साहित्य

अतीत की भांति भविष्य का भी यही हाल तय है और तब यह भी तय है कि तब हम इसी तरह रोते-पीटते कलपते रह जाने वाले हैं

via Shikha Singh
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राजीव थेपडा जी की वाॅल से
*अगर आपका इस पोस्ट को सच्चे मन से पढ़ने का दिल चाहे !!*
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*समाज का एक तबका उद्विग्न है,स्त्री के प्रति जघन्य अपराध बढ़ते ही जा रहें हैं,लोग सरकारों को कोस रहे हैं,धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं और हर अगले दिन कई स्थानों पर स्त्री के साथ वैसा ही कोई अपराध बढ़ जाता है !! क्या सचमुच यह सरकारों की ही विफलता है या एक समाज के रूप में हम सबकी विफलता है,समाजरूपी तंत्र के ध्वस्त होने की बानगी है !!*
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*स्त्रियों के प्रति अपराध कोई आज से तो हो नहीं रहे और उनकी अवहेलना तो हमारे ज्ञात इतिहास से जारी है तथा उसी समय से उनको दोयम दर्ज़े का समझ जाना भी जारी है,तो फिर हम स्त्री के प्रति अपराधों में मानवीय कमजोरी और पुरुषों का स्त्रियों को अब भी नाकुछ समझे जाने की प्रवृति को स्वीकार क्यों नहीं कर रहे ?जब तक हम अपनी इस प्रवृति को स्वीकार कर इसे दूर करने के उपाय नहीं नहीं करेंगे, तब तक स्त्री के प्रति होने वाले अपराधों के निदान की दिशा में एक कदम भी सार्थक नहीं उठा पाएंगे,हमें हर स्थिति में ये स्वीकार करना ही होगा कि स्त्री को हमने अब तक भी एक “फ़ालतू” और काम वाली बाई और उससे ज्यादा अपने “सुख” का एक साधन भर माना हुआ है और ऐसा मानने के लिए एक बहुत विराट दिल चाहिए,जिसमें वर्तमान के साथ समूचे अतीत की हमारी गलतियों का भान हो !!*
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*ये बातें अधिकाँश मर्दों को अतिश्योक्ति लगती हैं, किन्तु स्त्री के प्रति रोजमर्रा के जीवन में हमारे खुद के व्यवहार में ही स्त्री के प्रति अपराधों का सबसे बड़ा कारण मौजूद है, रोजमर्रा के अपने जीवन में परिवार और समाज में पुरुष द्वारा “अंततः” जो व्यवहार किया जाता है,  और उनके विचारों को निचले दर्जे का जो स्थान दिया जाता है, उससे एक पुरुष बालक स्त्री के प्रति कोई सम्मानजनक छवि नहीं बनाता !! पढ़-लिखकर सभ्यता के नाते बेशक एक पुरुष, स्त्री के संग “बेहतर” बर्ताव करता दिखाई दे, किन्तु सभी असामान्य परिस्थियों में स्त्री को उसकी “वाजिब जगह” दिखाई जाती रही है, ऐसे में एक पुरुष बालक जो समझ विकसित करता है, उसमें स्त्री को अपनी “बपौती” और अपने “सुख” का एक सामान्य “यन्त्र” भर समझता है और जिसे हम बलात्कार कहते हैं, वो उसके लिए स्त्री के प्रति महज अपनी ताकत के उपयोग का सामान्य कार्य भर होता है !!*
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*मुझे नहीं पता कि इस तरह से कितने लोग सोचते हैं !! मगर मैं ठोस रूप से यही मानता हूँ और यदि सामान्य लोग भी इस नजरिये से सोचकर देखें तो स्त्री के प्रति एक छोटे पुरुष बालक को उसके “प्रथम-पाठ” से ही उचित शिक्षा देकर स्त्री की निरुपायता को को मिटने की दिशा में सक्षम कदम उठाये जा सकते हैं और इस दिशा में परिवार-समाज एवं स्कूल की प्राथमिक-पाठशाला में उचित नैतिक शिक्षा देकर बालक के व्यवहार का समूचा तंत्र बदल जा सकता है किन्तु यह भी तब होगा जब हम खुद भी अपने सामान्य जीवन में स्त्री के संग सम्पूर्ण मानवीय बर्ताव करें और उसके साथ सभ्यता के उच्च स्तर के साथ पेश आएं !! हमारे अतीत की ताकत और हमारे “कमाने” के दम्भ का लेश-मात्र भी हमारे व्यवहार में न हो !!*
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*हम सब मनुष्य हैं, और मनुष्यता का पहला पाठ तो सब मनुष्यों की बराबरी का होना चाहिए, किन्तु अपनी बहुत सी दुर्भावनापूर्ण परिकल्पनाओं के कारण हमने स्त्री ही नहीं, बल्कि हर कमजोर प्राणी के प्रति सदा से ही एक उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया हुआ है, जिसका परिणाम अब इस स्पीड युग में ज्यादा दिखाई देता है, स्त्री के प्रति हमारी सोच के सबसे बड़े पहलु हमारे विज्ञापन और फिल्मों तथा सीरियलों में स्त्री के चरित्र-चित्रण में परिलक्षित होता है !!चाहे वो चीज़ें कोई स्त्री ही क्यों न बनाये !! तो जब हम हमने चौबीसों घंटे चारों ओर स्त्री को अपने मज़े का एक साधन या फिर एक वैम्प या फिर परिवार तोड़ने वाली एक घटिया औरत या फिर पैसों की खातिर कुछ भी करती एक वेश्या या फिर नग्न या अर्धनग्न रूपों में नाचती और मर्द पर “चढ़ने” को आतुर एक वहशी कामातुर भोग्या की छवि का निर्माण किया हुआ है, तब हम किसी भी नव-युवा या नाबालिग को स्त्री को एक तुच्छ वस्तु समझने से किस प्रकार रोक सकते हैं !!*
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*एक समाज के रूप में अपने प्रत्येक कमजोर सदस्य के प्रति हम अपनी भूमिका के निर्वाह में हमेशा से असक्षम ही साबित हुए हैं और अपनी इस कमजोरी को जितना शीघ्र हम समझ कर स्वीकार कर लें, उतना शीघ्र हम उन कमजोरियों को मिटाने की दिशा में कोई कदम उठा सकते हैं, वरना अतीत की भांति भविष्य का भी यही हाल तय है और तब यह भी तय है कि तब हम इसी तरह रोते-पीटते कलपते रह जाने वाले हैं !!*
*राजीव थेपड़ा*
*राँची, झारखंड*