इतिहास

स्वतंत्रता सेनानी डॉ मक़दूम मोहिउद्दीन

Ataulla Pathan
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4 फेब्रुवारी यौमे पैदायिश
स्वतंत्रता सेनानी डॉ मकदूम मोहिउद्दीन : क्रांतिकारी छापामार की बंदूक
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4 फरवरी 1908 को आंध्र प्रदेश रियासत के मेडक जिला अनडोल गाव में उनका जन्म हुआ था. इनक् पिता का नाम गौस मोहिउद्दीन था. उनका असली नाम अबू सईद मोहम्मद मकदुम मोहिउद्दीन कादरी था.

बहुत कम उम्र में पिता के गुजर जाने के कारण इनकी परवरिश इनके चाचा बशिरुद्दीन ने की. उन्हीं से वह रूसी इंकलाब के बारे में जाने. मख़दूम साहेब ने उस्मानिया यूनिवर्सिटी से 1934 में बी.ए. और 1936 में एम.ए. किया और 1939 में मख़दूम साहेब सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने के लिए बहैसियत लैक्चरर नियुक्त हुए. इससे पहले जब 1930 में कॉमरेड एसोसिएशन की बुनियाद पड़ी तो मख़दूम साहेब इससे बावस्ता हुए. सिब्ते हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी, डॉ. जय सूर्या नायडू, एम. नरसिंह राव के साथ मख़दूम साहेब ने प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन की बुनियाद हैदराबाद में डाली. इनकी बैठकें अक्सर सरोजनी नायडू के घर हुआ करती थीं. कॉमरेड एसोसिएशन के जरिए ही मख़दूम साहेब कम्युनिस्टों के सम्पर्क में आए और साल 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य बने. 1943 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और मजदूरों, किसानों के हक़ लड़ाई में शामिल हो गए. 1941 में पहली बार वो जेल गए और 1946 में राज बहादुर गौड़ और रवि नारायण रेड्डी के साथ आर्म स्ट्रगल में शरीक होकर अंडरग्राउंड हो गए. वो गिरफ्तार होते रहे. जेल जाते रहे.
लो सुर्ख सवेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का।


गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का।।

देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का ।।।

ये ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’ शीर्षक के तहत छपी कविता की पंक्तियां हैं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई तो मख़दूम की नज़्म ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’ उस वक्त आज़ादी का तराना बन गया था. ‘रौशनाई’ में सज्जाद ज़हीर ने इस नज़्म के बारे में लिखा है कि यह तराना, हर उस गिरोह और मजमें में आज़ादी चाहने वाले संगठित आवाम के बढ़ते हुए कदमों की आहट उनके दिलों की पुरजोश धड़कन और उनके गुलनार भविष्य की रंगीनी पैदा करता था, जहां ये तराना उस ज़माने में गाया जाता था. ठीक उसी वक्त कैफी आजमी का नज्म ‘मकान’ छपा था. इस कविता को बाद में मखदूम की पहली संग्रह सुर्ख सवेरा’ नाम से 1944 में आयी थी.

1946 में जब तेलंगाना के किसानों ने सामंतों के खिलाफ जन संघर्ष शुरू किया. तो मख़दूम उसमें किसानों के साथ लड़ाई में थे. मख़दूम अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के जरिए आन्दोलन में गर्मी पैदा कर देते थे. मख़दूम हाथ में कलम और कंधे पर बंदूक लेकर निज़ाम के खिलाफ लड़ रहे थे. निज़ाम ने उनपर पांच हजार रूपये का इनाम घोषित किया था. मख़दूम की जिंदगी का ज्यादा हिस्सा सियासी सरगर्मियों में बीता.

आज़ाद हिंदुस्तान में भी वो गिरफ्तार हुए. 1951 में वो आख़िरी बार जेल गए और 1952 में बाहर आए. 25 अगस्त 1969 को मख़दूम मोहिउद्दीन दुनिया को अलविदा कह गए

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हयात ले के चलो काएनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो

उनके नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने अपने आंध्र प्रदेश ऑफिस का नाम रखा और एन. टी. रामा राव की सरकार ने हुसैन सागर के किनारे उनकी मूर्ति लगवाई, जहां 34 हस्तियों की मूर्तियां लगाई गई हैं. किसानों, मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले इस शायर और लीडर को उसके संघर्ष और अदब के लिए याद किया जाता रहेगा.

रात की तलछटें हैं, अंधेरा भी है,
सुबह का कुछ उजाला, उजाला भी है
हमदमो!
हाथ में हाथ दो
सूए-मंजिल चलो
मंजिलें प्यार की
मंजिलें दार की
कूए-दिलदार की मंजिलें
दोश पर अपनी अपनी सलीबें उठाए चलो !

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संदर्भ- 1)THE IMMORTALS
– syed naseer ahamed
2) heritage times
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संकलन तथा अनुवादक लेखक *अताउल्ला खा रफिक खा पठाण सर टूनकी तालुका संग्रामपूर जिल्हा बुलढाणा महाराष्ट्र*
9423338726