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संस्कार और संस्कृति : वो चीज़ों को छू कर महसूस नहीं कर सकता, बिना कैमरे की मदद के नंगी आंखों से देख नही सकता!


संस्कार और संस्कृति
✍हारून पाशा
बहुत पुरानी बातें नहीं हैं। जब किशोरावस्था के लड़कियां/लड़के सामान्यतः घर, रसोई एवं विद्यालय का गृहकार्य करने के बाद अपने खाली समय में कोई ना कोई किताब या मैगजीन लेकर कभी छत की सीढ़ियों पर या किसी कोने में बैठकर पढ़ने में बहुत मज़ा आता था। जब मम्मी कहतीं थीं कि ‘बेटा, किवाड़ लगा लो। हम जरा बाजार/बैंक तक होकर आते हैं।’ मम्मी गईं यानि कम से कम एक घंटे की आजादी। हाथ की किताब छोड़ दौड़-दौड़कर घर के सभी कमरों में झाँकते। कहीं कपड़े फैले हुए हैं, सिंक में बर्तन जूठे पड़े हैं और सोचते कि मम्मी को सरप्राइज दिया जाए। सारे कमरों का बिखरा सामान सहेजकर, बेडशीट बदलकर, धुले कपड़ों को तह लगाकर, बर्तन मांझ/धोकर, शिकंजी बनाकर फ्रिज में ठण्डा करके तुरत-फुरत घर को तरतीबी से रखकर मन-ही-मन हर्शाते थे कि मम्मी को अच्छा लगेगा। तब यह लड़के/लड़कियां यह नहीं जानते थे कि इस नवयौवन/किशोरावस्था में, इस समय का उपयोग, अपने शरीर/मन को यौनसुख/नशे से भरने का कोई आयोजन भी किया जा सकता है? तब गली-मोहल्लों के छोटे-बड़े लड़के/लड़कियां, सभी भाई/भैया/दीदी/छुटकी, सभी आदर के पात्र होते थे।

आज सोशल मीडिया/फेसबुक/इंस्टाग्राम ने ऐसे अबोध मन वाले हमारे सीधे-सादे मासूम टीनएज बच्चों/युवाओं के अचेतन मन को न जाने कितने घटिया आइडियाज/सोच से भर दिया है। हम उनके अकेलेपन के साथी नहीं रह गये हैं और उनकी लगाम अब अनजान लोगों के हाथों में चली जा रही है। कोनवैंट शिक्षा के प्रोत्साहन के चलते हमने ही उनका बचपन ‘जेक एंड जिल, वैंट अप द हिल’ में खो दिया और अब वह अपनी संस्कृति/सोच/संस्कारों को हिकारत से देखने लगे हैं। इसमें उनका दोष क्या है? जब हमने स्वयं दूसरों/पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत होकर अपने नन्हें बच्चों का हाथ उनको पकड़ा दिया। अब उनकी पूरी परवरिश पाश्चात्य संस्कृति से अभिप्रेरित है, अब हमें सुनना/समझना उनके लिए नामुमकिन तो नहीं है लेकिन मुश्किल जरूर है। आज़ भी यदि हम उनका/अपना भला चाहते हैं तो पहले हम अपने जीवन मुल्यों से जुड़े/जीयें, फिर हमें देखते/चलते/सम्भलते देखकर, धीरे-धीरे वह भी इस रास्ते की खुशबू से महक उठेंगें।

Shadab Anand
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टाइटन पनडुब्बी कुछ हज़ार मीटर पानी के नीचे प्रेशर की वजह से फट गई और उसमें बैठे लोग मारे गए, टाइटैनिक देखने के लिए जाने वाले लोग पनडुब्बी की खिड़की से या कैमरे के मदद से जहाज़ के मलबे को देखा करते थे, अर्थात उतनी गहराई पर जाकर कोई व्यक्ति पनडुब्बी से बाहर नहीं निकल सकता क्योंकि जब पनडुब्बी के चीथड़े उड़ सकते हैं फिर तैराकी के लिबास में किसी व्यक्ति का निकलना मुमकिन ही नहीं है, इसका मतलब ये हुआ के कुछ हज़ार मीटर समुद्र के नीचे कोई इंसान तैरते हुए जीवित नहीं रह सकता, वो चीज़ों को छू कर महसूस नहीं कर सकता, बिना कैमरे की मदद के नंगी आंखों से नही देख सकता, इससे ये बात स्पष्ट होती है के वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद समुद्र का बहुत बड़ा हिस्सा अभी इन्सान एक्सप्लोर नही कर पाया है, इससे ये बात भी समझ में आती है के साइंस और टेक्नोलॉजी के डेवलपमेंट को जितना बड़ा बनाकर दिखाया जाता है ये उतना ज़्यादा डेवलप भी नही हुआ है, अभी विज्ञान ने तो इस पृथ्वी को ही ठीक से एक्सप्लोर नही किया है, साइंस और technology के डेवलपमेंट के नाम पर हव्वा खड़ा करने का भी कोई राजनीतिक और सामाजिक कारण प्रतीत होता है, साइंटिफिक डेवलपमेंट को हद से बढ़ाकर दिखाने का प्रोपगेंडा मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक हरबा मालूम पड़ता है।

Md Iqbal