धर्म

इस्लाम खीर, पूड़ी, हलवा, नेयाज़ या मुहर्रम के रास्ते नहीं चला

Shams Bond
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मै जो मुसद्दस सीरीज #ختم_رسل लिख रहा हूं उसके मूल लेखक Badiuzzaman Sahar साहब हैं ।
जिन्होंने सही हदिसों के अध्ययन के बाद हूबहू परिस्थितियों को अपनी नज़्म में ढाले हैं,जिसमें शब्दों की अदायगी को साधारण बुद्धिमान लोगों के समझ में आए उसी अनुरूप में उतारा गया है ।
मै उस किताब #ختم_رسل की बात क्यूं कर रहा हूं ?
क्यूंकि अकेली वही किताब मेरे हाथ आई थी जिसने पुराने सारे मौलवियों की बनाई आस्था और दी जाने वाली समझदारी को एकपल में कूड़ा करकट का ढेर बना दिया , जिन मौलवियों की लंत्रानी सुन कर मै इस्लाम को पागलों का ख्वाब और अंधभक्तों का नशा मानता था यानी मै समझदारी के साथ नास्तिक हुआ था क्यूंकि मै कोई जाहिल आदमी या इंटेलिजेंट रोबोट नहीं था,मै बातों की गहराई और पोख्तगी को खूब समझता था ।


फिर यूं ही एक दिन बेमन से मैंने टाइमपास में ये किताब उठा ली और उसके बाद इतने धमाके हुए मेरे नास्तिक अंतर्मन में कि सारी चुलें ही हिल गईं ।
उससे पहले मौलवी लोग चीख चीख कर दीनी पीर फकीर के चमत्कार सुना कर दिल को मुस्लिम करना चाहते थे और मौलाना के सामने हम सिर झुकाए सोचते थे कि या तो मौलवी सबको चूतिया समझते हैं या फिर इनके पास झूठी इंफॉर्मेशन है भला सूरज किसी शम्स नामी आदमी के पुकारने पर धरती पर आ कर सिर्फ वली के हाथ में पकड़ा गोश्त रोस्ट कैसे कर सकता है🤔
एक आदमी अपने झोपडी में बैठा दूर समुन्द्र में डूबते जहाज़ को कैसे बचा सकता है
और कोई गर्भस्थ भ्रूण मा के गर्भ से बाहर आ कर गुंडे की पिटाई सिंह रूप में कैसे कर सकता है,जबकि वो नबी के गुज़र जाने के सदिओं साल बाद जन्मे हों ।
तो मौलवी लोगों के रास्ते मुझे मालूम पड़ा था कि इस्लाम पंचतंत्र या चंपक कथाओं का संग्रह है ।
मुझे बचपन से अलौकिक कथाओं में दिलचस्पी नहीं रही है ,मै हर बात को अपनी बुद्धि से समझने की कोशिश करता था , मां बाप या समाज की आस्था का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ सकता था,अब भी नहीं पड़ता है, जो बात अक्ल से खाली और असल से अनाथ होता है मै उस बात को कबूल नहीं करता ।
ख़ैर,जब मैंने #कौमी_तंज़ीम प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब #ختم_رسل को हाथ लगाया तो इस्लाम का वो अकिदा जो मौलाना लोगों ने खड़ा किया था , भड़भड़ा कर गिरा और इस्लाम की सच्ची प्रेरित करने वाली घटनाएं नज़रों के सामने घूमने लगीं ,किताब के अक्षरों में इतनी यथार्थ पीड़ा और तकलीफ़ थी जिसने कई बार मेरी नज़रों को आंसू से धुंधला किया ।
इस्लाम खीर पूड़ी हलवा नेयाज़ या मुहर्रम के रास्ते नहीं चला ।
ये लोग कर्बला को यूं ही फ़ालतू में इस्लाम की लड़ाई बताते हैं ।
असल लड़ाई तो ओहद तबूक और दूसरी लड़ाई में हुई जिसमें मुक़ाबिल कफ्फार थे जिन्होंने दाना पानी कारोबार और रिश्तेदारी तक पर तलवार लटका रखी थी ।
इस्लाम बहुत ही गरीबी में पला है,तलवार के साए में सहम कर जिया है,लेकिन सिद्धि ही है इसकी जिसने मुझे वापिस मुसलमान बनाया है ,कोई शक नहीं मै अंधविश्वासों के सामने बिल्कुल नस्तिक हूं,और इलमी विश्वास पर👇

डिस्क्लेमर : लेखका के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है