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हिंदू राष्ट्र की पूरी धारणा ही ‘मुसलमानों से नफ़रत’ पर टिकी है, 80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत की लड़ाई : रिपोर्ट

भारत का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था. पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बना, वहीं भारत के नेताओं ने सेक्युलर रास्ता चुना, लेकिन आज़ादी के 75 वर्ष बाद सेक्युलर शब्द को एक तबक़ा अपशब्द की तरह इस्तेमाल करने लगा है क्योंकि उनके मुताबिक़ भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ है.

पिछले कुछ समय में सत्ता से जुड़े ज़िम्मेदार लोगों और निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के ऐसे अनेक बयान टीवी चैनलों पर देखने को मिले जिन्हें कुछ साल पहले तक लोग निजी बातचीत में भी कहने से परहेज़ करते थे.

इन सभी बयानों में मुसलमानों के खान-पान, रहन-सहन और धार्मिक गतिविधियों पर टीका-टिप्पणी की गई थी.

इसमें दंगाइयों को कपड़े से पहचानने वाला बयान हो, गोली मारो *** को , हाइवे पर नमाज़ पढ़ने वालों का ज़िक्र हो या राशन पहले अब्बा-जान वाले ले जाते थे … ऐसे बयानों की लंबी लिस्ट है. इस तरह के बयानों की भरमार चुनाव के आसपास अधिक होती है लेकिन इनकी झड़ी पूरी तरह बंद कभी नहीं होती.

भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दरार आज़ादी से पहले से रही है, लेकिन यह भी सच है कि आज़ादी की लड़ाई दोनों ने साथ मिलकर लड़ी थी.

इस दरार की ही वजह से समय-समय पर दंगों की शक्ल में दोनों समुदायों के बीच टकराव भी होते रहे हैं. ये भी सच है कि पिछले कुछ सालों में कानपुर-मुंबई (1992), मेरठ (1987), राँची (1967), भागलपुर (1989) और अहमदाबाद (2002) जैसे भीषण दंगे नहीं हुए हैं, 2020 के दिल्ली दंगों के अपवाद को छोड़कर.

लेकिन दोनों समुदायों के बीच की दरार पहले से अधिक गहरी होती दिख रही है जिसके पीछे रोज़-रोज़ उछाले जाने वाले ऐसे मुद्दे हैं जिनका सीधा संबंध देश के मुसलमानों से है. यहाँ हम उन्हीं मुद्दों पर नज़र डाल रहे हैं जो दरार को रोज़-ब-रोज़ गहरा करते जा रहे हैं

ऐसा नहीं है कि ये सारे बयान केवल राजनीतिक तबके़ से आ रहे हैं, समाज के हर हिस्से में, सोशल मीडिया पर, पार्टियों के प्रवक्ताओं से लेकर व्हाट्सऐप ग्रुप के रिश्तेदारों के बीच हिंदू-मुसलमान तकरार से जुड़े मुद्दों पर बहस और कड़वाहट फैल रही है.

कभी धर्म-संसद के नाम पर, तो कभी भड़काऊ भाषण देकर, कभी माँस की दुकानों को लेकर, कभी पार्क- मॉल में नमाज़ पढ़ने को लेकर, तो कभी हिजाब पहनने पर हंगामा खड़ा करके, तो कभी लाउडस्पीकर से अज़ान को मुद्दा बनाकर यह सिलसिला किसी-न-किसी रूप में चलता रहा है.

हंगामा-दर-हंगामा. ये जो सिलसिला चल रहा है, इसमें अगर दो पक्ष हैं तो एक पक्ष वो तबक़ा है जो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखता है, और दूसरी ओर देश के मुसलमान नागरिक हैं.

यूपी चुनाव से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस बयान को याद करिए जिसमें उन्होंने 80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत की लड़ाई की बात कही थी.

हालांकि उन्होंने बाद में सफ़ाई दी थी कि 80 और 20 से उनका मतलब हिंदू और मुसलमान से नहीं था, बल्कि देशभक्त और देशविरोधी ताक़तों की ओर उनका इशारा था.

कश्मीर और सावरकर पर चर्चित किताबें लिख चुके अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “चुन-चुनकर ऐसे मुद्दों को उछाला गया है जिनका मक़सद 80 प्रतिशत हिंदुओं को ताक़तवर होने का एहसास दिलाना और 20 प्रतिशत मुसलमानों में अलगाव या परायेपन का भाव भरना है.”

 

‘हिंदू राष्ट्र’

हिंदू धर्म को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश के तहत विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदुत्व शब्द पर ज़ोर दिया था, उससे पहले हिंदुत्व शब्द का ऐसा इस्तेमाल कभी नहीं हुआ था. पहली बार 1923 में छपी उनकी किताब ‘एसेंशियल्स ऑफ़ हिंदुत्वा’ में द्विराष्ट्रवाद की दलील सामने रखी गई, उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि हिंदू और मुसलमान बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग हैं.

सावरकर का कहना था कि भारत हिंदुओं की पितृभूमि और पुण्यभूमि है जबकि मुसलमानों और ईसाइयों की पुण्यभूमि भारत नहीं है क्योंकि उनके तीर्थ भारत से बाहर हैं इसलिए देश के प्रति उनकी श्रद्धा विभाजित है. कई लोग ये भी मानते हैं कि हिंदुत्व शब्द को सावरकर ने नहीं गढ़ा था लेकिन उन्होंने इसकी विस्तार से और नई व्याख्या की.

कई इतिहासकार मानते हैं कि आरएसएस का ‘हिंदू राष्ट्र’ और सावरकर का ‘हिंदू राष्ट्र’ एक नहीं है.

‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना के पीछे आरएसएस की सोच क्या है, इसका विस्तृत वर्णन आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी में मिलता है. 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना नागपुर में हुई थी लेकिन इस अवधारणा पर काम पहले ही शुरू हो गया था.

1925 के तीन-चार साल पहले से ही नागपुर के वातावरण में हिंदू-मुसलमान फ़साद आम थे. आरएसएस की वेबसाइट पर मौजूद ‘नागपुर दंगे की कहानी’ में इस बात का ज़िक्र मिलता है. उसमें लिखा है :

“1924 से नागपुर में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार होने के कारण उनका पारा चढ़ा हुआ था. उनके दुराग्रह की चिंता न करते हुए सतरंजीपुरा, हंसापुरी और जुम्मा मस्जिदों के सामने हिंदुओं की शोभायात्राएँ बाजे-गाजे के साथ निकलती रहती थीं.”

भारत में आज जब हनुमान जयंती, रामनवमी पर शोभायात्राओं में हिंसा की ख़बरें सामने आ रही हैं, तो शायद बहुत से लोगों को मालूम नहीं होगा कि ऐसी शोभायात्राओं की परंपरा पिछली सदी से चली आ रही है. पहले भी ये शोभायात्राएँ मस्जिदों के इलाक़े से निकाली जाती रही हैं. इनमें लोग लाठी-डंडे उस समय से ही ले जाते रहे हैं.

उसी आर्काइव में आगे लिखा है, “इस वजह से मुसलमानों ने हिन्दुओं को नाना प्रकार से सताने का प्रयत्न शुरू कर दिया. अकेला-दुकेला हिन्दू मिल गया तो उसे पकड़कर पीटते थे तथा हिन्दू मोहल्लों से लड़कियों को भगाकर ले जाते थे.”

ऐसे ही दो मुसलमानों के डर से भागने वाले एक हिंदू को रोककर डॉक्टर हेडगेवार ने पूछा:

“क्यों भाग रहा है?”
उसने हाँफते हुए उत्तर दिया, “दो मुसलमान मारने को आ गए. अकेला था. क्या करता? भागकर जान बचाई.”

इस तरह की घटनाओं को बताते समय डॉ. हेडगेवार कहते थे कि हिंदुओं के मन से हीन भाव और भय को निकाला जाए. उनका कहना था कि आत्मगौरव और आत्मविश्वास भरकर हीनता दूर करनी होगी, हिंदुओं के मन में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम पैंतीस करोड़’ का राष्ट्रीय अस्मिता वाला भाव उत्पन्न करना चाहिए.

संक्षेप में कहें तो हिंदुओं के अंदर की इस तथाकथित हीन-भावना को ख़त्म कर ‘गर्व’ के भाव को भरने की पूरी कहानी का नाम ही मिशन ‘हिंदू राष्ट्र’ है जिसका उद्देश्य हिंदुओं को मुसलमानों के मुकाबले अधिक ताक़तवर महसूस कराना है.

मुसलमानों में ‘डर’

आज भारत में हिंदुओं की आबादी 95 करोड़ से अधिक है लेकिन आज भी हिंदुओं को कई तरीकों से असुरक्षा का एहसास दिलाया जा रहा है. मसलन, उन्हें बताया जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी, या फिर ये कि हिंदुओं की बहनों और बेटियों को कथित ‘लव जिहादियों’ से ख़तरा है.

पिछले कुछ सालों से भारत के मुसलमान भी डर की बात करने लगे हैं.

इसी डर का ज़िक्र कर्नाटक में हिजाब विवाद से चर्चा में आई मुस्कान ने बीबीसी से बातचीत में किया था. मुस्कान ने तब कहा, “मैं हिजाब में कॉलेज गई तो मुझे हिजाब हटाने के लिए कहा गया. मुझे डरा रहे थे वो लोग. मुझसे पहले चार लड़कियों को तो लॉक ही कर दिया था. मैं जब डरती हूँ तो अल्लाह का नाम लेती हूँ.”

ऐसा ही डर दिल्ली के जहांगीरपुरी के मुसलमानों में भी दिखा. जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के दिन निकली शोभायात्रा में हिंसा के बाद से एक घर पर ताला लटका हुआ था. घर में रहने वाले मुस्लिम व्यक्ति का पिछले दो तीन-महीने से अता-पता नहीं है.

जब बीबीसी के रिपोर्टर ने पूछा तो पड़ोसियों ने बताया, ”यहाँ ‘वो’ किराए पर रहता था. चिकन सूप की रेहड़ी लगाता था लेकिन डर से भाग गया.”

मध्य प्रदेश के खरगोन में रामनवमी के जुलूस के दौरान जो हिंसा हुई उसके बाद कई लोगों के घरों और दुकानों को बुलडोज़र से रौंद दिया गया. खरगोन की खसखस वाड़ी की जिस हसीना फ़ख़रू के मकान को तोड़ा गया, वो घर उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिला था. डर और ग़ुस्से में वो कहती हैं, “प्रशासन ने घर ही क्यों तोड़ा, हमें मार ही दिया होता.”

इसी ‘डर का इज़हार’ नवरात्रों में मीट की दुकानें बंद करवाने पर व्यापारियों ने किया, इसी डर का इज़हार ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे के बाद, जुमे की नमाज़ पढ़ने जाने वालों ने बनारस में भी किया.

नूपुर शर्मा के पैगंबर मोहम्मद पर दिए बयान के बाद जब भारत के अलग-अलग शहरों में विवाद बढ़ा और कई शहरों में जुमे की नमाज़ के बाद 11 जून को हिंसा हुई, तो उसके बाद उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भी लोगों के घर अगले दिन बुलडोज़र से तोड़े गए.

प्रयागराज की हिंसा में जिन जावेद को मास्टरमाइंड बताया गया, उनका घर भी बुलडोज़र से ढहा दिया गया. जावेद नाम के उस शख़्स की बेटी और बीवी ने भी इसी ‘डर’ का ज़िक्र किया.

इन तमाम नामों पर ग़ौर करें तो कुछ बातें कॉमन हैं – ये सब ‘डरे’ हुए लोग मुसलमान हैं. डर का ये माहौल ज़्यादातर मामलों में बीजेपी शासित राज्यों में है.

वैसे ये भी सच है कि राजस्थान, पश्चिम बंगाल, झारखंड जैसे ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों में भी डर के माहौल की बात कही जा रही है.

एक और सच्चाई ये भी है कि केवल मुसलमानों के घर ही बुलडोज़ नहीं किए गए. कई हिंदुओं के घरों और दुकानों को भी निशाना बनाया गया है.

लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “हिंदू राष्ट्र की पूरी धारणा ही ‘मुसलमानों से नफ़रत’ पर टिकी है. हमेशा से संघ ने अपने दो दुश्मन बताए हैं – एक मुसलमान और दूसरा कम्युनिस्ट. कम्युनिस्ट तो इस हाल में हैं नहीं कि बहुत कुछ कर सकें. मुसलमान सबसे आसान निशाना नज़र आते हैं.”

अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “इस डर की वजह से एक तरफ़ मुसलमान समुदाय एकजुट होता है और दूसरी तरफ़ हिंदू एकता की भी बात होती है जो दरअसल वोट बैंक है, यही ध्रुवीकरण है जिसका चुनावी फ़ायदा उठाया जाता है. जनता को जनता से लड़ा दिया गया है. ये हिंदुओं के उस तबक़े को ख़ुश करता है जिनके भीतर प्रतिशोध की भावना भरी गई है.”

अशोक कुमार पांडेय के वोट बैंक वाले तर्क का भी विश्लेषण करेंगे, लेकिन पहले एक नज़र डर के कुछ प्रतीकों पर.

हिंदू होने का मुखर सार्वजनिक प्रदर्शन

मुसलमानों के डर के अलावा इन घटनाओं को देखने का एक दूसरा नज़रिया भी है, वो है हिंदू होने का गर्व.

आज भारत के हिंदुओं का एक तबक़ा अपने हिंदू होने का सार्वजनिक प्रदर्शन मुखर होकर कर रहा है, लेकिन यह नया नहीं है, 1990 के दशक के शुरू में विश्व हिंदू परिषद ने नारा दिया था—‘गर्व से कहो, हम हिंदू हैं’.

चाहे धर्म-संसद का आयोजन हो या फिर तमाम त्योहारों पर शोभायात्राएँ निकालना या फिर खान-पान पर बवाल या हिजाब पर सवाल, इतिहास को बदलना या फिर मंदिर-मस्जिद विवाद- ये लिस्ट लंबी है.

क्या ये सब ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना की वजह से हो रहा है?

विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, “हिंदू राष्ट्र की हमारी अवधारणा सांस्कृतिक है, न कि किसी राज्य की है. वीएचपी ये नहीं चाहती कि भारत, हिंदू धर्म का राज्य हो जाए या फिर भारत में मुसलमान या ईसाई के नागरिक अधिकार कम हो जाएँ. भारत की परंपरा, भारत का चिंतन, भारत का इतिहास – इन सब से जो विशिष्टता पैदा हुई है वो हिंदू है. ये सर्वसमावेशी है, ये किसी को छोड़ता नहीं है, अलग नहीं करता है. इस संदर्भ में भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है, था और रहेगा.”

आलोक कुमार के इस बयान को उडुपी में हिजाब पहनने वाली मुस्कान, खरगोन की हसीना फ़ख़रू, जहाँगीरपुरी की साहिबा या प्रयागराज के जावेद की बेटी के डर वाले बयान के साथ जोड़ कर देखें तो सवाल उठता है कि इस ‘समावेशी’ हिंदू राष्ट्र के विचार में उनकी जगह कहाँ है?

पिछले एक साल की ख़बरों की टाइमलाइन एक ख़ास तरह के विवादों से भरी नज़र आती है.

पिछले तक़रीबन एक साल से हर महीने भारत के एक-न-एक शहर से ऐसी ख़बरें आती रही हैं, इन सभी घटनाओं का परिणाम एक ही है, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव का बढ़ना.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा ग़ैर-सरकारी संगठन है, वीएचपी उसका अनुषांगिक संगठन है और भारत की मौजूदा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी समेत कई मंत्री आरएसएस से जुड़े रहे हैं.

इस वजह से इन दोनों संगठनों की सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा को राजनीतिक रूप में आगे बढ़ाने का आरोप बीजेपी सरकार पर लगता रहा है.

माना जाता है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘हिंदू अस्मिता’ से जोड़कर देश में जो कुछ हो रहा है उसको सरकार और संघ दोनों का संरक्षण प्राप्त है.

आलोक कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, “भारत की वर्तमान सरकार के मन में हिंदुत्व के प्रति प्रेम है.”

वही हिंदुत्व जिसे ओवैसी और राहुल गांधी जैसे नेता ‘मुसलमानों पर बढ़ रहे अत्याचार’ के पीछे का मूल कारण बताते हैं, इसलिए सवाल उठता है कि वीएचपी और आरएसएस के ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा में मुसलमान की जगह क्या है?

इस पर आलोक कुमार कहते हैं, “मुसलमान और ईसाई जहाँ-जहाँ गए हैं, वो वहाँ-वहाँ की ज़मीन के स्वभाव के हिसाब से कुछ-न-कुछ परिवर्तन और सुधार करते हैं. जैसे हर जगह की ईसाइयत एक-सी नहीं होती इसलिए हम मानते हैं कि भारत में भी दोनों धर्म के मानने वालों को ऐसा करना होगा.”

वे कहते हैं, “सब विचारों की स्वीकृति और किसी पर कोई विचार थोपना नहीं, इस ‘संशोधन’ के साथ मुसलमानों और ईसाइयों का भारत में नागरिक के तौर पर बराबरी का हक़ है. ऐसा भारत के संविधान में भी है, हमारे मन में भी है और हमारी सहमति से है.”

इस ‘संशोधन’ को हासिल करने का तरीक़ा क्या धर्म-संसद, भड़काऊ भाषण या रोज़ होने वाले हंगामे हैं?

एक-एक कर बीते एक साल की कुछ घटनाओं पर नज़र डालते हैं.

धर्म संसद

पिछले साल दिसंबर में हरिद्वार में एक धर्म संसद का आयोजन किया गया जिसमें मुसलमानों के बारे में काफ़ी भड़काऊ भाषण दिए गए.

हरिद्वार के बाद इस साल दिल्ली, रायपुर और रुड़की में हुई ऐसे ही धर्म संसदों में दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ ज़हरीली बातें कही गईं.

हरिद्वार धर्म संसद के वीडियो में नेता धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने, किसी मुसलमान को प्रधानमंत्री न बनने देने, मुस्लिम आबादी न बढ़ने देने समेत धर्म की रक्षा के नाम पर अनेक आपत्तिजनक बातें कहते हुए देखे-सुने गए.

हरिद्वार धर्म संसद के स्थानीय आयोजक और परशुराम अखाड़े के अध्यक्ष पंडित अधीर कौशिक ने कहा था:

“पिछले सात वर्षों से धर्म संसद का आयोजन किया जा रहा है. इससे पहले दिल्ली, ग़ाज़ियाबाद में भी धर्म संसद का आयोजन हो चुका है जिसका उद्देश्य ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की तैयारी करना है. इसके लिए शस्त्र उठाने की ज़रूरत पड़ी, तो वो भी उठाएंगे.”
भले ही इन विवादित धर्म संसदों का आयोजन विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने न किया हो, लेकिन भारत में धर्म-संसद शुरू करने का श्रेय वीएचपी को ही जाता है.

वीएचपी का कहना है कि उसका उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना, हिंदू धर्म की रक्षा करना और समाज की सेवा करना है.

पहली धर्म संसद के बारे में निलांजन मुखोपाध्याय की किताब, ‘डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट’ में लिखा है- “धर्म संसद के इतिहास को खंगालें तो साल 1981 में इस तरह का पहला उल्लेख मिलता है.”

1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में 200 दलित परिवारों ने फरवरी के महीने में सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म को क़बूल कर लिया था. इस साल विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने एक केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की स्थापना की, जिसमें हिंदू धर्म के 39 धर्मगुरु शामिल थे. आगे चलकर वीएचपी ने इस मंडल का विस्तार किया, जिसकी पहली सभा दो साल बाद हुई और उसे ‘धर्म-संसद’ का नाम दिया गया.

निलांजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, “नाम में संसद शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच-समझ कर भारतीय संसद की तर्ज पर किया गया था. इस तरह की संसद का मक़सद हिंदू समाज को धार्मिक नेतृत्व देना था.”

साल 1983 में वीएचपी ने अयोध्या आंदोलन की बागडोर एक तरह से अपने हाथ में थाम ली थी. 1984 आते-आते केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल के सदस्यों की संख्या 200 के क़रीब पहुँच गई थी. अप्रैल के महीने में दिल्ली के विज्ञान भवन में उनकी पहली बैठक आयोजित की गई. यह धर्म-संसद ऐतिहासिक थी. इसी धर्म संसद में राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत करने का फ़ैसला किया गया था.

इसके बाद दूसरी धर्म संसद का आयोजन 31 अक्टूबर से 1 नवंबर 1985 तक उडुपी में किया गया था. इस बार प्रस्तावों में एक मांग यह भी थी कि राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मस्थान और काशी विश्वनाथ परिसर को तत्काल हिंदू समाज को सौंप दिया जाए.

वीएचपी ने 2007 तक 11 धर्म संसद आयोजित किए. उसके बाद से इन धर्म संसदों में भड़काऊ भाषणों का सिलसिला थोड़ा रूक गया.

फिर धर्म संसद का शोर फरवरी 2019 में ही सुनाई दिया, जब वीएचपी का अब तक का अंतिम धर्म संसद आयोजित किया गया. इसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी गए थे और राम मंदिर बनाने की बात कही थी.

2019 में ही अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ गया था. मंदिर निर्माण का रास्ता खुल गया.

बीच में धर्म संसदों का शोर कम होने और दोबारा से तेज़ होने पर आलोक कुमार कहते हैं, “जब कोई महत्वपूर्ण विषय समाज के सामने होता है तो हम धर्म संसद बुलाते हैं. नहीं तो मार्गदर्शक मंडल साल में दो बार मिलता है और अहम फ़ैसले करता है.”

शोभायात्रा

कई बार धर्म संसद से इतर, दूसरे धार्मिक आयोजनों में मामले अक्सर उलझ जाया करते हैं. जैसा इस साल अप्रैल में भारत के कई इलाक़ों में रामनवमी, हनुमान जयंती पर शोभायात्राओं में देखा गया और राजस्थान में ईद के मौक़े पर.

भारत में कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं को रामनवमी और हनुमान जयंती के मौक़े पर शोभायात्रा के दौरान हुई हिंसा में मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक साज़िश दिखती है, वहीं वीएचपी को इसमें हिंदुओं के ख़िलाफ़ मुसलमानों का षड्यंत्र नज़र आता है.

वीएचपी के आलोक कुमार कहते हैं, “रामनवमी के दौरान शोभायात्राओं पर देश के अनेक शहरों में एक ही तरह से हमले किए गए. इसको मैं एक पैटर्न मानता हूँ क्योंकि उनकी विधि और प्रकार एक थे. मस्जिदों में ईंटों के टुकड़े, पत्थर, बोतलें, हथियार इकट्ठा किए गए थे और वहाँ से निकलने वाले जूलुस पर वो चलाए गए. ये दुर्भाग्यपूर्ण था.”

दूसरी ओर, जहाँगीरपुरी में रहने वाले मुसलमान इन दावों को ग़लत बताते हैं, वे कहते हैं कि शोभायात्रा बार-बार घूमकर मस्जिद के सामने आ रही थी और भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे.

दिल्ली के जहाँगीरपुरी में हनुमान जयंती की शोभायात्रा का आयोजन वीएचपी ने ही किया था.

शोभायात्रा के इतिहास की बात करें तो 1920 के दशक में भी इसका उल्लेख मिलता है, जब नागपुर में मस्जिदों के सामने से गाजे-बाजे के साथ ऐसी यात्राएँ निकलती थीं. उस दौरान भी शोभायात्रा में लाठी-डंडा साथ लेकर चलने का चलन था.आज इनमें तलवारें भी शामिल हो गई हैं.

शोभायात्राओं में हिंसा के चलन को धर्म से जुड़े कई जानकार नया ट्रेंड मानते हैं. हिंदुत्ववादी संगठन कहते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया है वह आत्मरक्षा में किया है, उन्होंने हमला नहीं किया बल्कि उन पर हमला हुआ.

अज़ान, लाउडस्पीकर और हनुमान चालीसा

बनारस स्थित संकटमोचन मंदिर के महंत डॉक्टर विशम्भर नाथ मिश्र कहते हैं,”शोभायात्रा का जो मौजूदा स्वरूप है वो बिल्कुल नया है. इस तरह की शोभायात्राओं का चलन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि मौजूदा समय में हर व्यक्ति ख़ुद को धार्मिक दिखाने की होड़ में है. अगर आप वाक़ई धार्मिक हैं और उपासक हैं तो आपको शोर मचाकर ईश्वर की उपासना करने की ज़रूरत नहीं है. भगवान और भक्त का संवाद बेहद निजी चीज़ है. ये दिखावे की चीज़ नहीं है.”

ऐसा नहीं कि ये ‘दिखावा’ केवल हिंदुओं में ही हो रहा है. ईद के मौक़े पर भी ऐसा चलन बढ़ रहा है.

ईद के मौक़े पर कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान के करौली में भी हिंसा हुई. राजस्थान का जोधपुर शहर हमेशा से शांतिपूर्ण माना जाता रहा है. 1992 में जब देश के तमाम क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा फैल गई थी तब भी जोधपुर में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई, लेकिन इस बार ईद के मौक़े पर मूर्ति और झंडे की सजावट से शुरू हुआ विवाद सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया, बात कर्फ़्यू तक पहुँच गई.

बनारस में ही श्रीकाशी ज्ञानवापी मुक्ति आंदोलन ने घोषणा की कि वे हर बार ठीक अज़ान के वक़्त लाउडस्पीकर पर दिन में पाँच बार हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे.

ईद से पहले महाराष्ट्र में भी विवाद चल रहा था. वहाँ लाउडस्पीकर से आने वाली अज़ान की आवाज़ को लेकर विवाद शुरू हुआ. उसी समय उत्तर प्रदेश में लाउडस्पीकरों पर हो रही कार्रवाई से उत्साहित होकर महाराष्ट्र में भी मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतारने की ज़िद की गई.

अज़ान लाउडस्पीकर का विवाद हनुमान चालीसा तक पहुँचा, जहाँ महाराष्ट्र की एक सांसद को जेल तक जाना पड़ा.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “अगर इन सब तरीक़ों और प्रतीकों का सही तर्कसंगत विश्लेषण किया जाए तो पाएँगे कि इन सबकी शुरुआत राम जन्मभूमि आंदोलन से होती है. इन सब की जड़ में एक ही दावा है कि मुसलमान भारत को अपना मुल्क नहीं मानते हैं. ये उनका मुल्क नहीं है. अगर उनको भारत में रहना है तो हिंदू की तरह बनकर रहना होगा.”

राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत से अंत तक, इसका नेतृत्व आरएसएस और वीएचपी ने किया है और इस बात पर दोनों संगठन आज भी गर्व करते हैं.

बुलडोज़र

बीबीसी से बातचीत में नीलांजन इन प्रतीकों और उनके ज़रिए दिए जाने वाले संदेशों के बारे में भी बात करते हैं.

वो कहते हैं, “नए-नए प्रतीक गढ़े जा रहे हैं जो हिंदुओं के एक तबक़े को पसंद आ रहे हैं. उनसे कहा जा रहा है कि मुसलमान उनके ख़िलाफ़ हैं. इन प्रतीकों में गाय है, वंदे मारतरम् है, मंदिर है, लाउडस्पीकर और हनुमान चालीसा है.

इसी तरह, बुलडोज़र आज की तारीख़ में शक्तिशाली शासन व्यवस्था का पर्याय बन गया है, संदेश दिया जा रहा है कि अब हमारी सत्ता है. सत्ता की ताक़त के इस्तेमाल के लिए किसी क़ानून के सहारे की ज़रूरत नहीं है.” बुलडोज़रों के इस्तेमाल का मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

भारत की राजनीति में जिस बुलडोज़र की चर्चा ज़ोर-शोर से हो रही है, उसका इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि हथियार के तौर पर बुलडोज़र का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी हुआ था.

अमेरिकी सेना के अधिकारी कर्नल केएस एंडरसन ने ‘बुलडोज़र – एन एप्रिसिएशन’ शीर्षक से एक निबंध लिखा है. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इसके इस्तेमाल का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा, “युद्ध के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम हथियारों में इसे सबसे आगे खड़ा पाते हैं.”

‘आउटलुक’ पत्रिका में वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने हाल में भारत में बुलडोज़र के इस्तेमाल पर एक लेख लिखा है. लेख में दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिन 58 रैलियों में बुलडोज़र शब्द का इस्तेमाल किया, पार्टी ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की.

चुनिंदा लोगों के घरों और दुकानों को बुलडोज़र से ढहाने के सरकारी आदेश को लेकर हिंदुओं के एक तबक़े में उत्साह साफ़ देखा जा सकता है, चुनाव में जीत के बाद कई लोग विजय जुलूस में खिलौना बुलडोज़र लेकर नाचते दिखे, और योगी आदित्यनाथ को ‘बुलडोज़र बाबा’ कहकर पुकारा गया.

हिजाब विवाद

प्रतीकों के सहारे मुसलमानों में डर और हिंदू होने पर गर्व पैदा करने वाले मुद्दों को लेकर जब-जब विवाद हुआ, मामला न्यायालय भी पहुँचा.

न्यायालय की बात पर आलोक कुमार कहते हैं, “हिजाब मामले में कोर्ट में कौन गया? मुस्लिम पक्ष गया. आप कोर्ट से रिलीफ़ माँगे, कोर्ट रिलीफ़ दे तो आनंद मनाएँ और कोर्ट रिलीफ़ ना दे तो आप कहें कि हम नहीं मानेंगे. ये तो तार्किक बात नहीं है. वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में क्या हुआ? सर्वे का ऑर्डर हुआ. इंतजामिया कमेटी हाईकोर्ट गई. उनकी याचिका डिसमिस हो गई.”

“भड़काऊ भाषण मामला भी कोर्ट पहुँचा. मैं हेट स्पीच के ख़िलाफ़ हूँ. हेट स्पीच हिंदू धर्म के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. और हेट स्पीच के मामले में मैं समझता हूँ कि एफ़आईआर हुई है. रिज़वी जी (धर्मांतरण के बाद जितेंद्र नारायण त्यागी) की तो ज़मानत को भी तीन महीने लग गए थे. कानून का एक प्रोसेस है. अगर ये मान लें कि नूपुर शर्मा ने अपराध किया तो उस अपराध के दंड की प्रक्रिया क्या है, एफ़आईआर होगी, हो गई, चार्जशीट फ़ाइल होगी, मुक़दमा चलेगा. अगर दोषी होंगी तो कोर्ट दंडित करेगा.”

लेकिन इन मुद्दों पर मुस्लिम पक्ष की अपनी दलीलें हैं.

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में ‘शिवलिंग’ मिलने के दावे पर अंजुमन इंतजामिया मस्जिद के वकील रईस अहमद का कहना है कि, “जिसे वो शिवलिंग कहते हैं, वो वज़ुखाने के बीच में लगा एक फ़व्वारा है. वो नीचे चौड़ा होता है, और ऊपर से संकरा होता है. उस फ़व्वारे को शिवलिंग बताकर बवाल खड़ा किया गया है.”

हिजाब विवाद पर लड़कियों का कहना है कि ये उनका संवैधानिक अधिकार है. मुस्लिम पक्ष को सुप्रीम कोर्ट से अपने पक्ष में फ़ैसले की उम्मीद है.

हरिद्वार धर्म संसद में मुसलमानों के ख़िलाफ़ दिए गए भाषण पर जमीयत उलेमा, उत्तराखंड के अध्यक्ष मौलवी मोहम्मद आरिफ़ कहते हैं, “कोई भी मुसलमान न तो भगवान राम को कुछ कहता है और ना ही सीता को, फिर इस्लाम को लेकर क्यों लोग बदज़ुबानी पर उतारू हो रहे हैं. हम चाहते हैं कि देश की सरकार ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई अमल में लाए. हम शांति चाहते हैं.”

नवरात्रों में मीट बैन पर इसी से मिलती-जुलती बात नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला भी कहते हैं.

Omar Abdullah
@OmarAbdullah

During Ramzan we don’t eat between sunrise & sunset. I suppose it’s OK if we ban every non-Muslim resident or tourist from eating in public, especially in the Muslim dominated areas. If majoritarianism is right for South Delhi, it has to be right for J&K.

ANI
@ANI
Replying to @ANI
During Navratri, 99% of households in Delhi don’t even use garlic & onion, so we’ve decided that no meat shops will be open in South MCD; the decision will be implemented from tomorrow. Fine will be imposed on violators: Mukkesh Suryaan, Mayor of South Delhi Municipal Corporation

मीट बैन

भारत में अब से पहले तक खाने की लड़ाई बीफ़ तक ही सीमित थी. हिंदू गाय को पूजनीय मानते हैं और इस वजह से गोहत्या पर ज़्यादातर राज्यों में प्रतिबंध है.

भारत की 80 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी हिंदू है जिनमें ज़्यादातर लोग गाय के प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं, लेकिन ये भी सच है कि भारत के अनेक हिस्सों में गोमांस सदियों से खाया जाता रहा है.

यहाँ तक कि भारत में गोमांस पर लगा प्रतिबंध पूरे देश में समान रूप से लागू नहीं है, केरल से लेकर पूर्वोत्तर के कई राज्यों में गोमांस की बिक्री हमेशा की तरह जारी है.आरएसएस के नेताओं ने स्थानीय खान-पान की संस्कृति को देखते हुए कई राज्यों में गोमांस खाने को मुद्दा नहीं बनाया है.

यहाँ तक कि आरएसएस के नेताओं ने यही कहा है कि वे उम्मीद करते हैं कि समय के साथ लोग अपने विवेक के साथ गोमांस खाना छोड़ देंगे, यह नरमी उत्तर भारतीय राज्यों में कभी नहीं दिखी.

यहाँ तक कि चमड़े का कारोबार करने वालों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.

हिंदू दक्षिणपंथी समूहों के ऊपर कई राज्यों में गोतस्करी के शक में पशुपालकों की पीटकर हत्या के कई मामले सामने आए हैं.

इसमें एक सच्चाई ये भी है कि नरेंद्र मोदी सरकार के आने से काफ़ी पहले, साल 1955 में कांग्रेस ने भी 24 राज्यों में गो-हत्या को प्रतिबंधित किया था.

पिछले साल गुजरात के कुछ नगर निगमों ने सार्वजनिक रूप से मीट स्टॉल सड़कों पर लगाने के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी थी.

मिड डे मील में बच्चों को अंडा दिया जाए या नहीं, इस पर भी कई राज्यों में विवाद है, मध्य प्रदेश में मिड डे मील में बीजेपी के शासनकाल में बच्चों को अंडा परोसा जाना बंद कर दिया गया था.

पर हाल के दिनों में बीफ़ पर प्रतिबंध से शुरू हुई खाने की ये लड़ाई अब धीरे-धीरे मीट बैन की तरफ़ बढ़ती दिखी.

साल 2022 में चैत्र नवरात्र और रमज़ान का महीना दोनों एक साथ आया.

दिल्ली से बीजेपी सांसद परवेश वर्मा ने नवरात्रि के नौ दिनों के दौरान भारत भर में मीट की दुकानों को बंद रखने का एक प्रस्ताव रखा, जिसे दिल्ली के दो नगर निगमों (पूर्वी और दक्षिणी दिल्ली) ने अमल में लाने का फ़ैसला भी सुना डाला. इस पर जमकर विवाद हुआ.

जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सांसदों, नेताओं ने इसका विरोध किया. दुकानदारों को जो नुक़सान हुआ सो अलग. क़ानूनी तौर पर अगर दुकानें बंद नहीं भी हुईं तो कई जगह हमले और तोड़-फोड़ की आशंका को देखते हुए लोगों ने अपनी दुकानें नहीं खोली.

ऐसा ही विवाद हलाल और झटका मीट को लेकर भी चल रहा है, हिंदुओं और सिखों से अपील की जा रही है कि वे हलाल गोश्त न खाएँ.

माँसाहार भारत के खान-पान का अभिन्न अंग रहा है. डॉ. मनोशी भट्टाचार्य, एक क्लीनिकल न्यूट्रिशनिस्ट हैं, जो भारतीय खान-पान परंपराओं पर शोध कर रही हैं, उनका ऐसा मानना है.

बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, “मुगल शासक भारत में मांस खाने की परंपरा लेकर आए, ऐसा सोचना ग़लत है. नए साम्राज्यों, व्यापार और कृषि की वजह से लोगों के खाने का पैटर्न ज़रूर बदला. पहले गोमांस और बाद में मांस, ब्राह्मणों के भोजन से ग़ायब हुए लेकिन धर्म ही इसके पीछे की एकमात्र वजह कभी नहीं रहा.”

डॉ. भट्टाचार्य कहती हैं, “कई ब्राह्मण समुदायों में कश्मीर से लेकर बंगाल तक माँस खाने की परंपरा आज भी है. कश्मीरी पंडितों में रोगन जोश खाने की परंपरा है. वैसे ही पश्चिम बंगाल में ब्राह्मण घरों में माँस आज भी खाया जाता है.”

ताज़ा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक़, 16 राज्यों में लगभग 90 प्रतिशत लोग मीट, मछली या चिकन खाते हैं. वहीं चार राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में यह आंकड़ा 75-90 प्रतिशत तक है.

प्यू रिसर्च इंस्टीट्यूट के सर्वे में इस बात का भी पता चलता है कि किस धर्म के लोग कितना नॉनवेज खाते हैं. सर्वे के मुताबिक, हिंदू समुदाय में शामिल अलग-अलग जातियों के लोगों में 44 फ़ीसदी शाकाहारी हैं और बाक़ी के 56 फ़ीसदी मांसाहारी हैं. वहीं आठ फ़ीसदी मुसलमान भी ऐसे हैं जो कई अलग-अलग कारणों से नॉन वेज नहीं खाते.

भारत में अल्पसंख्यकों से जुड़े राजनीतिक मुद्दों पर नाज़िमा परवीन ने काफ़ी शोध किया है. बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, “मीट बैन के फ़ैसले के कई पहलू हैं. एक राजनीतिक पहलू है, जो इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ता है और दूसरा आर्थिक पहलू है. राजनीतिक पहलू साफ़-साफ़ नज़र आता है, जिसके तहत सरकार की तरफ़ से ‘खाने पर भी पाबंदियों’ का चलन अब देखने को मिल रहा है.

दूसरा है, इस मीट व्यापार की इकोनॉमी. मीट का व्यापार करने वाले ज़्यादातर मुसलमान क़ुरैशी समुदाय से संबंध रखते हैं. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो 2017 के बाद जो अवैध बूचड़खाने बंद किए गए, उनमें से ज़्यादातर सरकारी (नगर निगम) बूचड़खाने थे. इन बूचड़खानों में क़ुरैशी समुदाय के व्यापारी अपने जानवर लेकर जाते थे, एक शुल्क (प्रति जानवर) अदा करते थे और उन्हें कटवा कर दुकानों में रोज़ बेचते थे और अपनी रोज़ी-रोटी चलाते थे. जब सरकारी बूचड़खाने बंद हुए तो वो छोटे व्यापारी ‘क़ुरैशी समुदाय’ वाले सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए. उनमें से कइयों ने धंधा छोड़ दिया, कइयों के दुकान के लाइसेंस रिन्यू नहीं हुए. अब क़ुरैशियों की जगह, बड़े प्राइवेट बूचड़खानों से मीट व्यापारियों ने मीट लेना शुरू कर दिया. ये बूचड़खाने केवल मुसलमानों के नहीं, हिंदूओं के भी हैं.”

उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो कुछ मीट व्यापारियों ने राज्य सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ कोर्ट का दरवाज़ा भी खटखटाया है, जिस पर सुनवाई होनी है.

इस साल भी सावन के महीने में उत्तर प्रदेश सरकार ने कावंड़ यात्रा के रूट पर मीट-मछली की दुकानों को न खोलने की हिदायत दी थी.

हालांकि मीट बैन के विवाद पर आलोक कुमार कहते हैं, “मीट बैन के बारे में विश्व हिंदू परिषद का कोई स्टैंड नहीं है. मैं जानता हूँ कि कश्मीर के सब ब्राह्मण मांस खाते हैं और देश की आबादी का बहुमत मीट खाने वालों का है.”

जुमे की नमाज़

नीलांजन कहते हैं, “पहले भी मुसलमानों के लिए कुछ हिंदुओं के मन में सामाजिक पूर्वाग्रह थे. आज़ादी से पहले, आज़ादी के वक़्त और आज़ादी के बाद भी. लेकिन उस दौर में इन भावनाओं को राजनीतिक रूप से सही नहीं माना जाता था. इस बीच फ़र्क़ ये आया है कि अब राजनीतिक रूप से ये सब सही माना जा रहा है. इन भावनाओं को मंच पर खड़े होकर कहा जा रहा है.”

“नूपुर शर्मा तो 2008-09 में राजनीति में आईं. मियां मुशर्रफ़, श्मशान-क़ब्रिस्तान और अब्बाजान जैसे जुमलों का इस्तेमाल बड़े-बड़े लोग करते रहे हैं. पूरी चर्चा का इस्लामोफ़ोबिक कैरेक्टर तो पहले से ही स्थापित किया जा चुका है.”

यहाँ नीलांजन गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान की याद दिलाते हैं.

30 अक्टूबर 2021 को उत्तराखंड में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए अमित शाह ने एक क़िस्सा सुनाया.

उन्होंने कहा, “मैं कल आ रहा था तो मेरा क़ाफ़िला रुक गया. मैंने पूछा, क्या हुआ? जवाब आया, साहब आपको मालूम नहीं है आज शुक्रवार है. मैंने कहा, शुक्रवार है, तो क्या हुआ? मुझे लगा मेरा जनरल नॉलेज वीक (कमज़ोर) हो गया क्या? शुक्रवार को क्या होता है? जवाब आया, शुक्रवार को नेशनल हाईवे बंद करके मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दी गई है. शुक्रवार को छुट्टी देने की सोचने वाले, तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले कभी देवभूमि का भला करने की बात नहीं सोच सकते.”

हिंदू होने का गर्व कहें या मुसलमानों को डराने के प्रतीक, बस यही नहीं हैं जो यहाँ गिनाए गए हैं.

‘बॉर्न अ मुस्लिम’ किताब की लेखिका हैं गज़ाला वहाब. ‘मुसलमानों में डर’ और उनके प्रतीकों पर वो कहती हैं, “भारत का संविधान बनाते वक़्त इस बात का ख़ास ख़्याल रखा गया कि भारत का ‘हिंदूकरण’ ना हो. बावजूद इसके अनजाने में संविधान में कुछ कमियां रह गई हैं, जिसने ये मुमकिन किया कि धीरे-धीरे हिंदू धर्म मानने वालों को बाक़ियों के ऊपर तरजीह दी जाए. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कोर्ट का ये कह देना कि हिंदू धर्म नहीं है बल्कि जीने का एक तरीक़ा है.”

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़ कोर्ट के फ़ैसलों में हिंदूइज्म को जीवन जीने के तरीक़े से जोड़ने वाली बात सबसे पहले 1994 में जस्टिस एसपी भरुच ने कही थी, जिसे 1996 में जस्टिस जेएस वर्मा ने भी दोहराया. इसका ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी विदेश यात्रा में कर चुके हैं.

वो आगे कहती हैं, “भारत देश को जब ‘माता’ ‘देवी’ कह कर संबोधित किया जाता है तो ये एक तरह से भारत को हिंदू धर्म से जोड़ने की बात है. आज़ादी के बाद, हिंदू और मुसलमानों में यहीं से सबसे बड़ा टकराव शुरू हुआ कि देश की पूजा ‘माता’ और ‘देवी’ की तरह की जानी चाहिए जबकि इस्लाम में केवल एक ही ख़ुदा की इबादत की बात की गई है. जो वंदे मातरम गाने से इनकार करेंगे वो देशद्रोही क़रार दिए जाएँगे. शुरुआत में इस तरह के तनाव कुछ ‘फ्रिंज एलिमेंट’ तक सीमित थे. लेकिन पिछले आठ सालों में देशभक्ति का प्रदर्शन करवाने का चलन बढ़ा है. आज ‘फ्रिंज’ ‘मेनस्ट्रीम’ बनता जा रहा है, सरकार उनके ख़िलाफ़ क़दम नहीं उठा रही है, जिससे उनका हौसला बढ़ता जा रहा है. जैसे धर्म संसद में हुआ.”

ये तनाव कैसे फ़ोन के ज़रिए हर मुसलमान तक पहुँच रहा है, इस पर गज़ाला एक क़िस्सा सुनाती हैं.

“मैं अपने किसी काम से वाराणसी गई थी. मेरे टैक्सी ड्राइवर को नहीं मालूम था कि मैं मुसलमान हूँ. मैं किसी से मिलकर गाड़ी में वापस लौटी तो वह धर्म संसद में मुसलमानों के ख़िलाफ़ दिए गए भाषण का वीडियो मोबाइल पर देख रहा था. जब मैं गाड़ी में उसके साथ सफ़र कर रही थी, उस वक़्त मेरे ज़ेहन में बस एक ही बात घूम रही थी, इस वक़्त ड्राइवर के दिमाग़ में क्या चल रहा होगा. अगर उसे पता चल जाए कि मैं मुस्लिम हूँ तो उसका बर्ताव मेरे प्रति क्या होगा. मैं ये नहीं कह रही हूँ कि मैं डर गई, लेकिन मैं सचेत हो गई कि ये जो ड्राइवर अगले दो दिन मेरे साथ रहेगा, उसके मन में मुसलमानों के प्रति क्या भाव है.”

भारत अगर सही मायने में सांस्कृतिक तौर पर ‘हिंदू राष्ट्र’ है और धर्म के आधार पर नहीं, तो ऐसे में मुस्कान, हसीना फ़ख़रू और जावेद को इन ‘डर’ और ‘गर्व’ के प्रतीकों से सुरक्षित महसूस कराने के लिए देश के हिंदू क्या करें?

इसके जवाब में आलोक कुमार कहते हैं, “पहले तो मैं ये मानता हूँ कि हिंदुस्तान का मुसलमान सुरक्षित है. और अगर नहीं भी है तो उनकी वजह से है, जो मुसलमानों को वोट बैंक मानते हैं. जिस दिन धर्म को चुनाव से जोड़ना बंद हो जाएगा उस दिन हिंदू का वोट बैंक बनना बंद हो जाएगा. मुसलमानों को वोट बैंक बनाने के चक्कर में ही हिंदू वोट बैंक बना है.”

सवाल यही है कि पहले क्या बंद होगा, और कौन बंद करेगा?

बीबीसी संवाददाता: सरोज सिंह
शॉर्टहैंड प्रोडक्शन: शादाब नज़मी
इलस्ट्रेशन: पुनीत बरनाला

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सरोज सिंह
बीबीसी संवाददाता