय यशोदा बनीं और उन्हें भी कृष्ण की माता बनने का सौभाग्य मिला।

कहीं कही पर यह कहानी भी मिलती है कि कौशल्या को कौशल प्रदेश (छत्तीसगढ़) की राजकुमारी थी और उनके पिता का नाम सुकौशल और माता का नाम अमृतप्रभा था। राजकुमारी के विवाह योग्य होने पर वर की तलाश में चारों दिशाओं में दूत भेजे गए। उसी समय अयोध्या के राजा दशरथ ने साम्राज्य विस्तार अभियान के तहत कुश स्थल के राजा सुकौशल को मैत्री या युद्ध का संदेश भेजा। राजा सुकौशल के नहीं मानने पर दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ। राजा सुकौशल को मैत्री स्वीकारनी पड़ी। अच्छे मैत्री संबंधों के चलते सुकौशल ने बेटी कौशल्या का विवाह भी राजा दशरथ से करा दिया। राजा दशरथ ने उन्हें राजरानी का गौरव और सम्मान दिया, जिसने कौशल्या की नम्रता को और अधिक विकसित किया।) का प्रस्ताव आया और कुन्डली मिलायी गयी|

पुरोहितों ने कहा कि ये कन्या हर तरह से दशरथ के लिये उत्तम है लिहाजा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया | इस विवाह को लेकर वे चर्चाएं भी जोर पकड़ने लेगी जिसमे कहा गया था कि इस विवाह के कारण रावण के अन्त का समय निकट आ रहा है| अब कुछ ही दिनों में दशरथ का विवाह होगा फ़िर उनके घर भगवान राम का जन्म होगा, राम इस दैत्य रावण को मार देंगे और सभी देवता उसके अत्याचारों से मुक्त हो जायेंगे| यही रावण का भविष्य और यही होना भी है, इस भविष्यवाणी को सुन कर रावण ने गुप्तचरों से इस खबर की वास्तविकता पता लगाने को कहा तो बात सौलह आने सच थी| उसने एक महाबली दैत्य को आदेश दिया कि दशरथ का विवाह हो इससे पहले ही तू कन्या ( कौशल्या ) का हरण करके मार डालना | इस तरह राजा दशरथ की बारात दरबाजे पर पहुँची और इधर मायावी दैत्य ने कौशल्या का अपहरण कर लिया लेकिन बाद मैं उसे दया आ गयी सो उसने कौशल्या को मारने की बजाय एक बङे बक्से में बन्द करके समुद्र में फ़ेंक दिया | जब वैवाहिक कार्यक्रमों हेतु कौशल्या की तलाश की गयी तो सब हैरान रह गये और कौशल्या गायब मिली हर ओर खोज की गई लेकिन कोई फायेदा नहीं हुआ| अब बारात भी दरबाजे पर खङी थी, अब क्या किया जाय किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था किसी को कुछ बता भी नहीं सकते थे| तब घर के बङे लोगों ने विचार किया और किया कि कौशल्या का मामला बाद में देखेंगे फ़िलहाल घर की इज्जत बचायी जाय इसलिए उन्होने तुरन्त छोटी बहन सुमित्रा (सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्निकट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि-यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो महाराज ने कौशल्या जी को दिया शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौशल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रख दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी, श्री राम के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से शत्रुघ्न व् भरत जी के अनुगामी हुए। वैसे चारों कुमारों को रात्रि में निद्रा माता सुमित्रा ही कराती थीं। अनेक बार माता कौशल्या श्री राम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँचकर कहतीं- ‘सुमित्रा! अपने राम को लो। इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आती देखो, इन्होंने रो-रोकर आँखे लाल कर ली हैं।’ श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते ही सो जाते। कौशल्या की अपेक्षा सुमित्रा प्रखर, प्रभावी एवं संघर्षमयी रमणी है । पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। कैकेयी के वचनों की पालना एवं श्रीराम प्रभु के साथ जब लक्ष्मण अपनी माता से वन जाने की आज्ञा चाहते हैं तो वह कहती है कि जहाँ श्रीराम जी का निवास हो वहीं अयोध्या है । जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है । यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है। सुमित्रा ने सदैव अपने पुत्र को विवेकपूर्ण कार्य करने को प्रेरित किया । राग, द्वेष, ईर्ष्या, मद से दूर रहने का आचरण सिखाया और मन-वचन-कर्म से अपने भाई की सेवा में लीन रहने का उपदेश दिया| माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-‘लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।’ महर्षि वशिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे। इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है। सुमित्रा लक्ष्मण की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी राम कथा की प्राय: मूक पात्र बन कर रह गई । लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम वन-गमन के अवसर पर अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है।) को कौशल्या के विकल्प के रूप में तैयार किया और गुपचुप तरीके से आपस के लोगों को समझाकर सुमित्रा का (कौशल्या की जगह) विवाह दशरथ के साथ कर दिया | दशरथ या उनके पक्ष का या उस राज्य के लोग इस बात को न जान सके यह बात कुछ ही गिने चुने परिवार के लोगों तक ही यह बात सीमित राखी गई इस तरह ये विवाह निर्विघ्न हो गया|

लंका में बन्द देवता आपस में कहने लगे कि रावण खुद को ज्यादा अक्लमंद बनता है देखो दशरथ का विवाह हो गया अब राम का जन्म होगा जब ये बात रावण ने सुनी तो वह बेहद ही हैरान रह गया कि ऐसे कैसे हो गया उसने सच्चाई पता की तो बात एकदम सच थी| जिस दैत्य को कौशल्या को मारने भेजा था उससे जबाब तलब किया तो उसने शपथपूर्वक कहा कि उसने कौशल्या को मारकर समुद्र में फ़ेंक दिया| इस बात को वह छुपा गया कि उसने कौशल्या को मारा नहीं बल्कि जिन्दा ही फ़ेंका है| तब दशरथ की बारात समुद्र मार्ग से बङी बङी नौकाओं में आ रही थी और रावण ने एक दूसरे दैत्य को आदेश दिया कि समुद्र में तूफ़ान उठाकर सारी बारात को तहस नहस कर दे और बारात को डुबोकर मार डाले| उस दैत्य ने ऐसा ही किया, सारी नावें उलट पुलट हो गयी कोहराम मच गया, लोग इधर-उधर जान बचाने की कोशिश करने लगे | दशरथ और सुमित्रा एक टूटे बेङे पर बैठे हुये विशाल सागर में भगवान की दया पर बेङे के साथ बहने लगे अन्य बारात का कोई पता नहीं था | दूसरे दिन दोपहर के समय उनका बेङा एक टापू से जा लगा, तब दशरथ ने राहत की सांस ली लेकिन वे इस वक्त किस स्थान पर हैं इसका उन्हें पता नहीं था और दशरथ को अभी तक ये भी नहीं मालूम था कि उनके साथ बैठी बधू कौशल्या नहीं सुमित्रा हैं| इस तरह दो दिन बिना खाये पीये गुजर गये, न कोई नाविक आता दिखा और न ही कोई अन्य सहायता, तब शाम के समय सुमित्रा को एक बक्सेनुमा कोई चीज टापू के पास से जाती हुयी दिखायी दी दोनों ने मिलकर उसे खींचा कि शायद कोई खाने की चीज या कोई अन्य उपयोगी चीज प्राप्त हो जाय| दोनों ने मिलकर बक्से को जतन से खोला अन्दर से सजी सजायी हुयी एक नववधू प्रकट हुयी जिसे देखते ही सुमित्रा ने बेहद आश्चर्य से कहा अरे बहन आप यहाँ कैसे?

राजा दशरथ और सुमित्रा दोनों एक दुसरे को भौंचक्का होकर दोनों को देख रहे थे, तब सुमित्रा ने इस राज पर से परदा उठाया और बताया कि वास्तव में कौशल्या तो ये है | कौशल्या ने भी आपबीती सुना दी अब ये दो से तीन हो गये और टापू पर किसी सहायता की आस में दिन गुजारने लगे| उधर लंका में देवताओं ने फ़िर कहा, रावण पागल हो गया है, दशरथ को कुछ नहीं हुआ वह अपनी दोनों पत्नियों के साथ टापू पर किसी सहायता के इन्तजार में है अब उनके घर भगवान राम का जन्म होगा | राम इस दैत्य रावण को मार देंगे और हम मुक्त हो जायेंगे, यही भविष्यवाणी है यही होना है| अबकी रावण क्रोधित हो उठा उसने एक महाशक्तिशाली दैत्य को तीनों की हत्या के लिये टापू पर भेजा और प्रमाण स्वरूप तीनों की आंखे निकालकर लाने की आज्ञा दी, महामायावी ये दैत्य जिस समय टापू पर पहुँचा उसका सामना सुमित्रा से हुआ क्योंकि ये मानव के रूप में था अतः सुमित्रा ने बेहद मासूमियत से इसे भैया के सम्बोधन से पुकारा और धर्म भाई बनाते हुये उसकी कलाई पर चीर बान्ध दिया | दैत्य के सामने धर्मसंकट उत्पन्न हो गया, अब अगर वह तीनों में किसी का वध करता तो उसे भारी दोष लगता और वैसे भी उसने सोचा कि रावण अकारण ही इन निर्दोषों को मारना चाहता है ये भला उसका क्या अहित कर सकते हैं| अतः उन्हें मारने का विचार त्यागकर उसने हिरन आदि जीवों की आंख रावण को दिखा दी और कहा कि उसने काम पूरा कर दिया|

इधर लगभग पाँचवे दिन एक नाविक उधर से गुजरा और उसे दशरथ ने ऊँचे स्वर में कहा हे नाविक मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूँ और यहाँ एक आकस्मिक मुसीवत में फ़ंस गया हूँ यदि तुम किसी उचित थलीय स्थान पर हमें पहुँचा दोगे तो मैं तुम्हें बहुत सारा धन दूँगा |उसने व्यंग्य से कहा श्रीमान फ़िर से अपना परिचय तो देना दशरथ ने दिया उसने कहा आओ तुम तीनों मेरी नाव में बैठो तुम्हें समुद्र में डुबोकर मेरा बहुत पुन्य होगा| बङे आये इनाम देने वाले, घमन्डी राजा अच्छा हुआ तुमने अपना परिचय दे दिया तुम्हें कोई सहायता करना तो दूर नाव पर चढने भी नहीं दूँगा? दशरथ को बेहद आश्चर्य हुआ उन्होने अत्यंत विनम्रता से कहा कि हे नाविक तुम कौन हो मुझसे तुम्हारी क्या दुश्मनी है | तब नाविक ने कहा कि मैं उसी कैकय देश का नागरिक हूँ जिसकी राजकुमारी कैकयी की तुमने भारी बेइज्जती की थी | मैं क्या पूरा कैकय देश दशरथ के नाम से नफ़रत करता है| तब तीनों ने मिलकर जब उसे काफ़ी समझाया तो वह एक शर्त पर तैयार हुआ कि दशरथ उसे वचन दें कि यहाँ से उसके साथ ही वह तीनों कैकय जायेंगे और कैकयी से विवाह करेंगे तो उनके देश से बेइज्जती का दाग दूर होगा तो वह सहायता कर सकता है | वे तीनों टापू पर अधमरे से हो चुके थे किसी सहायता की कोई आस नजर नहीं आ रही थी अतः दशरथ ने वचन दे दिया और वचन के अनुसार पहले कैकय देश जाकर कैकयी से विवाह किया| इस तरह अनोखे घटनाक्रम से दशरथ के तीन विवाह हुये|

एक बार कौशल्या की बहन और अंग देश के राजा रोंपद की पत्नी रानी वर्षिणी कौशल्या से मिलने अयोध्या आई। उनके कोई संतान नहीं थी और उन्होंने हंसी हंसी में कौशल्या से संतान की मांग कर डाली। कौशल्या ने दशरथ से कहा और दशरथ ने रानी वर्षिणी को वचन दिया और रघुकुल का वचन निभाते हुए बच्ची को रानी वर्षिणी की गोद में दे दिया। इस तरह शांता अंग प्रदेश की राजकुमारी बन गई। हालांकि कुछ कथाओं में कहा जाता है कि राजा दशरथ ने शांता को किसी ऋषि को गोद दिया था और उसी ने शांता का पालन पोषण करके उसका विवाह ऋषिश्रङ्ग से कराया। शांता बचपन में ही अंग प्रदेश चली गई और इसी कारण राम और अन्य भाइयों के बाल्यकाल में शांता का जिक्र कम आता है। शांता अंग देश में अपने पिता राजा रौंपद की राज काज चलाने में काफी मदद किया करती थी । एक बार वो अपने पिता के साथ बैठकर बात कर रही थी कि एक व्यक्ति आया और राजा के सामने रोने लगा। पता चला कि राज्य में सूखे की दिक्कत हो रही है और उसके पास बीज भी नहीं हैं। शांता ये सुनकर व्याकुल हो गई। उन्होंने पिता से कहा कि वर्षा के लिए यज्ञ करवाएं। तब ऋषिश्रङ्ग को बुलाया गया और उनके यज्ञ के पश्चात खूब वर्षा हुई। ऋषिश्रङ्ग की विशेषता था कि वो सूखे में जहां कदम रखते वहां बारिश हो जाती थी और सूखा खत्म हो जाता था। राजा ने प्रसन्न होकर शांता का विवाह ऋषिश्रङ्ग से किया औऱ शांता ऋषि पत्नी बन गई। राजा दशरथ चाहते थे कि वंश को आगे चलाने के लिए रानियों के पुत्र पैदा हों। इसीलिए सुमंत की सलाह पर राजा दशरथ ने ऋषिश्रङ्ग को निमंत्रण भेजा। ऋषिश्रङ्ग ने शर्त रखी कि मैं अकेला यज्ञ नहीं करूंगा, मेरी भार्या (पत्नी) को भी यज्ञ में बैठना होगा। तब शांता को बुलाया गया, राजा दशरथ उसे पहचान नहीं पाए लेकिन जब उसने राजा दशरथ और कौशल्या के पांव छुए और परिचय दिया तब पता चला कि वो राजा दशरथ की ही पुत्री है। इसके बाद ऋषिश्रङ्ग ने शांता के साथ बैठकर पुत्रकामेष्ठि यज्ञ किया जिसके फलस्वरूप राम , लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न पैदा हुए। विशिष्ठ रामयण के अनुसार उत्तरी एवं दक्षिणी कौशल के राजा की संतान न होने का कारण था दशरथ और कौशल्या का एक ही गोत्र का होना जो उन्हें मालूम नहीं थी. विशिष्ठ रामायण में यह भी उल्लेखित है की विवाह के बाद कौशल्या तुरंत गर्भवती हो गई थी तथा उनके गर्भ से जन्मी पुत्री अपाहिज थी. जब राजा दशरथ अपनी पुत्री के उपचार के लिए उसे गुरु वशिष्ठ के पास ले गए तब उन्होंने बताया की उनके पुत्री की यह स्थित उनके समान गोत्र के कारण है. उनकी पुत्री तभी स्वस्थ हो सकती है जब राजा दशरथ उसे किसी अन्य को गोद दे | कौशल्या की बड़ी बहन वर्शानी और उनके पति राजा रोपाद (जो एक ही आश्रम में अध्ययन के दौरान राजा दशरथ के एक महान दोस्त थे) की कोई संतान नहीं था। एक बार, जब वर्हिणी अयोध्या में थी, उसने एक बच्चे की मांग करने के लिए मजाक उड़ाया, जिस पर दशरथ ने वादा किया कि वह अपनी बेटी शांता को अपना बना सकती है। जैसा कि ‘रघुकुल’ का वादा किया जाना था, शांता को अंगद के राजा राजा रोपाद ने अपनाया था। एक दिन, जब शांता वयस्क हो गई थी और अब एक बहुत सुंदर महिला थी, वह राजा रोपाद के साथ बातचीत में थी। इस समय, एक ब्राह्मण राजा रोपाद की यात्रा के लिए मानसून के दौरान खेती के लिए मदद का अनुरोध करने आया था। अपनी दत्तक बेटी शांता के साथ बातचीत में व्यस्त, राजा रोपाद ने ब्राह्मणों को नजरअंदाज कर दिया, जिन्होंने राज्य छोड़ दिया। भगवान इंद्र, बारिश के देवता को नाराज किया गया क्योंकि उनके एक ब्राह्मण भक्त का अपमान किया गया था। भगवान इंद्र ने रोपाद को दंड देने का फैसला किया और इसलिए, आने वाले मानसून में बारिश नहीं हुई। इस शाप से मुक्त होने के लिए, राजा रोपाद ने एक ऋषि ऋषिश्रण को बुलाया, यज्ञ को यहोवा के बारिश के लिए पूछने के लिए कहा, जो सफल हुआ। ऋषि को सम्मान देने के लिए, राजा दशरथ और राजा रोपाद ने शांता से ऋषिश्रण से शादी करने का फैसला किया। जैसा कि दहेत्र का कोई वारिस नहीं था