साहित्य

——– अबकी बार, ले चल पार ——-By-रवीन्द्र कान्त त्यागी

Ravindra Kant Tyagi
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——– अबकी बार, ले चल पार ——-
छुट्टी के अब मात्र पांच दिन बचे हैं. जब से ऑस्ट्रेलिया से लौटा हूँ, कॉलेज के ज़माने के एक भी मित्र से मुलाकात नहीं हुई. पांच साल लंगे समय के थपेड़ों ने सब को जहां तहां बखेर दिया है. हर शाम उदास सा इस रेस्टोरेंट की टेबल पर घंटों बैठकर उन बिंदास दिनों की याद में डूब डूब जाता हूँ. इसी रेस्टोरेंट में हर शाम यारों की महफ़िल जमती थी. वो हमेशा पैसे लुटाता हुआ अनीस उसमानी, सुबह से ही दो पैग लगा लेने वाला विशाल सचदेवा, उदास शायरी करने वाला बिमल अकेला, नकचढ़ी सी फैशनेबल निकिता केसवानी, ब्यूटी पार्लर में सुबह ही डुबकी लगाकर आने वाली घमंडी सी वाणी देसवाल, हर समय जोक सुनाने वाला अमर गुंजू और …. और वो जिसपर आकर सारी सोच ठहर सी जाती है. हृदय उसके मासूम डिम्पल की गहराइयों में गोते लगाने लगता है. जिस की स्याह काली आँखों की थाह लेते लेते कई सेमिस्टर निकल गए थे. रात भर उसके साथ जिंदगी के रुपहले सुनहरे सुगन्धित वर्ष बिताने के सपने देखता रहता मगर … मगर. हम दोनों की प्रकृति बिलकुल विपरीत थी.

वो जिंदगी को मर्दों वाली कड़क सिगरेट के धुंए में उड़ा देने को बेताब, बेबाक सी बिंदास लड़की, सारी सीमायें, सारी जंजीरे और बंदिशें तोड़कर सातंवे आसमान पर उड़ जाना चाहती थी. वो जिंदगी के हर पल को भरपूर जीना चाहती थी. बीयर के दो ग्लास चढ़ा लेने के बाद मेज पर चढ़ जाती और अनाउंसर के लहजे में कहती, “दोस्तों जिंदगी एक आइसक्रीम है. इसे पिघलने से पहले … सारे मिलकर चिल्लाते “चाट जाओ”. फिर कहती “दोस्तों जिंदगी एक सिगरेट है. इसे धुंआ होने से पहले … सारे बोलते “जिगर में उतार लो”. रात चढ़ने लगती तो बिंदास नाचती किसी के भी साथ. जो पहले ऑफर कर दे. दोस्त कहते “आवारा है साली. न जाने किस किस से लगी पड़ी है”. मगर इस सब के बाद भी मेरा अनुराग उसके प्रति कम होने का नाम नहीं लेता. मैं बस अपनी टेबल पर एक कॉफी लेकर उसे देखता रहता. देखता रहता. उसकी हर अदा, हर मुस्कान और शरीर की जुंबिश पर फ़िदा होता रहता.
एक दिन अचानक मैं भीड़ के चीरता हुआ उसके पास गया और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा “श्रेया …. सुनो श्रेया … मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ”. उसने नशीली ऑंखें मेरी तरफ घुमाई. गौर से मेरे गंभीर चहरे को देखा. फिर हलके से मुस्कराई और बोली “अभी तो शाम ढलनी शुरू हुई है. अभी तो नशा चढ़ना शुरू हुआ है … और तुम ये उदास चेहरा लेकर कहाँ घूम रहे हो जानू. दो पैग मारो और मजे करो”. और वो नाचने लगी कानफोड़ू संगीत की धुन पर.

अगले दिन सुबह मैं लाइब्रेरी में शांत मन से कोई किताब देख रहा था तो वो तेजी से आई और मेरी बगल में बैठ गई. बिना किसी संकोच के मेरी किताब हाथ से छीनकर बंद करके रख दी और प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी तरफ देखने लगी. मैंने कहा “क्या हुआ …. मुझे घूर क्यों रही हो”.

“अरे तुम ही तो कोई सीरियस बात कल मुझसे करना चाहते थे. बोलो देवदास. क्या तुम्हारी चंद्रमुखी ने तुम से मुख मोड़ लिया है”.

उसके इस अदा पर बरबस ही मेरी हंसी छूट गई. मैंने कहा “चलो कैंटीन में चलकर बैठते हैं”.

कई मिनट तक चाय के सिप लेते हुए हम चुप बैठे रहे. वो बीच बीच में मेरी और प्रश्नवाचक निगाहों से देख लेती थी. फिर आश्वस्त सी होकर दूसरी और देखने लगती.

फिर मैंने धीरे से कहा “श्रेया, तुम मुझे …. अच्छी लगती हो”.

” मुझे भी तुम अच्छे लगते हो, संगीत अच्छा लगता है, फूल अच्छे लगते हैं, कॉलेज अच्छा लगता है, कश्मीर अच्छा लगता है, वाणी और संगीता अच्छी लगती है, ये प्रकृति अच्छी लगती है, विकास और अमर अच्छे लगते हैं, प्रोफ़ेसर दीपांकर …….. “

” बस करो यार. तुम कभी तो सीरियस हो जाया करो श्रेया ……”

” सीरियस …. हा हा हा, क्यों हो जाऊं सीरियस. मुझे जिंदगी को जीना है. हर पल को भरपूर जीना है. ऐश करनी है.” फिर फ़िल्मी स्टाइल में हाथ नाचकर बोली “वो जंजीर अभी बनी नहीं जो श्रेया को जकड सके….. बट … आई लाइक इट. आई लाइक दिस टाइप ऑफ़ सीरियसनेस. तुम भी एक अलग टाइप के इंसान हो यार. मुझे तुम्हारी ये गंभीरता बड़ी अच्छी लगती है. माय फेवरेट फिल्मस्टार गुरूदत्त की तरह माथे पर लहराती ये आवारा जुल्फें, कुछ सोचती सी गहरी ऑंखें. देखो मैं भी हो गई न शायर. हा हा हा ……. अरे सुनो आज वो कंजूस कौआ पार्टी दे रहा है. अरे अपना मलिक यार. खूब मस्ती करेंगे रात भर. आते हो क्या.

फिर सत्र ख़त्म हो गया और उस दिन मैं उसे देखता रहा धीरे धीरे दूर जाते हुए. न मैंने उसे आवाज दी न उसने पीछे मुड़कर देखा.

फिर धीरे धीरे सब बिछड़ गए. पिस गए समय की चक्की में. मैं ऑस्ट्रेलिया चला गया और अपने काम में डूबता गया.

पांच साल ….. जिंदगी का एक छोटा सा समय का टुकड़ा होता है मगर कभी कभी बहुत कुछ बदल जाता है.

शाम के चार बजे थे. धूप का एक टुकड़ा जो मेरी टेबल पर बिना पूछे आकर बैठ गया था धीरे धीरे एक उदासी में बदल गया और निराश होकर बुझ सा गया था. आसमान में हल्का अँधेरा छाने लगा. मैं दोबारा मंगाई कॉफी की शून्य में विलीन होती भाप की लकीर को देख रहा था. तभी मुझे लगा की कोई मेरे पीछे आकर खड़ा हो गया है. उसने धीरे से मेरे कंधे पर हाथ रखा.

” श्रेया तुम. अरे मैं तो कितने दिनों से कॉलेज के ज़माने के किसी एक भी दोस्त की तलाश कर रहा था. आओ बैठो न.

क्या पिओगी. वैसे मुझे तुम्हारा वो पुराना डायलॉग याद है. शाम ढलने के बाद हम कॉफी नहीं पीते जानू. हा हा हा. मगर तुम्हें हुआ क्या है श्रेया. या कैसा हाल बना रखा है.”
एक सर्द सी हंसी जिसमे न वो पहले वाली खनक न उल्लास न चमक. वो शांत सी बैठ गई. धीर गंभीर.

मैंने मौन की बर्फ तोड़ने की कोशिश की “यहां कैसे? क्या तुम यहाँ अकसर आती हो. क्या तुम यहीं कहीं आस पास रहती हो. और बाकी मित्र कहाँ हैं. क्या मिलते हैं कभी. वाणी, अमर …….”

” अभी कुछ मत पूछो …. बस …. मुझे तनिक तुम्हारे पास होने का अहसास होने दो. मैं थक गई हूँ निशी …. निशिकांत …मुझे अपनी छाँह में कुछ पल विश्राम तो करने दो. अकेली हूँ मैं. कुछ देर मेरे साथ रहो निशी. बस ऐसे ही. शांत.”

” तुम कितना बदल गई हो श्रेया. उदास भी लग रही हो. सब ठीक तो है न.”

” ठीक …. हाँ सब ठीक है बस अकेली हूँ. जनम जनम की अकेली. न मेरा कोई … न मैं किसी की. कल नशे में छद्म रिश्तों में, नाइट पार्टियों में, फर्जी दोस्तों में और सिगरेट के धुंए में अपने अकेलेपन को दूर करने का प्रयास करती रही थी. मगर सब मिथ्या निकला यार. सब नकली, फेक, छलावा. कोई मेरे पैसे का भूखा था कोई मेरे तन का. और फिर धीरे धीरे सब चले गए. आज भी अकेली … कल भी ….”

” तुम अजीब सी बहकी बहकी बातें कर रही हो श्रेया. आज एक पैग ज्यादा ….”

” मेरी भावनाओं का मजाक मत उड़ाओ निशि. मैंने शराब पीना कब का छोड़ दिया है. कहीं ….. कहीं न कहीं तुम्हारे प्रति मेरे अंतर्मन में, सबकॉन्सियस माइंड में … मेरे दिल में तुम्हारे प्रति जो भावनाएं थीं वो अतिरेक में निकलकर बहार आ गईं हैं बस. चलती हूँ”.

न जाने कौन सी अदृश्य प्रेरणा से मैंने उठती हुए श्रेया को हाथ पकड़कर बिठा लिए. वो अपने रुमाल से आँख के कौने पोंछ रही थी.

” श्रेया चलो इस मुलाकात को एक आइसक्रीम खाकर सेलिब्रेट करते हैं”.

फिर हम देर तक धीरे धीरे आइसक्रीम खाते रहे. फिर मैंने उठकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीरे से कहा “चलो श्रेया. तुम्हे घर छोड़ देता हूँ.”

वो अपने स्थान से उठी और लड़खड़ा सी गई. मैंने उसे बांह पकड़कर थाम लिया. न जाने किस भावना से एक मासूम बच्चे के से स्नेह से वो मेरे कंधे का सहारा लेकर चल रही थी.
बाहर निकलकर उसने अपने ड्राइवर को फोन किया कि वो किसी और के साथ जा रही है. घर पहुँच जाय.

” क्या … हुआ क्या है श्रेया, तुम कहती हो कि तुम ने शराब छोड़ दी है …. लेकिन, तुम सामान्य तो नहीं हो. बहकी बहकी बातें कर रही हो. बहुत निढाल और कमजोर भी लग रही हो. कहाँ है वो बोल्ड, बहादुर लड़की जो ऊंचे आसमान में उड़ जाना चाहती. जिंदगी को धुएँ में उड़ा देना चाहती थी.”

वो कुछ नहीं बोली. कुछ पल के बाद उसने अपनी कुर्ते की बांह से कलाई बहार निकलकर मेरे सामने कर दी . वहां एक पट्टी बंधी हुई थी. मैंने आश्चर्य से पुछा “ये क्या है. क्या हुआ है. मुझे कुछ बताओ.”

उसने निर्विकार भाव से कहा “अटैम्पट टु सुसाइड”.

” क्या …. तुम …. तुम और आत्महत्या. आई काँट बिलीव … तुम तो भीतर से बड़ी कमजोर निकली श्रेया. सुसाइड तो निरी कायरता है और तुम्हारी पर्सनल्टी से तो बिलकुल मैच नहीं करती यार.”

” कायरता. हाह ….”

उसने अपनी सीट की बैक को एडजेस्ट करके पीछे कर लिया और आँखें बंद कर लीं. जैसे सो जाना चाहती हो. उसके चहरे पर एक अजीब सी मासूमियत और वेदना परिलक्षित हो रही थी. न जाने क्यों मुझे लगा कि उसे बाँहों में लेकर चूम लूं. उसकी सारी परेशानियां गम अपने ऊपर ओढ़ लूं. उसे साथ लेकर चलता रहूँ चलता रहूँ जीवन के आखिरी छोर तक. और ये सफर बस चलता रहे यूँ ही अनवरत कभी न ख़त्म होने वाले सफर के लिए. आखिर एक जमाने में मैंने उसे दिल से प्यार किया था और शायद आज भी …..

उसने धीरे से मंद स्वर में कहा “गैंग रेप, हॉस्पिटल, कोमा, अबॉर्शन, पिताजी का देहांत, बदनामी और अकेलापन. पांच साल बहुत होते हैं निशि. बहुत होते हैं.

पाँच शब्दों में उसने अपनी सारी कहानी कह डाली थी। इसके आगे कहने को कुछ बचा नहीं था।

मेरी गाड़ी में ब्रेक लग गया. इस हालात में मैं कार नहीं चला सकता था. मैंने हाथ बढाकर उसके कंधे को दबाया तो उसके आँखों से अश्रुधारा फुट पडी. फिर हिचकियाँ बंध गईं. कई मिनट बाद वो थोड़ा आश्वस्त हुई.

मैंने धीरे से कहा “ऑस्ट्रेलिया चलोगी मेरे साथ. फिर तुम अकेली नहीं रहोगी। जिंदगी भर. और मैं भी नहीं.” उसने दोनों हाथों से मेरा हाथ थामकर अपने ठन्डे भीगे से गाल पर रख लिया था.

रवीन्द्र कान्त त्यागी