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उनके जीवन की दास्तां दुखदायी रही और उन्हें अपने व्हाइट होने की क़ीमत चुकानी पड़ी

Apna mohalla-अपना मोहल्ला
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1983 वर्ल्डकप में कपिल देव की जिम्बाब्वे के विरुद्ध 175 रन की पारी सभी को याद है। उस दिन BBC हड़ताल पर था इसलिए रिकॉर्डिंग नही हो सकी लेकिन 83 मूवी ने इसे फिर से ताजा कर दिया।

उसमे जिम्बाब्वे के एक महान क्रिकेटर केविन करन को बार बार दिखाया जाता है जब कपिल देव चौके छक्के मार रहे थे तब उनकी कपिल से जुबानी जंग भी हो गयी। लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन की दास्तां दुखदायी रही और उन्हें अपने व्हाइट होने की कीमत चुकानी पड़ी।

दरसल जिम्बाब्वे भी कभी ब्रिटेन की कॉलोनी था, 11 नवम्बर 1965 को जिम्बाब्वे आजाद हुआ। बहुत से अंग्रेज जो इंग्लैंड छोड़कर जिम्बाब्वे में बस चुके थे वे वापस इंग्लैंड नही गए और जिम्बाब्वे को ही अपनी मातृभूमि बना लिया। ईसाई जगत में काला गौरा और महिला पुरुष का भेदभाव बहुत साधारण बात है।
जिम्बाब्वे पर अश्वेतों का राज आया तो इन व्हाइट्स पर अत्याचार बढ़ गए। खुद केविन करन बड़ी मुश्किल से अपना करियर बना सके जबकि उनके पिता भी क्रिकेटर थे। बाद में रॉबर्ट मुगाबे तानाशाह बना जिसने सत्ता तो पकड़ ली लेकिन राज करना नही आया।

रॉबर्ट ने अरविंद केजरीवाल की तरह फ्री की नीतियां निकाली, पहले बिजली फिर स्वास्थ्य और फिर मकान फ्री में मिलने लगें। लोगो की भूख और बढ़ गयी तो उसने ज्यादा नोट छापने शुरू कर दिए नतीजा यह हुआ कि जिम्बाब्वे की मुद्रा बाजार में अति हो गयी और उसका मूल्य गिरने लगा।

आपको आश्चर्य होगा कि जिम्बाब्वे ने कभी 1 अरब डॉलर का नोट भी छाप लिया था। महंगाई उफान पर थी सत्ता गिर सकती थी इसलिये रॉबर्ट ने वही किया जो अधिकतर तानाशाह करते है। उसने जनता में श्वेत अश्वेत की फुट डाल दी। उसने आदेश निकाला कि श्वेत लोगो की जमीन पर सरकार कब्जा कर ले और अश्वेतों में बांट दे।

इसी में केविन करन का फार्म हाउस और जमीन चली गयी, उन्हें कोच भी बनाया गया लेकिन श्वेत थे तो कोई उनकी सुनता नही था। परेशान होकर वे इंग्लैंड आ गए 2012 में उनकी मृत्यु हो गयी, लेकिन वे चर्चा में आये जब उनके बेटे सैम करन ने IPL में हैट्रिक की।

उस समय कई पत्रकारों ने कहा कि जिम्बाब्वे में नस्लवाद नही होता तो ये उनका ही खिलाड़ी होता। श्वेतों पर अत्याचार करने के चक्कर मे जिम्बाब्वे की अर्थव्यवस्था तबाह हो गयी और क्रिकेट से भी नामोनिशान मिट गया जबकि एक समय यह मजबूत टीम मानी जाती थी।

इसके विपरीत उसी 1983 वर्ल्ड कप में भारत मे रोजर बिन्नी थे, उनके पूर्वज अंग्रेज थे लेकिन भारत मे उनके साथ कोई भेदभाव नही हुआ बल्कि उनकी प्रतिभा का सम्मान ही हुआ। उसी वर्ल्डकप में ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध वे मैन ऑफ दी मैच भी थे।

समय के साथ आगे कैसे बढ़ना है कब कैसे कदम उठाने है ये विश्व को भारतीय समाज से सीखना चाहिए। यह मैं भारतीय होने के नाते नही कह रहा अपितु मानवीय मूल्यों की तुला पर कह रहा हु।

नोट- समुदाय विशेष का केस अलग है। इस पोस्ट के लिये वे अपवाद है।