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इस्लामी समुदाय के शत्रु इस्लामी जगत में फैले फूट के वातावरण से अधिक से अधिक लाभ उठा रहे हैं : रिपोर्ट

जैसा कि सभी जानते हैं, इस्लामी शिक्षाओं में मुसलमानों की एकता व एकजुटता पर बहुत अधिक बल दिया गया है लेकिन इस्लामी जगत की आज की स्थिति पर एक नज़र डालने से ही इस्लामी देशों के बीच अभूतपूर्व फूट, मतभेद और विवाद का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय इस्लाम की सही शिक्षाओं और पैग़म्बरे इस्लाम के वास्तविक चरित्र को समझना और उस पर अमल करना हर समय से अधिक आवश्यक है क्योंकि इस्लामी समुदाय के शत्रु इस्लामी जगत में फैले फूट के वातावरण से अधिक से अधिक लाभ उठा रहे हैं और वे इस्लामी जगत को कमज़ोर करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं।

वर्तमान आंकड़ों के अनुसार इस समय संसार के विभिन्न क्षेत्रों में एक अरब बीस करोड़ से अधिक मुसलमान रहते हैं और 57 देशों में वे बहुसंख्या में हैं। इसी तरह कई देशों में वे एक प्रभावी धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में मौजूद हैं। इस्लामी देश, संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की लगभग एक तिहाई सीटों के अलावा संसार के अनेक महत्वपूर्ण व रणनैतिक क्षेत्रों में तेल व गैस के प्राकृतिक भंडारों के भी स्वामी हैं। यह बात इन देशों को आर्थिक, राजनैतिक व सामरिक क्षमताओं की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण बना देती है। लेकिन खेद की बात है कि एकजुटता व एकता के अभाव के चलते इस्लामी देश अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सके हैं और उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर भी अनेक समस्याओं विशेष कर आर्थिक पिछड़ेपन का सामना है।

इस्लामी देशों के पिछड़ेपन के मुख्य कारण के रूप में मुसलमानों के बीच फूट और मतभेद सदैव ही इस्लामी जगत के विद्वानों, सुधारकों और विचारकों के बीच विचार का एक मुख्य मुद्दा रहा है। इस्लामी जगत के अनेक विचारकों ने वास्तविक इस्लामी मान्यताओं से मुसलमानों की दूरी और अज्ञानता के काल के जातीय व क़बायली भेदभाव की बहाली को इस्लामी जगत के पिछड़ेपन की मुख्य वजह बताया है और इस्लामी देशों की एकता के लिए अनेक मार्ग सुझाए हैं। लेकिन इन सुधारकों विशेष कर जमालुद्दीन असदाबादी, अल्लामा इक़बाल और इमाम ख़ुमैनी जैसे प्रख्यात विचारकों द्वारा इस्लामी जगत में जागरूकता लाने और ईश्वर के अनन्य होने, पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी, क़ुरआने मजीद और एक क़िब्ले जैसे मज़बूत व संयुक्त इस्लामी सिद्धांतों के आधार पर इस्लामी देशों के बीच एकता की स्थापना के प्रयासों के बावजूद खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस्लामी जगत अब तक एकता व समरसता के मार्ग पर गंभीर क़दम नहीं उठा सका है। इसी लिए बहुत से मुसलमान, दरिद्रता, आर्थिक कठिनाइयों, विश्व मंच पर कमज़ोर राजनैतिक स्थिति और बड़ी शक्तियों के राजनैतिक व सैनिक हस्तक्षेप से उत्पन्न होने वाली समस्याओं में ग्रस्त हैं।

यहां तक कि इस्लामी सहयोग संगठन भी, जिसके गठ का मूल उद्देश्य इस्लामी देशों के बीच समरसता को बढ़ावा देना, विभिन्न आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सदस्य देशों के आपसी सहयोग का समर्थन करना, सदस्य देशों के आपसी समझ-बूझ का मार्ग प्रशस्त करना और अपनी स्वाधीनता और राष्ट्रीय अधिकारों के लिए सभी इस्लामी राष्ट्रों के संघर्ष का समर्थन करना है, बरसों की गतिविधियों के बावजूद अब तक इस्लामी देशों के बीच एकता स्थापित करने में सफल नहीं हो सका है और इन देशों की नीतियों में मतभेद यथावत बाक़ी है। इससे भी अधिक खेदजनक बात यह है कि सलफ़ी व तकफ़ीरी गुटों को अस्तित्व में आए एक दशक में ही मुसलमानों के बीच विवाद, मतभेद और युद्ध में वृद्धि हो गई है और विश्व जनमत के बीच उनकी छवि अधिक बिगड़ गई है। अतः अब समय आ गया है कि हम अपने आप से पूछें कि इस्लामी देशों के बीच इस फूट और बिखराव का वास्तविक लाभ किन लोगों को हो रहा है? क्यों इस्लामी देशों के शासक समझ-बूझ का प्रदर्शन नहीं करते और अपने कट्टर दुश्मनों के मुक़ाबले में क्यों एक जुट नहीं होते? क़ुरआने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं में इस्लामी समुदाय की एकता का क्या महत्व व स्थान है? और इस्लामी देशों की एकजुटता के मार्ग में क्या रुकावटें हैं?

इससे पहले कि हम क़ुरआने मजीद की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के चरित्र में मुसलमानों की एकता के स्थान के बारे में बात करें, बेहतर होगा कि इस सवाल का जवाब दे दें कि मुसलमानों की एकता से तात्पर्य क्या है? इस सवाल के जवाब में दो दृष्टिकोण पेश किए गए हैं। पहला दृष्टिकोण इस्लामी समाज की एकता के बारे में मेकेनिकल व्यवहार की बात करता है और उसका कहना है कि एकता को व्यवहारिक बनाने का अर्थ यह है कि सभी मुसलमान, चाहे वे शिया हों या सुन्नी, अपनी विशेष आस्थाओं को छोड़ दें और केवल उन्हीं आस्थाओं को मानें और उन पर अमल करें जो सभी इस्लामी मतों के बीच संयुक्त हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी मुसलमानों का एक ही मत होना चाहिए और उनके बीच आस्थाओं और धार्मिक आदेशों के मामले में किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं होना चाहिए।

दूसरा दृष्टिकोण एकता का एक दूसरा आयाम प्रस्तुत करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार इस्लामी एकता का अर्थ यह है कि विभिन्न इस्लामी मतों के अनुयाइयों को अपने मत के विशेष आदेशों व आस्थाओं को सुरक्षित रखते हुए अन्य मुसलमानों के साथ सामाजिक, राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक व सांस्कृतिक संबंधों में इस्लाम व इस्लामी समुदाय के उच्च लक्ष्यों व हितों से समन्वित होना चाहिए और इस्लाम के शत्रुओं के मुक़ाबले में हमेशा एकजुट रह कर काम करना चाहिए।

वास्तविकता यह है कि इस्लामी जगत में एकता पहले दृष्टिकोण के हिसाब से न तो आवश्यक है और न ही संभव है। यहां तक कि सुन्नी मत की चार शाखाओं के बीच भी इस प्रकार की एकता संभव नहीं है क्योंकि कुछ आस्थाओं और आदेशों में मतभेद पूरी तरह से स्वाभाविक है और उससे मुसलमानों में एक दूसरे से दूरी पैदा नहीं होती। इस आधार पर मुसलमानों की बीच एकता और उसमें रुकावट के कारणों पर क़ुरआने मजीद की आयतों को दृष्टिगत रखते हुए ध्यान दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में क़ुरआने मजीद को मुसलमानों के निजी, राजनैतिक व सामाजिक व्यवहार का आधार होना चाहिए क्योंकि क़ुरआन ही मुसलमानों के बीच एकता का सबसे बड़ा आह्वानकर्ता है और उन्हें बिखराव और फूट से दूर रहने को कहता है। सूरए अनआम की 153वीं आयत में कहा गया है। और निःसंदेह यह मेरा सीधा मार्ग है तो इसका अनुसरण करो और अन्य मार्गों पर मत चलो कि वे तुम्हें ईश्वर के मार्ग से दूर कर देंगे।

इसी तरह ईश्वर सूरए आले इमरान की आयत क्रमांक 103 में मुसलमानों को ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थामे रहने की सिफ़ारिश करता है और एकता को उनके लिए एक बड़ी विभूति बताता है। आयत कहती हैः और तुम सब मिलकर ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थामे रहो और बिखरो नहीं और अपने ऊपर ईश्वर की उस विभूति को याद करो जब तुम एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों में एक-दूसरे के लिए प्रेम जगाया तो तुम उसकी विभूति की छाया में एक-दूसरे के भाई बन गए। क़ुरआने मजीद इसी तरह एकेश्वरवाद और ईश्वर की उपासना को मुसलमानों की राजनैतिक व सामाजिक एकता का ध्रुव बताता है और एक एकजुट समुदाय की स्थापना की बात करता है। निश्चय ही यह तुम्हारा समुदाय एक ही समुदाय है और मैं तुम्हारा पालनहार हूँ। अतः तुम मेरी ही उपासना करो। यह आयत सांकेतिक रूप से ईश्वर की उपासना को मुस्लिम समुदाय में एकता का और उसके अतिरिक्त किसी भी अन्य के आज्ञापालन को फूट और बिखराव का कारण बताती है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इसी विचार के आधार पर अपने जीवन के अंतिम क्षण तक इस्लाम धर्म की ओर लोगों को आमंत्रित किया और मुसलमानों को ईश्वर की उपासना के आधार पर शत्रुओं के मुक़ाबले में एकता की सिफ़ारिश करते रहे।