धर्म

हे ईमान लाने वालों, आत्महत्या न करो, ईश्वर तुम्हारे प्रति दयालु है

जीवन दो प्रकार का है, भौतिक एवं आध्यत्मिक। भौतिक जीवन शरीर से संबंधित सांसारिक जीवन है।

आध्यात्मिक जीवन का इंसान की आत्मा से मज़बूत संबंध है। इस्लाम दोनों प्रकार के जीवन को अत्यधिक महत्व देता है और इंसान अपने इस हक़ को ख़ुद से या किसी दूसरे से नहीं छीन सकता। इसी प्रकार हमने उल्लेख किया था कि पश्चिमी मानवाधिकारों के नियम अधिकतर शरीर के आधार पर और उन लोगों द्वारा बनाए गए हैं जो अपने शरीर में क़ैद हैं। इसलिए यह नियय वैश्विक नहीं सकते। लेकिन धर्म कि जिसका आधार आत्मा है और जिसका निर्धारण ईश्वर ने किया है, वह भौतिकता एवं शरीर का बंदी नहीं है। इसलिए यह वैश्विक है और इसे स्थान या समय में सीमित नहीं किया जा सकता। धर्म, भौतिक जीवन के अलावा इंसान के आध्यात्मिक जीवन को भी अत्यधिक महत्व देता है। यही कारण है कि ईश्वरीय शिक्षाओं एवं नियमों को इस प्रकार से निर्धारित किया गया है कि वह भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के लिए उचित हों।

इस्लाम ने इंसान के भौतिक जीवन को विशेष महत्व दिया है। इस ईश्वरीय धर्म ने जीवन के अधिकार को ख़ुद से छीन लेने पर कड़ा प्रतिबंध लगाया है। इस्लाम के अलावा किसी भी धर्म में आत्महत्या से इस प्रकार से नहीं रोका गया है। सूरए निसा की 29वीं और 30वीं आयतों में क़ुरान कहता है, हे ईमान लाने वालों, आत्महत्या न करो, ईश्वर तुम्हारे प्रति दयालु है। लेकिन अगर कोई अत्याचार के रूप में इस कार्य को अंजाम देगा तो शीघ्र ही उसे नरक में डाल देंगे, और यह काम ईश्वर के लिए आसान है।

जीवन के अधिकार का इतना अधिक महत्व है कि अगर कोई ऐसा इंसान आत्महत्या करे, जिसका अतीत ईश्वरीय मार्ग में जेहाद और धार्मिक नियमों के पालन पर आधारित रहा हो, तो भी अंततः वह नरक में जाएगा। इस्लामी इतिहास में उल्लेख है कि एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने किसी के बारे में फ़रमाया, अंततः वह व्यक्ति नरक में जाएगा। लोगों को यह बात सुनकर बहुत ताज्जुब हुआ। इसलिए कि वह व्यक्ति अच्छे कार्य करता था और वह संघर्ष एवं राजनीति में दक्ष था। एक दिन वह एक मोर्चे पर घायल हो गया और घावों के दर्द से मुक्ति पाने के लिए उसने आत्महत्या कर ली।

दूसरे कुछ धर्मों के अनुसार, इंसान आज़ाद है और वह अपने जीवन के अधिकार से जिस तरह चाहे लाभ उठा सकता है। उदाहरण स्वरूप, हालिया वर्षों में कुछ देशों में यूथानेज़िया (euthanasia) क़ानून बन गया है। यह शब्द यूनान के यू कि जिसका अर्थ है अच्छा या अच्छी और लैटिन शब्द थानेज़िया से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है, अच्छी मौत, रोगी पर दया के लिए उसकी हत्या, मेडिकल डेथ या शीघ्र मौत।

यूथानेज़िया या किसी व्यक्ति के स्पष्ट अनुरोध पर उसके जीवन का अंत किया जाता है। कभी यह मौत रोगी को ज़हरीला इंजेक्शन देकर दी जाती है, जो कठिन जीवन से गुज़र रहा था। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या इंसान को यह हक़ हासिल है कि वह आत्यहत्या कर ले या दर्द और कठिनाई से छुटकारा पाने के लिए मौत की इच्छा करे।

ईश्वरीय विचारधारा के अनुसार, संसार और उसमें जो कुछ भी है वह ईश्वर का है और समस्त चीज़ों का मालिक वही है। इसलिए ईश्वरीय संपत्ति को केवल उसकी अनुमति से ही प्रयोग किया जा सकता है। ईश्वर की सृष्टि में और जो कुछ उसने हलाल या हराम किया है, पूर्ण रूप से स्पष्ट है। ईश्वर की सृष्टि में से ही इंसान और उसकी जान है। इंसान को ईश्वर की अनुमति के बिना अपनी जान के इस्तेमाल का हक़ हासिल नहीं है और वह ईश्वर की अनुमति के बिना आत्महत्या नहीं कर सकता। आत्महत्या करना ऐसा ही है कि किसी की अकारण हत्या कर देना।

इसी प्रकार, आत्महत्या सृष्टि के दर्शन के विरुद्ध है, इसी कारण इस्लाम ने उसे हराम और वर्जित क़रार दिया है। ईश्वर ने इंसान को पैदा किया ताकि दुनिया में जीवन व्यतीत करे और ईश्वरीय आदेशों एवं ईश्वरीय दूतों के मार्गदर्शन के अनुसार उत्कृष्टता तक पहुंचे और अनंत अनुकंपाओं से लाभ उठाए।

दुनिया का जीवन सुख और कल्याण प्राप्ति का मार्ग है। इसका अर्थ है कि इंसान इस दुनिया में इस प्रकार से ज़िंदगी गुज़ार सकता है कि वह कल्याण प्राप्त कर ले। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है कि लोक, परलोक की खेती है। जो कोई आत्महत्या करता है और अपना जीवन बर्बाद कर लेता है, वह दुनिया में जीवन के अवसर को खो देता है और ईश्वर की इच्छा के विपरीत क़दम उठाता है। इसलिए कि ईश्वर ने उसे पैदा किया है, ताकि सामान्य रूप से जीवन व्यतीत करे और सामान्य रूप से इस दुनिया से जाए। लेकिन उसने इस इच्छा के विपरीत क़दम उठाया है।

इस्लाम की विचारधारा और क़ुरान की शिक्षाओं के अनुसार, ईश्वर जीवन का मालिक है और ईश्वर ने इन अनुकंपाओं को अमानत के रूप में इंसान को सौंपा है। उसे चाहिए कि वह इन अनुकंपाओं से अपने कल्याण के लिए लाभ उठाए। इसलिए अनुकंपाओं को बर्बाद करना, मालिक की इच्छा के विरुद्ध है और हमारी बुद्धि कहती है कि जिन चीज़ों को मालिक ने हमें अमानत के रूप में सौंपा है, उनमें उसकी अनुमति का हमें पालन करना चाहिए।

इस्लाम में इंसान का जीवन पवित्र है और लोगों को आत्महत्या के लिए कड़ाई से मना किया गया है। बौद्धिक एवं भावनात्मक मतों के विपरीत जीवन के सामान्य अर्थ में धर्म ने जो वृद्धि की है, वह जीवन के अधिकार को पवित्रता प्रदान करना है। हम कहते हैं कि इंसान एक जानदार है और वह जीवित है और प्राकृतिक रूप से अपने जीवन की रक्षा करता है। वह जन्म लेता है, स्वाद को समझता है और दर्द का एहसास करता है और अपने लिए एक अच्छे जीवन की मनोकामना करता है और अपने जीवन में युद्ध एवं रक्षा की स्थिति में होता है। लेकिन जब हम यह कहते हैं कि यह एक जानदार है और जीवित है और प्राकृतिक रूप से ईश्वरीय पवित्रता का मालिक है और सीधे रूप से ईश्वर के ध्यान का पात्र है, इसी ईश्वरीय पवित्रता के साथ हम उस पर नज़र डालते हैं। स्पष्ट है कि इसका अर्थ आम अधिकार नहीं हैं, जिन्हें समाप्त कर दिया जाए या स्थानांतरित कर दिया जाए। या यह कि मनुष्य अपनी इच्छानुसार अपने जीवन के साथ जैसा चाहे वैसा करे।

इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि मैं आत्महत्या करना चाहता हूं और जीवन को ख़त्म करना चाहता हूं, या नहीं कह सकता कि मैं अपमान सहन कर सकता हूं। क्यों, इसलिए कि जीवन सीधे रूप से ईश्वर से संबंधित है और इंसान अपने जीवन को जहां तक संभव हो सके जारी रखे और अपने सम्मान की रक्षा करे।

इससे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इस्लाम में आत्महत्या से रोकने का कारण, केवल एक व्यक्ति के जीवन को सुरक्षित बनाना नहीं है, बल्कि इस्लाम ने इस आदेश के अनुसार, मानवीय समाज को ख़तरे और विनाश से बचाया है।

निश्चित रूप से हर इंसान के जीवन में असफलताएं और कठिनाईयां आती हैं, जो इंसान से आशा छीन लेती हैं और उसकी नज़रों में जीवन को अंधेरा बना देती हैं। ऐसी स्थिति में इंसान दो तरह के होते हैं। कुछ ऐसे हैं जो कठिनाईयों से सम्मानजनक रूप में निपटते हैं और ईश्वर पर भरोसा करते हुए जीवन की नई सार्थक शुरूआत करते हैं। इसके विपरीत कुछ दूसरे लोग हैं कि जो इन कठिनाईयों के सामने झुक जाते हैं और अलग थलग पड़ जाते हैं या इससे भी बुरा क़दम उठाते हुए अपने जीवन का अंत कर लेते हैं।

इंसान अगर इस्लाम के तर्क से परिचित होगा तो वह समझ जाएगा कि अपने हाथों से अपने जीवन की अनुकंपा को नहीं छीनना चाहिए। इसलिए कि इस्लाम में मौत अंतिम रास्ता नहीं है, बल्कि वह ऐसे रास्ते की शुरूआत है जिसका कोई अंत नहीं है। इंसान को नहीं पता है कि मौत के बाद, उसे मुक्ति मिलेगी और कल्याण प्राप्त होगा या वह नरक में जाएगा। इसलिए आत्महत्या से इंसान को कोई सहायता नहीं मिलती और कठिनाईयों से छुटकारा पाने का विचार ग़लत विचार है।

दूसरी ओर दुनिया में कोई भी कठिनाई इतनी मूल्यवान नहीं है कि इंसान उसके कारण अपनी मल्यवान जान देदे। हर इंसान की बुद्धि यह समझ सकती है कि विश्व की अनुकंपाओं में से किसी एक अनुकंपा को नष्ट करना निंदनीय है। यह बात इतनी स्पष्ट है कि विभिन्न धर्मों के अनुयाई उम्र के किसी भी मोड़ पर उसे समझ सकते हैं।

अगर किसी को ईस्वर पर पूर्ण विश्वास होगा और वह यह जानता होगा कि ईश्वर ने इस संसार और विशेष रूप से सबसे विशिष्ट रचना इंसान को उद्देश्य के साथ पैदा किया है, तो वह कदापि घटियापन का एहसास नहीं करेगा और न ही निराश होगा। अगर वह ईश्वर की असीम शक्ति पर विश्वास रखता होगा और यह जानता होगा कि हर कोई उसके मुक़ाबले में कमज़ोर और हीन है, तो कठिनाईयों के समय उस पर भरोसा करेगा। वह ईश्वर पर भरोसा करके और उससे दुआ व प्रार्थना करके और उसका नाम जप कर अपनी कठिनाईयों को पीछे छोड़ सकता है और आत्मिक सुख एवं शांति प्राप्त कर सकता है।

यहां इस बार पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वैचारिक आत्महत्या शारीरिक आत्महत्या से कहीं कठिन है। यह नहीं सोचना चाहिए कि इस्लाम इस अर्थ में वैचारिक आज़ादी को स्वीकार करता है कि कोई भी बिना किसी शोध के किसी भी विचार को स्वीकार कर ले। स्पष्ट है कि आध्यात्मिक जीवन का छीनना भौतिक जीवन के छीनने से कहीं अधिक कठिन है। आश्चर्य की बात है कि कुछ मत और धर्म शारीरिक आत्महत्या को स्वीकार नहीं करते लेकिन इंसान को इस बात की अनुमति देते हैं कि वह जिस विचारधारा को चाहे स्वीकार कर ले और अपने विचारों को दूषित कर ले।